शिमला, नवनीत शर्मा। जब प्रशासनिक चुस्ती के पंखों पर लापरवाही की स्याही घर कर जाए तो पहाड़ को समझना और कठिन हो जाता है। हिमाचल प्रदेश की हालिया बारिश और बर्फबारी कई राज्यों और कई देशों पर भारी पड़ी। बर्फ में इतने लोग एक साथ कभी नहीं फंसे। हजारों लोग...लोगों में पूरे देश के लोग..कहीं पश्चिम बंगाल चिंतित, कहीं दिल्ली। कहीं गुजरात में चिंता तो कहीं उत्तर प्रदेश में। भारतीय मूल के एक अमेरिकी नागरिक ने तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट कर मदद मांगी कि उनकी बेटी रोहतांग के रास्ते पर फंस चुकी हैं और उनसे संपर्क नहीं हो रहा। कई देशों के पर्यटक भी इस भयानक अंतराल को झेलने पर विवश हुए।

ऐसे में पड़ने वाली बर्फ वस्तुत: हिमाचल की छवि पर पड़ती है...यहां की नौकरशाही किस हद तक मौसम विभाग की सूचनाओं को संचार क्रांति के दौर में गंभीरता से लेती है...उस पक्ष पर पड़ती है। और जब उसमें विदेशी पर्यटक फंसा हो तो यह बर्फ देश की छवि पर पड़ती है। अंतत: तीन पक्ष काम आए।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की रोहतांग सुरंग, मदद के लिए मांगे गए वायुसेना के हेलीकॉप्टर और सबसे महत्वपूर्ण कबायली जिले लाहुल-स्पीति के लोगों का अतुल्य सहयोग। ये वही इलाके हैं जहां लिंगानुपात उत्साह जगाता है। जहां अतिथि को भगवान का दर्जा दिया जाता है और मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करना पहला कर्तव्य माना जाता है। उनके साथ सीमा सड़क संगठन को भी सलाम।

....इस सबमें कुछ सवाल हर बार मथते हैं। जब शिमला से चेतावनी पत्र जारी हो गया कि मौसम के तेवर ठीक नहीं रहने वाले हैं, उपायुक्तों ने तो जहां ठीक समझा, पूर्व आपदा प्रबंधन करते हुए स्कूलों में अवकाश घोषित कर दिया। सरकार की आला मशीनरी ने क्या किया? उस चेतावनी पत्र पर क्या दिशा निर्देश दिए? सिर्फ यह कि स्थिति पर नजर रखी जा रही है? मनाली से रोहतांग कितनेलोग गए, यह हिसाब तो मिल जाता है। 

यह पता गुलाबा में चल जाता है, जहां ग्रीन टैक्स की चौकी है लिहाजा, वाहन नंबर दर्ज होते हैं। लेकिन लेह से कितने लोग आ रहे थे, किन्नौर से काजा होते हुए स्पीति तक कितने लोग आ रहे थे, पांगी से मनाली कितने लोग आ रहे थे, यह हिसाब कौन रखेगा? आपदा प्रबंधन का जाप करते रहने वालों की समझ में आज तक यह नहीं आया कि लेह यानी जम्मू-कश्मीर और लाहुल-स्पीति यानी हिमाचल के बीच एक समझ बननी चाहिए कि यहां से जो लोग जा रहे हो, वे पंजीकृत हों और जो लेह से आ रहे हों, वे भी पंजीकृत हो। उनका मौसम विभाग की चेतावनी और मौसम के तकाजे पर निर्भर करना चाहिए।

फिर यह भी साफ होता है कि जब हिमाचल प्रदेश में कुल्लू और लाहुल-स्पीति, लाहुल-स्पीति और चंबा, लाहुल-स्पीति और किन्नौर के बीच ही आज तक कोई समझ नहीं बन पाई तो लेह के साथ समझ बनाने की अपेक्षा कौन करे? कुछ भूमिका पर्यटकों की समझ की भी होती है। वे जिद ठान लेते हैं कि कि बस...किसी भी सूरत जाना ही है। भले ही यह बोल कर जाएं कि हम केवल लाहुल  तक जा रहे हैं। जो हिमाचली हैं, वे यह बता कर भी प्रशासन की आंखों में धूल झोंकते हैं कि उनका घर ही लाहुल में है। मंजिल उनकी लेह होती है।

वास्तव में ये काम... ‘मौसम खराब रहेगा’ की चिट्ठी पर लाल, काली और हरी स्याही के अक्षर रंग देने से ही खत्म नहीं हो जाते, इसे नीति नियंताओं को गंभीरता के साथ लेना चाहिए। लेकिन हिमाचल प्रदेश की नौकरशाही अपने साथ ही जंग में व्यस्त रहती है। उससे क्या उम्मीद की जाए। अब मुख्य सचिव विनीत चौधरी के सेवानिवृत्त होने से पहले सरकार के स्तर पर भी मंथन चल रहा था कि अगला कौन? किसी का मकसद जयपुर लॉबी को बाहर रखना था तो कहीं हिमाचली भावनाओं के आहत होने का सवाल बाहरी बनाम हिमाचली की खबरें बाहर भेज रहा था। कुछ के मन में यह भी दुख है कि एक खास वजह से जो पुलिंदे बनाए जा रहे हैं, वे हिमाचली अफसरों के खिलाफ हैं।

ऐसे हिमाचली अफसरों के खिलाफ, जो कुछ दिल्ली में हैं और कुछ हिमाचल में। यह समझना कठिन नहीं है कि बड़े साहब के डिनर से हिमाचली अफसर बाहर क्यों रहे। बहरहाल, अंत भले का भला यह हुआ कि एक कर्मठ अधिकारी बीके अग्रवाल को यह पद मिला। उनकी छवि और हिमाचल ही नहीं, प्रतिनियुक्ति के दौरान भी सेवाओं को सब जानते हैं। यह उनका व्यवहार और विभिन्न जिलों में उनके कार्मिक इतिहास का ही नतीजा है कि बहुत कम को छोड़ दें तो वह सबके लिए स्वीकार्य हैं। हिमाचल प्रदेश की लगभग मर चुकी कांगड़ा चित्रकला शैली को संजीवनी देने के लिए जाने जाते बीके अग्रवाल अब पूरे हिमाचल प्रदेश को उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद का संगत मोहल्ला मान चुके हैं। उनसे उम्मीद है कि वह अपनी कार्यशैली से बदलाव के सूत्रधार बनेंगे। नए प्रस्ताव फाइलों के रिबन से सहम नहीं जाएंगे बल्कि तेजी से दौड़ेंगे।

इस समय हिमाचल की नौकरशाही के पास जो काम है, उसका युक्तीकरण भी समय की मांग है। एक-एक आदमी के पास कई विभाग हैं और कुछ खाली हैं। हिमाचल प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों के पास भी काम का बोझ कम नहीं है। वह बंटवारा भी ठीक से हो, इसमें वह सहायक हो सकते हैं।