[ आरबी सिंह ]: सवा अरब भारतीयों की आकांक्षाओं को भांपते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल 15 अगस्त को एलान किया था कि 2022 तक एक नए भारत का निर्माण किया जाएगा। उन्होंने ऐसे स्वच्छ भारत की कल्पना भी की थी जिसमें शांति, संपन्नता, एकता, विविधता हो। नए भारत में शांति, समृद्धि और समावेशन के लिए जरूरी है कि वह गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से भी मुक्त हो। नए भारत के निर्माण के साथ ही प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का भी संकल्प लिया। ये दोनों संकल्प एक-दूसरे के पूरक हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि आधारित है। लगभग 12 करोड़ परिवारों की आजीविका खेती से चलती है। इनमें 85 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसान हैैं। यह भारत की कुल 55 प्रतिशत आबादी का हिस्सा है, जिसके दायरे में 70 करोड़ से अधिक लोग आते हैं। विडंबना यह है कि देश के सकल मूल्य वर्धन यानी जीवीए में कृषि का योगदान महज 15 प्रतिशत है। वहीं देश में खेतिहरों की औसत आमदनी गैर-खेतिहरों की एक चौथाई ही है।

किसानों की कम और अक्सर अनिश्चित आमदनी ही कृषि संकट की जड़ है। आय में यह असमानता देश में गरीबी, कुपोषण, खराब सेहत और अक्षमता की वजह बनती है। ऐसे में किसानों और खेती के भविष्य की कड़ी देश के भविष्य से जुड़ी हुई है। नए भारत की राह किसानों के खेतों से होकर गुजरनी चाहिए।

1960 के दशक में भारत ने सफलतापूर्वक हरित क्रांति को अंजाम दिया। कालांतर में श्वेत, पीली और नीली क्रांति खाद्य उत्पादों के उत्पादन में अप्रत्याशित उछाल का जरिया बनीं। इसके चलते ही तकरीबन 28 करोड़ टन अनाज, 30 करोड़ टन फल एवं सब्जियां, 15 करोड़ टन दूध का उत्पादन संभव हुआ। इस इंद्रधनुषी क्रांति ने न केवल देश से भुखमरी एवं गरीबी को घटाने का काम किया, बल्कि एक वक्त दूसरे देशों की मदद के मोहताज देश को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की स्थिति में पहुंचा दिया। यह क्रांति तकनीक, नीतियों, सेवाओं, किसानों के उत्साह और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के तालमेल से ही संभव हुई।

इंद्रधनुषी क्रांति और बीते कुछ अरसे से लगभग आठ फीसद की आर्थिक वृद्धि के बावजूद भूख और कुपोषण की मार झेल रहे दुनिया के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे भारत में हैं। एक अनुमान के तौर पर कुपोषण के चलते भारत को हर साल जीडीपी के 6 से 10 प्रतिशत के बराबर नुकसान हो सकता है। भुखमरी के दुष्प्रभाव कई पीढ़ियों के साथ नाइंसाफी करते हैं। ऐसे में एक बड़ा सवाल उठता है कि कमजोर एवं कुपोषित बच्चों से एक मजबूत भारत का निर्माण कैसे किया जा सकता है?

वैश्विक स्तर पर हुए अध्ययनों में यह सामने आया है कि भारत जैसे कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण देशों में कृषि एवं खाद्य तंत्र में वृद्धि भुखमरी, गरीबी और कुपोषण से निपटने में अन्य क्षेत्रों में हुई वृद्धि की तुलना में तीन गुना अधिक प्रभावी साबित होती है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कृषि अर्थव्यवस्था होने के नाते कृषि एवं खाद्य तंत्र के मोर्चे पर अपनी सक्षमता का लाभ उठाकर भारत को हालात बेहतर बनाने चाहिए। इसका अर्थ केवल उत्पादन बढ़ाने से ही नहीं, बल्कि उसके साथ ही किसानों को उनकी उपज का बेहतर दाम दिलाना, पारिस्थितिकीय सक्षमता, पर्यावरणीय सेहत एवं निरंतरता जैसे पहलू भी शामिल होने चाहिए। तेजी से उदार होती अर्थव्यवस्था और बदलते वैश्विक परिदृश्य में हमें कृषि विकास की व्यापक अवधारणा विकसित करनी होगी।

आबादी का बोझ लगातार बढ़त पर है और अनुमान है कि 2022 से 2025 के बीच हम जनसंख्या के मामले चीन को भी पीछे छोड़ देंगे। इसे देखते हुए खाद्य उत्पादों की मांग बढ़ना स्वाभाविक है। खास तौर से उच्च पोषण तत्वों वाले उत्पादों की जरूरत ज्यादा बढ़ेगी। खाद्य अधिकार विधेयक, 2013 में भी इस जरूरत को घरेलू उत्पादन से पूरा करने की बात कही गई है। दूसरी ओर उत्पादन के साधन सिकुड़ रहे हैं। ऐसे में हमें जलवायु परिवर्तन एवं बाजारों की अनिश्चितता को देखते हुए कम संसाधनों में अधिक उत्पादन पर जोर देना होगा। इस चुनौती से पार पाने के लिए विज्ञान और तकनीक की मदद से नए तौर-तरीके इजाद करने होंगे। नवाचार को बढ़ावा देना होगा और आवश्यकता अनुरूप नए समाधान तलाशने होंगे।

धरती पर पहले से ही दबाव बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता हृास से लेकर नाइट्रोजन चक्र के मोर्चे पर चुनौतियां विकराल होती जा रही हैं। ऐसे में हमें कुछ पहलुओं पर तत्काल विचार करना होगा। एक तो मांग को पूरा करने के लिए खाद्य उत्पादों की मात्रा और गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए उनके उत्पादन पर जोर देना होगा। दूसरे, खेती को लाभदायक बनाते हुए पेशे के तौर पर समाज में उसका आकर्षण बढ़ाना होगा। इसके अलावा ऐसा तंत्र विकसित करना होगा जिसमें जल की मात्रा एवं गुणवत्ता, मृदा स्वास्थ्य एवं जैव-विविधता बेहतर बने।

हमें जरूरत का सही आकलन कर समुचित उत्पादन करने की रणनीति इस तरह बनानी होगी जिसमें प्राकृतिक संसाधनों पर भी बहुत ज्यादा दबाव न पड़े। हरित अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में हमें संसाधनों का कुशलता से प्रबंध करना होगा। क्लाइमेट स्मार्ट एग्र्रीकल्चर को अपनाकर इसका हल निकल सकता है। कुछ देशों द्वारा नीति बदलने से भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ वस्तुओं की आपूर्ति बिगड़ सकती है। तकनीकी हस्तांतरण भी प्रभावित होगा। इन हालात से निपटने में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी। इसके लिए सभी पक्षों को साथ मिलकर काम करना होगा। कृषि शोध की प्रासंगिकता और उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के साथ ही बायोसेंसर्स, जेनोमिक्स, जैव प्रौद्योगिकी एवं नैनोटेक्नोलॉजी जैसी अत्याधुनिक तकनीकों पर काम करना होगा। कृषि एवं खाद्य उत्पादों पर इनके कई दूरगामी लाभ सामने आए हैं।

सहकारी संघवाद की भावना के साथ केंद्र और राज्यों को भी ऐसी वैज्ञानिक नीतियां एवं संस्थान तैयार करने चाहिए जो किसानों सहित सभी संबंधित पक्षों तक बेहतर तकनीकों का तेजी से प्रसार कर सकें। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि पोषक एवं गुणवत्तापूर्ण खाद्य सामग्र्री किफायती दामों पर सभी जरूरतमंदों तक पहुंचे। भारत जैसे बड़े एवं विभिन्न जलवायु क्षेत्र वाले देश में एकीकृत कृषि डाटाबेस की भी दरकार है जिससे वैज्ञानिकों, किसानों और उद्योग जगत का भला हो सके।

विपणन, बिक्री और ई-नाम जैसी गतिविधियों के लिए आधुनिक सूचना एवं संचार तंत्र बेहद जरूरी है। ऐसी गतिविधियां युवाओं को आकर्षित करेंगी और आशा करनी चाहिए कि इससे कृषि एवं खाद्य तंत्र में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी।

[ लेखक केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के चांसलर एवं एग्रीकल्चर साइंटिस्ट रिक्रूटमेंट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन हैं ]