[संजय गुप्त]: आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जो विजय मिली उसके पीछे कई कारण गिनाए जा रहे हैं, लेकिन गौर से देखा जाए तो इस प्रचंड जीत का प्रमुख कारण रहा प्रधानमंत्री मोदी की अपनी साख। 2014 में जब वह पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब भी उन्हें प्रबल बहुमत मिला था। यह इस उम्मीद के तहत था कि गुजरात में सफल शासन दे चुके मोदी बतौर प्रधानमंत्री अपनी सरकार को नए तरीके से चलाएंगे। मोदी ने सत्ता में आते ही नौकरशाही के तंत्र को कसा। साथ ही कुछ नए कार्यक्रम शुरू किए, जिनमें स्वच्छता अभियान और उसके तहत शौचालयों का निर्माण प्रमुख रहा।

इसके अलावा हर घर बिजली पहुंचाने और गरीब परिवारों को रसोई गैस सिलेंडर एवं आवास देने की योजनाओं ने भी असर दिखाया। खास बात यह रही कि पांच साल के शासन में मोदी सरकार के भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नहीं आया। मोदी सरकार ने अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने के साथ ही नए मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया। अपनी साख के चलते मोदी नए-पुराने मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में सफल रहे कि उनकी सरकार सबका साथ-सबका विकास को लेकर प्रतिबद्ध है।

दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी सरकार का मुकाबला करने के नाम पर ऐसा रवैया अपनाए रहे जैसे उनकी विरासत छीन ली गई हो। वह मोदी के खिलाफ लगातार अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते रहे। राहुल तैश में आकर बोलते समय शायद यह सोचते रहे कि वह जनता को मोहित कर रहे हैं, लेकिन इसका जनता पर विपरीत असर पड़ा। भले ही राहुल यह कहते रहे हों कि वह प्यार की राजनीति करते हैं, लेकिन उनकी इस शैली में अहंकार ही झलकता था। वहीं मोदी जब कभी गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा करते तो भी शालीनता के दायरे में रहते।

जनता ने अपने पीएम के खिलाफ अपशब्दों को स्वीकार नहीं किया। चूंकि राहुल का राजनीतिक कद मोदी से हमेशा से कमतर ही रहा इसलिए चुनाव के दौरान उनके अशालीन आचरण ने उनकी और कांग्रेस की साख पर बट्टा लगाने का काम किया। इसी कारण जहां भाजपा को पहले से ज्यादा सीटें मिलीं वहीं कांग्रेस को फिर करारी हार झेलनी पड़ी। इसमें एक बड़ा योगदान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति का भी रहा। अमित शाह ने एक सक्षम नेता की मोदी की छवि को बखूबी जनता के सामने रखा। भाजपा में पन्ना प्रमुख बनाकर वह पार्टी की रीति-नीति में व्यापक तब्दीली लाए। उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने के लिए देश भर में सघन दौरे किए। इसके बेहतर नतीजे सामने आए और भाजपा अपने वोट प्रतिशत को भी बढ़ाने में सफल रही।

कई सीटों पर भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर दूसरे और तीसरे नंबर पर रहे प्रत्याशी को मिले कुल वोटों से अधिक रहा। अमित शाह का यह दावा कई सीटों पर सही साबित हुआ कि भाजपा 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके दिखाएगी। विरोधी दल उनकी रणनीति के सामने ठहर नहीं सके। जनादेश बता रहा है कि मतदाताओं ने परिवारवाद पर टिके क्षेत्रीय दलों को नकार दिया। एक तरह की सामंती मानसिकता के तहत संचालित होने वाले जो क्षेत्रीय दल पुराने तौर-तरीकों पर टिके रहे, कांग्रेस उनके ही सहारे मोदी का मुकाबला करने की तैयारी करती रही और इसी कारण नाकाम रही। वह महागठबंधन भी नहीं बना सकी, जबकि इसके लिए कवायद खूब की गई।

कांग्रेस चुनावी रणनीति के मामले में किस तरह भाजपा से बहुत पीछे रही, यह इससे साबित होता है कि राहुल गांधी जब इस उधेड़बुन में थे कि वह अध्यक्ष बनें या नहीं तब अमित शाह पार्टी को विस्तार देने में जुटे हुए थे। चूंकि भाजपा हिंदू जीवन शैली और मान्यताओं को महत्व देने वाली पार्टी है इसलिए मोदी को यह प्रमाणित करने की जरुरत ही नहीं थी कि वह किन मूल्यों की पैरवी करते हैं। इसके विपरीत राहुल गांधी को यह बताना था कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति छोड़ रहे हैं। उन्होंने मंदिरों की दौड़ लगाई और खुद को जनेऊधारी घोषित करवाया, लेकिन देश ने इस पाखंड को अस्वीकार्य कर दिया।

चुनाव नतीजे इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं। राहुल गांधी बहन प्रियंका को ठीक चुनाव के पहले महासचिव बनाकर राजनीति में लाए, लेकिन इससे पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला। वह जिस पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनीं वहां से कांग्रेस सिर्फ रायबरेली में जीत हासिल कर सकी। उनकी तमाम सक्रियता के बाद भी राहुल गांधी अमेठी से हार गए। रायबरेली में भी सोनिया गांधी की जीत का अंतर कम हुआ। प्रियंका ने न तो उत्तर प्रदेश में कोई असर छोड़ा और न ही अन्य राज्यों में। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि कुछ माह पहले भाजपा शासित तीन राज्यों में जीत हासिल करने के बाद राहुल गांधी इस मुगालते में आ गए थे कि वह मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों की तरह लोकसभा चुनाव में भी मोदी को आसानी से मात दे सकेंगे।

भाजपा की ऐतिहासिक जीत के पीछे मोदी की जो लहर थी उसका पूर्वानुमान भाजपा नेताओं के सिवा और कोई नहीं लगा सका। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि देश के अभिजात्य वर्ग का एक तबका भाजपा के 200 सीटों से कम पर सिमटने की बात करता रहा।

 

यह विशिष्ट वर्ग मतदान के कई दौर समाप्त होने के बाद भी जमीनी हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। ऐसा शायद इसलिए हुआ, क्योंकि इस वर्ग में वामपंथी सोच वाले चिंतक और मीडिया के कुछ ऐसे लोग हैं जो मोदी को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। इनमें वे कारोबारी भी थे जिनकी काली कमाई पर नोटबंदी और जीएसटी ने विराम लगा दिया था। इन सभी ने मोदी के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी।

उनकी ओर से सोशल मीडिया पर भी दुष्प्रचार किया जा रहा था। चूंकि वे मोदी को हारते हुए देखना चाहते थे इसलिए मतदान बाद आए एक्जिट पोल को भी मानने से इन्कार करते रहे। यही लोग आर्थिक विकास के आंकड़ों को गलत बताते हुए बेरोजगारी बेलगाम होने का रोना रोते रहे और अन्य मुद्दों पर भी सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे। आखिरकार उन्हें मुंह की खानी पड़ी और मोदी फिर प्रचंड बहुमत के साथ देशवासियों की आकांक्षा के प्रतीक बनकर उभरे।

आम चुनाव में बड़ी जीत के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं के उत्साह के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले भाषण में एक ओर जहां देश को भरोसा दिलाया कि वह गलत नीयत से कोई काम नहीं करेंगे वहीं दूसरी ओर उन्होंने नकली सेक्युलरिज्म को बेनकाब करते हुए देश को याद दिलाया कि कैसे इस चुनाव में कथित धर्मनिरपेक्षता की बात नहीं उठी। उनका यह बयान उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा है जिन्होंने कांग्रेस प्रायोजित अवार्ड वापसी अभियान के जरिये मोदी को घेरने की कोशिश की थी। यह ऐतिहासिक जनमत बता रहा है कि देश की जनता का प्रधानमंत्री पर अटूट विश्वास है। नतीजों के बाद नरेंद्र मोदी का पहला संबोधन उनके व्यक्तित्व में आए निखार का संकेत है। चूंकि देशवासियों का उन पर भरोसा और बढ़ा है इसलिए वे सुखद-सुनहरे भविष्य की कामना कर रहे हैं।

 
(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)

 

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