[हर्ष वी पंत]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया अमेरिकी दौरे पर खासी टीका-टिप्पणियां हो रही हैं। यह स्वभाविक भी है। जहां उनके समर्थक इस दौरे को भारत के लिए बड़ी जीत करार दे रहे हैं वहीं प्रधानमंत्री के आलोचकों का कहना है कि इस दौरे में कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं हुई, मगर इस बात पर किसी विवाद या बहस की कोई गुंजाइश नहीं कि अपने पूरे दौरे में प्रधानमंत्री मोदी फ्रंटफुट पर खेलते नजर आए और उन्होंने पूरी तन्मयता के साथ भारत के हितों को वैश्विक मंच पर रखा। मोदी के नेतृत्व में भारत ने अपनी विदेश नीति में परंपरागत रक्षात्मक रवैया बदला है।

अपने अमेरिकी दौरे के दौरान भी वह भारतीयों की आकांक्षाओं को मुखरता के साथ प्रदर्शित करने में पीछे नहीं रहे। अपने इस व्यस्त अमेरिकी दौरे में मोदी को चार भूमिकाएं निभानी थीं। सबसे पहले तो उन्हें अमेरिका के साथ विशेषकर व्यापारिक मोर्चे पर तल्खी को कम करना था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप काफी अर्से से व्यापारिक मुद्दों को लेकर भारत पर निशाना साधते रहे हैं। ऐसे में भारतीय प्रधानमंत्री के लिए यह महत्वपूर्ण था कि वह वाशिंगटन को आश्वस्त करें कि भारत परस्पर लाभ के लिहाज से अमेरिका के साथ ठोस मुद्दों पर सक्रियता से संवाद करने के लिए तैयार है।

पीएम मोदी ने डानाल्ड ट्रंप को लुभाया

दोनों देशों के साथ व्यापारिक तानेबाने को सुगम बनाने के लिए भारतीय अधिकारी विशेषकर वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल अपने अमेरिकी समकक्षों के साथ लगातार सक्रिय हैं। यहां तक कि ह्यूस्टन में अपनी रैली के दौरान खुद मोदी ने ट्रंप को बड़े जोरदार ढंग से लुभाने की कोशिश की। वहीं ट्रंप उस कार्यक्रम में स्वयं को भारत और भारतीय मूल के अमेरिकियों के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश कर रहे थे।

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस कवायद का खाका मोदी ने ही खींचा था। बहरहाल इस दौरे में बहुप्रतीक्षित व्यापार समझौता नहीं हो सका। इसकी मुख्य वजह यही रही कि दोनों देश सूचना एवं संचार यानी आइसीटी उत्पादों पर कोई सहमति बनाने में नाकाम रहे, मगर इन वार्ताओं ने वाशिंगटन को यह भरोसा जरूर दिलाया कि अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर भारत बहुत गंभीर है। व्यापार समझौते को लेकर ट्रंप का बयान दोनों देशों के बीच सहजता के स्तर की पुष्टि करता है।

दिग्गज अमेरिकी कंपनियों के साथ पीएम मोदी की बैठक 

मोदी के लिए दूसरी भूमिका यह थी कि वह अमेरिकी और वैश्विक निवेशकों के समक्ष निवेश के लिए एक आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत का पक्ष मजबूती से रखें। उन्हें भारत की ऐसी पैरवी एक ऐसे समय में करनी थी जब देश में आर्थिक सुस्ती को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। ऊर्जा क्षेत्र में सक्रिय कंपनियों के प्रमुखों के साथ ह्यूस्टन में और फिर मास्टरकार्ड, वीजा और वालमार्ट जैसी 40 दिग्गज कंपनियों के सीईओ के साथ न्यूयार्क में ब्लूमबर्ग ग्लोबल बिजनेस फोरम में मोदी ने भारत में निवेश आकर्षण के पहलुओं को रेखांकित किया। 

उन्होंने यहां तक कहा कि यदि निवेशकों को कोई दिक्कत आती है तो वह स्वयं निजी हस्तक्षेप करके उसका निदान करेंगे। मोदी ने भारत के लोकतंत्र, जनसांख्यिकी, मांग और निश्चिंतता जैसे तमाम बिंदु गिनाए जो भारत की वृद्धि को धार दे रहे हैं और वैश्विक निवेशक भी इसका हिस्सा बनकर लाभ उठा सकते हैं। मोदी भारत के सबसे बेहतरीन ब्रांड अंबेसडर बने हुए हैं और वह भारत की पैरवी ऐसे वक्त में कर रहे हैं जब तमाम लोगों ने भारत की आर्थिक वृद्धि को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।

ह्यूस्टन रैली में पीएम मोदी का तेजतर्रार भाषण

मोदी के लिए तीसरी भूमिका अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भारत की वैश्विक नेतृत्व क्षमताओं को पुन: रेखांकित करने से जुड़ी थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने संबोधन में उन्होंने जिस तरह भारत के आमूलचूल परिवर्तनों को प्रकट किया वह उन व्यापक आकांक्षाओं के अनुरूप ही था जो दुनिया लगातार भारत से करती आ रही है। एक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में भारत की भूमिका और भारत के उदय को समायोजित करने के लिए नए वैश्विक ढांचे की दरकार को लेकर उनका भाषण तेजतर्रार और स्पष्टता लिए था।

इस मंच पर मोदी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीयवाद भारतीय सभ्यता के मूल्यों में स्वाभाविक रूप से सन्निहित है। वह केवल शक्ति संतुलन में भारत के हितों को लेकर की जाने वाली तिकड़म नहीं है। अपने भाषण में उन्होंने पाकिस्तान को पूरी तरह नजरअंदाज किया। यहां तक कि आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किए आह्वान में भी उन्होंने पाकिस्तान का नाम लेना गवारा नहीं समझा।

ह्यूस्टन रैली को पीएम मोदी ने बखूबी इस्तेमाल किया 

इससे भी महत्वपूर्ण उनका यह कहना रहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नई दिल्ली बहुध्रीवयता को अनिवार्य मानती है। उन्होंने यह कहते हुए दुनिया में बढ़ते संरक्षणवाद पर प्रहार किया कि ‘हमारे पास यह विकल्प नहीं कि हम स्वयं को अपनी सीमाओं में समेटकर रखें।’ यह कहकर उन्होंने ट्रंप की बहुध्रुवीयता की समाप्ति वाली अवधारणा को स्पष्ट रूप से खारिज किया।

आखिर में मोदी के लिए चौथी भूमिका यही थी कि वह जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद भारत के पक्ष को रखने के साथ ही इस मसले पर पाकिस्तानी दुष्प्रचार की काट करें। इसके लिए उन्होंने ह्यूस्टन रैली के मंच का प्रभावी रूप से इस्तेमाल किया और ट्रंप की मौजूदगी में यह संदेश दिया कि नई दिल्ली को यह नीति बदलने की जरूरत क्यों पड़ी?

अनुच्छेद 370 पर भारतवंशियों का मिला जबरदस्त समर्थन

इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि भारत ने कितने पारदर्शी और लोकतांत्रिक तरीके से इस फैसले को अंजाम दिया। इस सभा में मौजूद 50,000 भारतीय-अमेरिकियों द्वारा इस पर गर्मजोशी से दी गई प्रतिक्रिया से अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान को महसूस हुआ होगा कि अनुच्छेद 370 पर नई दिल्ली के निर्णय को भारतवंशियों का कितना जबरदस्त समर्थन हासिल है।

अमेरिका में अभी भी पाकिस्तान के हमदर्द हैं मौजूद

मोदी के अलावा विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी विभिन्न मंचों पर भारत के पक्ष को बखूबी बयान किया। इस दौरान वह कई मिथ्या धारणाओं को दूर करने में सफल रहे। स्पष्ट है कि मोदी के अमेरिकी दौरे में तमाम मसलों पर बात आगे बढ़ी और इस दौरान की गई तमाम कोशिशें सराहनीय कही जाएंगी। यह सही है कि अमेरिका के साथ व्यापारिक गतिरोध पर तनाव कायम है और ट्रंप एक अनिश्चित एवं अस्थिर वार्ताकार बने हुए हैं, वहीं इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि अमेरिका में अभी भी पाकिस्तान के हमदर्द मौजूद हैं।

मगर मोदी का दौरा इन सभी समस्याओं को सुलझाने के लिए नहीं था। यह दौरा संबंधों में आई शिथिलता को दूर करने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को साधने पर केंद्रित था। इन दोनों मोर्चों पर मोदी प्रभावी रहे। अब पूरा दारोमदार भारतीय कूटनीति पर है कि मोदी के इस दौरे से बने बढ़िया माहौल को कैसे निरंतरता देकर उसे भलीभांति भुनाए। 

(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)