अरविंद मिश्र। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि पहली बार सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में है, ऐसा नहीं है। पिछले दो-तीन दशकों की ही बात करें तो शायद ही कोई साल बीता हो, जब तेल की कीमतों पर सरकार और विपक्ष के बीच नूराकुश्ती न हुई हो। इस बात से भला कौन इन्कार कर सकता है कि रोजमर्रा के कामकाज से लेकर हर छोटी-बड़ी कारोबारी गतिविधियां पेट्रोल-डीजल से ही चलती हैं। पेट्रोलियम पदार्थो के उत्पादन, वितरण और विनिमय से जुड़े नीतिगत और बाजार आधारित निर्णय एक ओर जहां अर्थव्यवस्था को गहराई से प्रभावित करते हैं। वहीं तेल पर लिए गए फैसले हर उपभोक्ता की जेब से जुड़े होने के कारण राजनीतिक दलों को मुद्दों की शक्ल में खाद-पानी भी मुहैया कराते हैं। किसी भी वस्तु की कीमतों के निर्धारण में मांग और आपूर्ति के सीधे-सपाट संबंध को समझने के लिए अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है।

यह बात और है कि ईंधन की इकोनॉमिक्स में मांग और उपलब्धता से इतर भी कई अहम किरदार हैं। एक ओर जहां लॉकडाउन हटने के बाद देश में आर्थिक गतिविधियां तेजी से पटरी पर वापस लौट रही हैं। वहीं कई राज्यों में पेट्रोल शतकीय पारी खेल रहा है। देश के अर्थतंत्र की मौजूदा परिस्थितियों के मुताबिक तेल की दरों में ताजा बढ़ोतरी पिछली किसी भी वृद्धि की तुलना में असामान्य है। कोरोना जनित परिस्थितियों के कारण अर्थव्यवस्था में मांग बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऐसे में तेल की दरों को यदि समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो इससे महंगाई बढ़ने के साथ विनिर्माण क्षेत्र को लेकर तय किए गए लक्ष्य भी धूमिल हो जाएंगे।

तेल के खेल की मौजूदा बिसात: दुनिया भर में 60 फीसद कच्चे तेल की आपूर्ति तेल निर्यातक देशों के समूह (ओपेक) से होती है। अपने हित साधने के नाम पर तेल के उत्पादन और कटौती से जुड़े असामयिक निर्णय तेल की कीमत ऊंचा करने का प्रमुख हथियार बनता जा रहा है। मौजूदा समय में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 63 डॉलर प्रति बैरल के निकट है। अप्रैल 2020 में कोरोना महामारी के कारण यह गिरकर लगभग 20 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ गई थी। वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेल की खपत बिल्कुल कम होना इसकी सबसे बड़ी वजह थी। तेल की दरों में लगातार गिरावट के कारण तेल उत्पादक देश और उसके सहयोगी देशों के साथ रूस ने मई 2020 में तेल उत्पादन में 97 लाख बैरल प्रति दिन की कटौती कर दी। सऊदी अरब ने इसी हफ्ते तेल के उत्पादन में प्रतिदिन 10 लाख बैरल की कटौती कर समस्या को आयात के मोर्चे पर और जटिल बना दिया है। कुछ इसी तरह मध्य पूर्व में होने वाले तनाव तेल की कीमतों को अस्थिर बनाने वाले अहम कारक बने हैं। एक अनुमान के मुताबिक कच्चे तेल की कीमतें इस वर्ष के शुरुआती दो महीने में ही लगभग 20 प्रतिशत की बढ़त कायम कर चुकी हैं।

भारत का रुख: ऐसा नहीं है कि तेल निर्यातक देशों की इस मनमानी के खिलाफ भारत ने आवाज नहीं उठाई है। केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेद्र प्रधान ने तो हाल के दिनों में ओपेके देशों की सहभागिता वाले कार्यक्रम में यहां तक कह दिया कि तेल उत्पादक देश कच्चे तेल की कीमतों में कृत्रिम वृद्धि कर रहे हैं। इससे पहले भी भारत तेल के बड़े आयातक देशों जैसे दक्षिण कोरिया, जापान और चीन के साथ मिलकर तेल आयातक क्लब गठित करने की संभावनाओं को बल देता रहा है। तेल की कीमतों को बढ़ाने में अंतरराष्ट्रीय कारकों के साथ ही घरेलू मोर्चे पर इसके मूल्य निर्धारण से जुड़ी कर संरचना का भी बड़ा योगदान है। वर्तमान में लगभग सभी बड़े पेट्रोलियम उत्पाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के दायरे से बाहर हैं। जीएसटी में शामिल न होने से पेट्रोल-डीजल की खुदरा बिक्री मूल्य का निर्धारण प्रति दिन तय होता है। सामान्यत: पेट्रोलियम कंपनियों द्वारा कच्चा तेल आयात करने के बाद उसे रिफाइनरी में भेजा जाता है। तेल शोधक संयंत्रों से तेल कंपनियां अपनी लागत और मुनाफा जोड़कर इसे पेट्रोल पंप डीलरों तक पहुंचाती हैं। उपभोक्ताओं के पास पहुंचने से पहले डीलर के कमीशन के साथ पेट्रोल और डीजल पर केंद्र द्वारा उत्पाद शुल्क और राज्यों द्वारा वैट लगाया जाता है। कई जगहों पर तो स्थानीय टैक्स तेल से निकली कीमतों की तपिश को और बढ़ा देते हैं।

यदि पेट्रोल की ही बात करें तो उपभोक्ताओं को प्रत्येक लीटर पर लगभग 60 प्रतिशत तो सिर्फ टैक्स देना होता है। खास बात यह है कि तेल की कीमतों पर विपक्ष भले ही सरकार पर हमलावर होने के मौके तलाश रहा है, लेकिन उसके पास भी कहने के लिए न तो नीतिगत मोर्चे पर कुछ है और न ही उसकी राज्य सरकारों के कदम कोई राहत या विकल्प दे रहे हैं। यहां तक कि तेल के मूल्य निर्धारण का वर्तमान ढांचा यूपीए सरकार के कार्यकाल में गठित किरीट पारिख समिति की अहम अनुशंसाओं पर ही आधारित है। उल्लेखनीय है कि योजना आयोग के पूर्व सदस्य किरीट पारिख की अध्यक्षता वाली समिति ने तेल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का प्रस्ताव किया था। ऐसे में पेट्रोल-डीजल से जुड़ा एक ऐसा कर संतुलन स्थापित करने की दरकार है, जो उपभोक्ताओं के साथ ही राजस्व के मोर्चे पर केंद्र और राज्यों के लिए भी घाटे का सौदा न हो। मोदी सरकार ने ऊर्जा से जुड़े आíथक सुधारों के साथ इस क्षेत्र से जुड़ी आधारभूत परियोजनाओं के विकास को वरीयता देकर एक अच्छी शुरुआत की है। इसके अंतर्गत पेट्रोल-डीजल पर निर्भरता कम करने के स्थायी प्रयासों को जमीन पर सफल बनाना प्रमुख है।

पेट्रोलियम उत्पादों को करें जीएसटी में शामिल : पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में सम्मिलित किए जाने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। यदि सरकार पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाती है तो यह ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करने वाला अभूतपूर्व निर्णय होगा। हालांकि इस पर कोई भी निर्णय जीएसटी काउंसिल में ही संभव है। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि केंद्र और राज्य, दोनों मिलकर इसका ठोस समाधान निकालें। विशेषज्ञों के मुताबिक जीएसटी काउंसिल पेट्रोल-डीजल पर एक तर्कसंगत स्लैब प्रस्तुत कर सकती है। हां, यह उपभोक्ताओं के साथ केंद्र और राज्यों को राजस्व के नजरिये से राहत देने वाला होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिनों पहले ही इससे जुड़ी एक बड़ी घोषणा की है।

तमिलनाडु में तेल एवं गैस आधारित परियोजनाओं के उद्घाटन के दौरान पीएम ने प्राकृतिक गैस को जीएसटी के दायरे में लाने को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर की। उस दौरान उन्होंने यह भी कहा कि यदि तेल और गैस से जुड़ी बुनियादी संरचनाओं के विकास के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने पर्याप्त कदम उठाए होते तो आम आदमी पर पड़ने वाले बोझ को कम किया जा सकता था। मोदी सरकार अब पेट्रोल-डीजल जैसे परंपरागत जीवाश्म ईंधन की जगह ऊर्जा के नए विकल्पों पर आत्मनिर्भरता बढ़ना चाहती है। ऊर्जा आत्मनिर्भरता के इस लक्ष्य में प्राकृतिक गैस एक अहम घटक सिद्ध होगी। हम अपनी जरूरत का 80 प्रतिशत तेल आयात करते हैं। वहीं कुल खपत होने वाली प्राकृतिक गैस में 53 प्रतिशत आपूíत आयात के जरिये होती है। विगत कुछ वर्षो में प्राकृतिक गैस के घरेलू उत्पादन में भी हमने अच्छी प्रगति की है।

विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार सभी पेट्रोलियम उत्पादों की जगह सिर्फ प्राकृतिक गैस को जीएसटी के दायरे में लाने की रणनीति पर भी आगे बढ़ सकती है। प्राकृतिक गैस पर फिलहाल केंद्र और राज्यों के बीच पेट्रोल और डीजल की तरह तकरार नहीं है। इससे प्राकृतिक गैस से जुड़ा कारोबारी वातावरण सुधरेगा। उद्योग जगत प्राकृतिक गैस आधारित परियोजनाओं में निवेश के लिए प्रोत्साहित होगा। अर्थात पेट्रोल-डीजल के मुकाबले प्राकृतिक गैस आधारित ईंधन जैसे सीएनजी, एलपीजी और पीएनजी का उपयोग तो बढ़ेगा ही, इनकी दरें और भी कम होंगी। देश के ऊर्जा परिदृश्य में प्राकृतिक गैस का अनुपात बढ़ाने के उद्देश्य से ही सरकार अब इससे जुड़े गैस ग्रिड का नेटवर्क तैयार कर रही है। यह 2030 तक अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक गैस की खपत को 6.2 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत के स्तर पर ले जाने के महात्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में भी सहायक होगा।

इलेक्ट्रिक वाहन बन सकते हैं विकल्प: एक अन्य उपाय के अंतर्गत हमें बिजली को ईंधन के रूप में उपयोग के लिए प्रोत्साहित करना होगा। हमारे यहां बिजली सरप्लस उत्पादन की स्थिति है। ऐसे में इलेक्टिक वाहन पेट्रोल-डीजल गाड़ियों पर निर्भरता कम करने की राह को आसान बनाएंगे। कुछ राज्य सरकारों द्वारा इलेक्टिक वाहनों पर सब्सिडी योजना स्वागतयोग्य कदम है। दुनिया भर की दिग्गज कंपनियां जिस तरह इलेक्टिक कार सेगमेंट में आक्रामक रूप से उतरी हैं, वह परिवहन तंत्र में अभूतपूर्व बदलाव की पुष्टि कर रहा है। तेल के विकल्पों की तलाश के नवीन अनुप्रयोगों की बात करें तो इसी महीने सीएनजी से दौड़ने वाले ट्रैक्टर की शुरुआत बड़ा कदम है। डीजल और सीएनजी की कीमतों में काफी ज्यादा अंतर है। दिल्ली में इस समय डीजल जहां 80 रुपये प्रति लीटर है। वहीं सीएनजी की कीमत लगभग 42 रुपये प्रति किलोग्राम है। सरकार वेस्ट टू वेल्थ प्रोग्राम के अंतर्गत सीएनजी तैयार करने में व्यापक निवेश कर रही है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में 70 फीसद परिवहन पेट्रोलियम आधारित ईंधन के जरिये होता है। यानी देश की आर्थिक जीवनरेखा पेट्रोल एवं डीजल रूपी उस ईंधन पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गई है, जो न सिर्फ आयात के मोर्चे पर महंगा सौदा है, बल्कि पर्यावरण के लिहाज से बहुत सुखद नहीं है। भारत ने 2018-19 में तेल के आयात पर 112 अरब डॉलर खर्च किया था।

हाईड्रोजन मिशन से ऊर्जा आत्मनिर्भरता: केंद्रीय बजट 2021-22 में हाईड्रोजन मिशन प्रारंभ करने की बात कही गई है। निजी क्षेत्र के सहयोग से शोध एवं विकास कार्यक्रमों के जरिये हाईड्रोजन फ्यूल सेल्स के विकास को नई गति दी जानी चाहिए। भारत जिस तेजी से दुनिया भर में लीथियम-आयन बैटरी निर्माण का वैश्विक केंद्र बनकर उभरा है, उससे इस क्षेत्र में असीमित संभावनाएं हैं। बजट में ही सोलर इन्वर्टर और सोलर लालटेन पर आयात कर बढ़ाए जाने का निर्णय लिया गया है। सरकार ने 2025 तक पेट्रोल में एथेनॉल मिश्रण 20 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है। यह मौजूदा समय में 8.5 प्रतिशत है। ये प्रयास हमारी ऊर्जा की टोकरी को नए समावेशी ऊर्जा संसाधनों से युक्त बनाएं, इसके लिए ईंधन के विकास की हर योजना को सामुदायिक भागीदारी का मजबूत आवरण देना होगा। ईंधन की अबाध आपूर्ति अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ मानवीय जीवन को भी सुगम और समृद्ध बनाएगी।

[ऊर्जा मामलों के जानकार]