[ विवेक काटजू ]: इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी सुब्रहमण्यम जयशंकर को विदेश मंत्री बनाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की राजनीतिक बिरादरी के साथ-साथ विदेश नीति और सुरक्षा वर्ग से जुड़े लोगों को चौंकाने का काम किया। इससे पहले जनवरी 2015 में भी उन्होंने एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह को हटाकर जयशंकर को विदेश सचिव बनाया था। तब जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत थे और बस सेवानिवृत्त होने वाले ही थे। स्पष्ट है कि भारत के कूटनीतिक रिश्तों को संभालने में मोदी को जयशंकर की क्षमताओं पर पूरा भरोसा है।

एक नेता के रूप में जयशंकर

मोदी को विश्वास है कि एक नेता के रूप में भी जयशंकर अपनी छाप छोड़ने में सफल होंगे। यहां यह उल्लेखनीय है कि विदेश मंत्री के रूप में वह शीर्ष राजनीतिक पदों में से एक पर काबिज हुए हैं। वह सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीएस के भी सदस्य होंगे। इस समिति में सरकार के सबसे कद्दावर नेता शामिल हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इसका हिस्सा हैं। इनके अलावा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी इसमें शामिल हैं।

राजनयिक के रूप में शानदार करियर

राजनयिक के रूप में जयशंकर का करियर बेहद शानदार रहा। उन्होंने कई अहम जिम्मेदारियां सफलतापूर्वक संभालीं। वह एक कुशल वार्ताकार के रूप में स्थापित हुए। उन्होंने भारतीय विदेश नीति के सिद्धांतों और विभिन्न क्षेत्रीय एवं वैश्विक मुद्दों पर उठाए गए कदमों की हमेशा उपयुक्त व्याख्या की। अमेरिका और चीन जैसे दो देशों के साथ बेहद महत्वपूर्ण द्विपक्षीय रिश्तों के मोर्चे पर उन्होंने अच्छा-खासा अनुभव अर्जित किया है। वाशिंगटन स्थित दूतावास की कमान संभालने से लेकर जयशंकर ने अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों को कई अलग-अलग पहलुओं के लिहाज से साधने का काम किया है। इससे उन्हें यह समझने का अवसर मिला कि अमेरिकी तंत्र कैसे काम करता है।

परमाणु करार में अहम योगदान

भारत-अमेरिका परमाणु करार को अंतिम रूप देने में भी उनका अहम योगदान रहा। इससे भारत-अमेरिका संबंध नई ऊंचाई पर पहुंचे। अब विदेश मंत्री के रूप उन्हें अपना पूरा कौशल और अनुभव झोंकना होगा ताकि राष्ट्रपति ट्रंप की व्यापार और आव्रजन नीतियां भारत को कम से कम नुकसान पहुंचाएं। ट्रंप अड़े हैं कि भारत अपने महत्वपूर्ण रक्षा उपकरणों की खरीद के लिए पुराने साझेदार रूस से पीछा छुड़ाए। जयशंकर को इस मुश्किल का हल निकालना होगा।

भारत-चीन संबंधों की गुत्थी जटिल है

जयशंकर करीब साढ़े चार साल चीन में भी भारत के राजदूत रहे और इस दौरान उन्होंने चीन को लेकर अपनी समझ बढ़ाई। भारत-चीन संबंधों की गुत्थी बहुत जटिल है और इसे सुलझाना भारत की कूटनीति एवं सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए मुख्य चुनौती बनी हुई है। जहां एक के बाद एक भारतीय सरकारें चीन के साथ सहयोग का दायरा बढ़ाने की उत्सुक रहीं वहीं चीन स्वयं और अपने पिट्ठू पाकिस्तान के माध्यम से भारतीय हितों पर लगातार आघात करता रहा है। चीन की मंशा अब वैश्विक मंच पर बड़ी भूमिका निभाने की है। इसके तहत वह पहले एशिया में अपना दबदबा बनाना चाहता है। वह भारत के पड़ोस में वर्चस्व कायम करने में लगा है।

मोदी को दिखाई सही राह

दक्षिण एशिया में अपनी पैठ बढ़ाने में जुटे चीन का रास्ता भारत को रोकना होगा। मोदी चीन की चुनौती से भलीभांति परिचित हैं। वह डोकलाम में इस चुनौती का सामना भी कर चुके हैं। तब विदेश सचिव के रूप में जयशंकर ने मोदी को सही राह दिखाई थी। इस लिहाज से यह एकदम उपयुक्त रहा कि बतौर विदेश मंत्री जयशंकर ने अपना पहला विदेशी दौरा भूटान का किया। इससे भूटान आश्वस्त हुआ होगा कि भले ही चीन का दबाव बढ़े, लेकिन भारत हमेशा उसके साथ मजबूती से खड़ा रहेगा।

विदेश सेवा के रूप में व्यापक अनुभव

विदेश सेवा अधिकारी के रूप में जयशंकर के पास बहुत व्यापक अनुभव रहा है। उन्होंने श्रीलंका, सिंगापुर और यूरोपीय देशों में भी सेवाएं दी हैं। उन्होंने सोवियत दौर में मास्को में सेवाओं के साथ अपने करियर की शुरुआत की। इसके अलावा उन्हें सुरक्षा मामलों की समझ अपने पिता के. सुब्रहमण्यम से विरासत में मिली जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, लेकिन वह सामरिक मामलों में भारत के शुरुआती और बेहतरीन विशेषज्ञों में से एक के रूप में स्थापित हो गए थे। यह पूरा अनुभव विदेश सचिव के रूप में जयशंकर केबहुत काम आया। वह तीन वर्षों से अधिक तक विदेश सचिव रहे।

मोदी का जयशंकर पर भरोसा

मोदी ने जयशंकर में बहुत भरोसा जताया है। वह एक तरह से मोदी के विदेश नीति सलाहकार बन गए थे। विदेश मंत्रालय की परंपरा से उलट मोदी ने जयशंकर से हमेशा अपने साथ बने रहने के लिए कहा। तब भी जब कोई मामला अन्य सचिवों के कामकाज से जुड़ा रहा। इस लिहाज से अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में जयशंकर का कद कुछ बड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मंत्री के रूप में जयशंकर विदेश नीति और कूटनीतिक मसलों पर मोदी के मुख्य सलाहकार बने रहेंगे। कूटनीति में उनका व्यापक अनुभव नई भूमिका में बहुत मददगार साबित होगा, खासकर तब जब बाहरी परिदृश्य बहुत जटिल होता जा रहा है।

भारत की पड़ोस पर नजर

अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते विरोधाभास को देखते हुए भारत को इसके कारण पड़ने वाले असर का समाधान निकालना होगा। साथ ही अपने वाणिज्यिक, आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक हितों को देखते हुए भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और यूरोप के साथ अपने रिश्तों में निरंतर धार देनी होगी। भारत को अपने पड़ोस पर नजर रखने के साथ ही पश्चिम एशिया में अपने हितों को भी सुरक्षित रखना होगा जहां काफी उथल-पुथल मची हुई है। ईरान के खिलाफ अमेरिका की कड़ी नीतियों से भारत प्रभावित हुआ है।

पाकिस्तान एक बड़ी चुनौती

जयशंकर के सामने एक बड़ी चुनौती पाकिस्तान के मोर्चे पर भी होगी जो बातचीत के लिए तो बेचैन दिखता है, लेकिन भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने वाले आतंकी ढांचे पर लगाम लगाने के कोई संकेत नहीं दे रहा है। उम्मीद यही है कि भारत इस रुख पर कायम रहेगा कि आतंकवाद के साथ वार्ता संभव नहीं हो सकती।

राजनीतिक चोला पहनना होगा

विदेश मंत्री के रूप में जयशंकर ने सुषमा स्वराज की जगह ली है जो भारत की सबसे अनुभवी और लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं। सुषमा स्वराज ने मंत्रालय को मानवीय पुट दिया। उन्होंने सुनिश्चित किया कि विदेश में किसी भी भारतीय की परेशानी प्राथमिकता के आधार पर हल की जाए। उन्होंने भारतीय विदेश नीति में निरंतर संतुलन बनाए रखा। विदेश नीति पर भारत की स्थिति को संसद में रखने के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। जाहिर है कि जयशंकर को जल्द ही राजनीतिक चोला भी पहनना होगा, जो एक मंत्री के लिए जरूरी है।

जयशंकर पर जनता की नजर

मोदी ने जयशंकर की क्षमताओं में जो विश्वास दिखाया है वही विदेश मंत्री के रूप में उनकी सबसे बड़ी थाती है। उनके प्रदर्शन पर जनता की नजर रहेगी। क्या वह जनता के भरोसे पर खरे उतर पाएंगे? अगर अतीत के प्रदर्शन को पैमाना माना जाए तो यह कहा जा सकता है कि निश्चित रूप से वह अपनी छाप छोड़ने में सफल होंगे।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं ) 

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