नई दिल्ली। कोरोना की वजह से देशभर में करीब 54 दिनों से लॉकडाउन है। इस कारण आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन भारत-बांग्लादेश सीमा पर कई गांव ऐसे हैं जो दशकों से लॉकडाउन जैसी स्थिति में ही रहते आए हैं।

दरअसल भारत और बांग्लादेश की सीमा पर ये गांव ‘नो मैस लैंड’ पर हैं, अंतरराष्ट्रीय सीमा पर लगी कंटीले तारों की बाड़ के दूसरी ओर। यहां के लोग पहले तय समय पर ही बाड़ में बने गेट के जरिये आवाजाही कर सकते थे, लेकिन अब कोरोना की वजह से उनके बाहर निकलने पर पाबंदी है।

किसी इमरजेंसी में ही सीमा सुरक्षा बल के लोग उनको बाहर आने की अनुमति देते हैं। ऐसा देश के विभाजन के समय सीमा के बंटवारे की वजह से हुआ है। देश के विभाजन के समय रेडक्लिफ आयोग को सीमा तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन इस आयोग का प्रमुख रेडक्लिफ पहले न तो कभी भारत आया था, न ही उसे यहां के बारे में कुछ पता था।

उसने जिस अजीबोगरीब तरीके से सीमाओं का बंटवारा किया उसका खामियाजा आज तक लोगों को उठाना पड़ रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तो सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनका आधा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और बाकी आधा भारत में रह गया।

भारत से लगी बांग्लादेश की सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाए जाने के बाद लगभग दस जिलों में करीब 250 गांवों के 70 हजार लोग बाड़ के दूसरी ओर ही रह गए। बाड़ में लगे गेट भी उनके लिए निश्चित समय के लिए ही खुलते हैं। ऐसे में पिछले सात दशकों से हजारों लोग लॉकडाउन जैसी हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं।

नियमों के मुताबिक ‘नो मैस लैंड’ में कोई आबादी नहीं होनी चाहिए, लेकिन इलाके के लोग रेडक्लिफ आयोग की गलती का खामियाजा भुगतने को मजबूर हैं। इस सीमा पर ‘नो मैस लैंड’ में सैकड़ों घर बसे हैं। रहन-सहन, बोली और संस्कृति में काफी हद तक समानता की वजह से यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन भारतीय है और कौन बांग्लादेशी। भौगोलिक स्थिति की वजह से इस मामले में न तो सीमा सुरक्षा बल के जवान कोई हस्तक्षेप कर पाते हैं और न ही बॉर्डर गार्डस बांग्लादेश के लोग। इन गांवों में रहने वाले लोग सीमा के दोनों तरफ स्थित बाजारों में आवाजाही तो करते हैं, लेकिन इनकी स्थिति कैदियों की तरह ही है।

भारतीय सीमा में कंटीले तारों की बाड़ में बना गेट तय समय के लिए ही खुलता है। इन लोगों को उसी समय सीमा के भीतर अपना काम निपटा कर लौटना होता है, लेकिन अब कोरोना की वजह से जारी लॉकडाउन में उनको यह सुविधा भी नहीं मिल रही है। इन लोगों की एक बड़ी त्रसदी यह भी है कि इन्हें भारत और बांग्लादेश दोनों ही देशों के लोग और शासन-प्रशासन हमेशा संदेह की दृष्टि से देखते हैं।

नदिया जिले का झोरपाड़ा ऐसा ही एक गांव है। लगभग साढ़े तीन सौ लोगों की आबादी वाले इस गांव के बीचो-बीच इच्छामती नदी बहती है। इस गांव के निवासियों का कहना है कि उनके लिए क्या लॉकडाउन और क्या खुला, सब एकसमान ही है। ग्रामीणों का कहना है कि उनकी तो कई पीढ़ियां लॉकडाउन में ही गुजर गईं।

पांच साल पर पहले थल सीमा समझौते के समय भी इन गांवों को स्थानांतरित करने का मुद्दा उठा था। परंतु इसमें कई समस्याएं होने की वजह से यह मुद्दा ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

वास्तव में यह आसान है भी नहीं। ‘नो मैस लैंड’ में बसे लोग लोग अपने घरों और खेतों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। यहां के निवासी कहते हैं कि यहां तो हम खेती से गुजर-बसर कर लेते हैं, लेकिन मुआवजा नहीं मिलने पर पुरखों की यह जगह छोड़ कर कहीं और कैसे जा सकते हैं? (डीडब्ल्यू से संपादित अंश, साभार)