[संजय गुप्त]। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से मुलाकात के समय जब यह दावा किया कि दो सप्ताह पहले भारतीय प्रधानमंत्री ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता करने को कहा था तो देश-विदेश में जोरदार प्रतिक्रिया हुई। ट्रंप के इस बेबुनियाद दावे पर भारत की अंदरूनी राजनीति में भूचाल सा आ गया। यह भूचाल इसके बावजूद आया कि 1972 के शिमला समझौते के बाद से ही कश्मीर पर देश की यही नीति रही है कि यह भारत-पाक के बीच का द्विपक्षीय मसला है। भारत अपनी इस नीति पर बार-बार जोर देता रहा है, क्योंकि पाकिस्तान और साथ ही कुछ कश्मीरी नेता इसके लिए तत्पर रहते हैं कि कश्मीर पर कोई देश मध्यस्थता करे।

कश्मीर पर मध्यस्थता को यूएस तैयार
पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का मसला उठाता रहता है, जबकि लाहौर समझौते में भी इस मसले को आपसी बातचीत से ही सुलझाने की बात की गई थी। अमेरिका कई बार यह इच्छा जता चुका है कि अगर भारत-पाक चाहें तो वह कश्मीर पर मध्यस्थता करने को तैयार है। खुद ट्रंप ने 2016 में ऐसी मंशा जाहिर की थी, लेकिन इस बार वह जरूरत से ज्यादा बोल गए। इस पर हैरानी नहीं, क्योंकि वह असत्य और अर्धसत्य बयान देने के लिए ही जाने जाते हैं। वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर न जाने कितनी बार झूठ बोल चुके हैं।

एक दिन में 12 झूठ बोलते हैं ट्रंप 
अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक ट्रंप एक दिन में औसतन 12 झूठ बोलते हैं। वह इमीग्रेशन, विदेश नीति, अर्थव्यवस्था आदि पर भ्रामक बयान देने के लगभग आदी हो चुके हैैं। एक बार वह यह कह गए थे कि जर्मनी नाटो को मात्र एक प्रतिशत अंशदान देता है जबकि उसका अंशदान 15 प्रतिशत है। ट्रंप 172 बार यह दावा कर चुके हैं कि वह अमेरिका-मेक्सिको के बीच दीवार बनाने का काम शुरू कर चुके हैं जबकि वहां पहले से मौजूद फेंसिंग की मरम्मत भर हो रही है।

ट्रंप के दावे खारिज
ट्रंप के बड़बोलेपन के चलते अमेरिकी विदेश विभाग को कई बार असहज होना पड़ा है। ऐसा बीते दिनों भी तब हुआ जब ट्रंप ने यह कह दिया कि मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता का आग्रह किया था। इस पर अमेरिकी विदेश विभाग को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि कश्मीर पर उसका नजरिया वही है जो पहले था। इसके बावजूद संसद में हंगामा मचा। कांग्रेस समेत कुछ अन्य दलों ने प्रधानमंत्री से बयान देने की मांग की। इन दलों ने विदेश मंत्री एस जयशंकर की ओर से ट्रंप के दावे को खारिज किए जाने के बाद भी यह मांग की। इन दलों ने इसकी भी अनदेखी की कि विदेश मंत्रालय ने तत्काल ही ट्रंप के दावे का खंडन कर दिया था। इसके अलावा अमेरिका के विपक्षी दल के एक प्रमुख सांसद ने ट्रंप के दावे को लेकर भारतीय राजदूत से माफी भी मांगी थी।

ट्रंप कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं
ऐसा नहीं हो सकता कि विपक्षी दलों को इसका अहसास न हो कि ट्रंप झूठे बयान देते रहते हैं और उनके ऐसे बयानों को इसलिए गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि वह कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। विपक्षी दलों ने ट्रंप के बयान को तूल देकर यही स्पष्ट किया कि वे सरकार को असहज करने की ताक में रहते हैं। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन कम से कम उन्हें विदेश नीति पर तो दलगत राजनीति से परे रहना चाहिए। संसद में हंगामा करने वाले दल इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि ओसाका में ट्रंप और मोदी की मुलाकात के बाद जारी वक्तव्य में उस बात का कोई जिक्र नहीं था जिसका दावा अमेरिकी राष्ट्रपति ने किया। ट्रंप ने इमरान से बात करते हुए यह दावा भी किया कि वह एक करोड़ अफगानियों को मारना नहीं चाहते, नहीं तो दस दिन के अंदर अफगानिस्तान युद्ध जीत सकते हैं।

तालिबान को पाकिस्तान का संरक्षण हासिल है
9-11 के बाद अलकायदा के खिलाफ हमले के बाद से ही अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान में हैं। अल कायदा तो पस्त पड़ चुका है, लेकिन उन्हें संरक्षण देने वाला तालिबान अफगानिस्तान की स्थिरता के लिए खतरा बना हुआ है। तालिबान को पाकिस्तान का संरक्षण और समर्थन हासिल है। अमेरिका में अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सियासी सक्रियता बढ़ गई है। ट्रंप दोबारा यह चुनाव जीतना चाहते हैैं। इसके लिए वह अमेरिकी जनता को लुभाने का हर संभव जतन कर रहे हैं। ट्रंप चाहते हैैं कि पाकिस्तान तालिबान को समझौते के लिए राजी करे ताकि अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान से लौट सकें। अपने इस चुनावी वादे को पूरा करने के लिए ट्रंप अफगानिस्तान के साथ दक्षिण एशिया को खतरे में डाल रहे हैं।

अमेरिका अब तक अफगानिस्तान में उलझा हुआ है
अगर तालिबान को अफगानिस्तान में हावी होने का मौका मिला तो वहां की सरकार को सत्ता छोड़नी पड़ सकती है और वहां वैसी ही अस्थिरता व्याप्त हो सकती है, जैसी 2000 के दशक में थी। पता नहीं अमेरिका का तालिबान से समझौता हो पाता है या नहीं, लेकिन इसका अंदेशा अवश्य है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद वहां वैसी ही स्थिति बन सकती है जैसी इराक या फिर लीबिया में बनी। एक व्यापारी होने के नाते ट्रंप मात्र अपना हित देख रहे हैं। चूंकि अमेरिकी जनता का एक बड़ा तबका इससे खुश नहीं कि अमेरिका अब तक अफगानिस्तान में उलझा हुआ है इसलिए ट्रंप यह जानते हुए भी जल्दबाजी दिखा रहे हैैं कि अफगान-पाक सीमा पाकिस्तानी संरक्षित आतंकियोंं का गढ़ बनी हुई है।

पाकिस्तानी शासन पर सेना का दबदबा
इमरान खान के समक्ष ट्रंप ने कश्मीर को लेकर जो बयान दिया उसे पाकिस्तान भले ही अपनी जीत के तौर पर देखे, लेकिन यह तय है कि भारत अपने रवैये से डिगने वाला नहीं। कश्मीर, अफगानिस्तान जैसे मसलों पर चर्चा के कारण ही इमरान खान के साथ पाक सेना प्रमुख और आइएसआइ प्रमुख भी अमेरिकी यात्रा पर थे। यह पाकिस्तानी शासन पर सेना के दबदबे का प्रमाण है। अमेरिका से लौटने पर इमरान खान का जोरदार स्वागत इसीलिए हुआ ताकि आम पाकिस्तानी जनता को यह संदेश दिया जा सके कि वह कश्मीर और अफगानिस्तान जैसे मामलों पर अमेरिका का रुख एक हद तक अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे। यह संदेश देने की भी कोशिश की गई कि कश्मीर पर भारत को झटका लगा और साथ ही अफगानिस्तान में उसका प्रभाव कम होने वाला है।

कश्मीर में अशांति के पीछे पाक पोषित आतंकी हैैं
पाकिस्तान कुछ भी जाहिर करे, अमेरिका और अन्य देशों को यह समझना होगा कि सेना के दबदबे वाली पाक सरकार को प्रोत्साहन देकर दक्षिण एशिया में शांति का मार्ग प्रशस्त होने वाला नहीं है। आज जो कश्मीर में अशांति है उसके पीछे पाकिस्तान पोषित आतंकी ही हैैं। पाकिस्तान ने अभी तक खुद को आतंकवाद से अलग नहीं किया है। इसकी पुष्टि खुद इमरान खान के इस बयान से होती है कि पाकिस्तान में अभी भी 30-40 हजार आतंकी मौजूद हैं। उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि इतने आतंकियों पर वह कैसे काबू पाएंगे? अमेरिकी राष्ट्रपति अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण पाकिस्तान की हकीकत से मुंह मोड़ सकते हैं, लेकिन भारत के हित में यही है कि वह न केवल सतर्क रहे, बल्कि अमेरिका को इसके लिए आगाह भी करे कि पाकिस्तान समर्थित तालिबान से समझौता आतंकवाद को नए सिरे से उभारने का काम कर सकता है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

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