नई दिल्ली, आशीष व्यास। कार्यकर्ताओं के भरोसे नेता जीतते हुए चले आते हैं, वे कभी तो यह सोचें कि कार्यकर्ताओं को भी चुनाव लड़ने का मौका मिलना चाहिए।’ भाजपा के पूर्व सांसद रघुनंदन शर्मा ने गुरुवार को जब यह बयान दिया तो साफ था कि वह ऐसे नेताओं के व्यवहार से नाराज थे जिन्होंने टिकट नहीं मिलने पर खुली बगावत कर दी है। यह पहला अवसर नहीं था जब उन्होंने ऐसा बयान दिया। टिकट बंटवारे के दौरान भी वह स्पष्ट रूप से कह चुके थे कि ‘चार-पांच बार चुनाव जीत चुके नेताओं को युवाओं के लिए सीट छोड़ देनी चाहिए।’ बावजूद इसके किसी ने पार्टी को कोसते हुए विपक्ष का हाथ थामकर चुनावी टिकट ले लिया तो किसी ने अपने ही परिवारवालों को टिकट दिलाने के लिए सत्ता-संगठन को धमकी दे डाली।

रंग बदलती राजनीति का यह किस्सा भाजपा में ही नहीं है। सबसे पुरानी पार्टी होने का प्रचार करती आई कांग्रेस में भी ऐसी कई कहानियां रोजाना अपने पात्र बदल रही हैं। दरअसल बीते दो सप्ताह से टिकट बंटवारे को लेकर दोनों ही दलों के नामचीन और कद्दावर नेता ‘आंखों की शर्म’ हटाकर अंगद का पांव बन गए ‘निष्ठा’ की प्रतिष्ठा भूलकर प्रतिबद्धता की परिभाषा बदलने में लग गए। जब स्वार्थ सिद्ध नहीं हुआ तो विद्रोह को वजह बनाया और विरोधी दल का टिकट तक ले आए। विरोध-विवाद की इस श्रेणी में भाजपा से सरताज सिंह, बाबूलाल गौर, राघवजी जैसे छह से ज्यादा पूर्व मंत्री शामिल हैं। स्वाभाविक है लंबे समय से संगठन और पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता किरदार बदलते इस ‘रंगमंच’ का विरोध करेंगे, विद्रोह भी करेंगे। उधर जन धन बल में वर्चस्व रखने वालों ने भी अपने-अपने क्षेत्र में एक अलग मोर्चा खोल रखा है। कुल मिलाकर आज का राजनीतिक दृश्य यह है कि पार्टी कोई भी हो बड़ा नेता हो या छोटा कार्यकर्ता एक बड़ी संख्या ऐसी है जिसने राजनीतिक अवसरवाद भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कुछ उदाहरण से समझिए कैसे यह रंग बदलती राजनीति बेरंग हो रही है।

भोपाल क्षेत्र

चार पूर्व मंत्री बागी : होशंगाबाद जिले की सिवनी-मालवा सीट से भाजपा विधायक पांच बार के सांसद, प्रदेश में मंत्री के साथ केंद्र में भी मंत्री रहे सरताज सिंह स्वयं के लिए फिर टिकट की मांग कर रहे थे। इन्हें भाजपा ने इस बार टिकट नहीं दिया तो कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में होशंगाबाद से नामांकन दे आए। विदिशा जिले से भाजपा के पूर्व मंत्री राघवजी बेटी ज्योति शाह के लिए टिकट मांग रहे थे। नहीं मिला तो शमशाबाद सीट पर सपाक्स से नामांकन दाखिल कर दिया। बैतूल जिले की घोड़ाडोंगरी सीट से पूर्व मंत्री प्रताप सिंह उईके ने कांग्रेस से बागी होकर सपा से नामांकन कर दिया। गुना जिले की बमोरी सीट से पूर्व राज्य मंत्री केएल अग्रवाल भाजपा से बागी होकर निर्दलीय मैदान में आ गए। सीहोर में भाजपा के पूर्व विधायक रमेश सक्सेना निर्दलीय जमीन तलाश रहे हैं।

ग्वालियर-चंबल

बेटे को टिकट नहीं तो दूसरी पार्टी का पर्चा : छतरपुर के राजनगर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी बेटे के लिए टिकट मांग रहे थे। निराश होने पर सपा से नामांकन दाखिल करवा आए। पूर्व महापौर समीक्षा गुप्ता की भाजपा के टिकट पर ग्वालियर दक्षिण विधानसभा से चुनाव लड़ने की इच्छा थी। पार्टी ने मंत्री नारायण सिंह पर ही विश्वास जताया। अब समीक्षा गुप्ता ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का मन बनाया है।

मालवा-निमाड़

सात बड़े नेता बागी : कांग्रेस के पूर्व सांसद प्रेमचंद गुड्डू अपने और बेटे के साथ कुछ समर्थकों के लिए भी टिकट मांग रहे थे। मांग पूरी नहीं हुई तो भाजपा में शामिल हो गए। अब उनके बेटे अजीत को भाजपा ने घट्टिया से उम्मीदवार बनाया है। इंदौर-01 में कांग्रेस की कहानी चौंकाने वाली रही। तीन दावेदार गोलू अग्निहोत्री, संजय शुक्ला और कमलेश खंडेलवाल ने जमकर जोर लगाया। गोलू अग्निहोत्री की पत्नी प्रीति को टिकट मिला तो विरोध होने पर रातोंरात टिकट संजय शुक्ला को दिया गया। इंदौर-02 से चिंटू चौकसे, इंदौर-05 से छोटे यादव, देपालपुर से मोती पटेल ने भी नामांकन दाखिल किया है। भाजपा के नेता ललित पोरवाल भी परिवारवाद का विरोध करते हुए आकाश विजयवर्गीय को टिकट दिए जाने पर आपत्ति उठा रहे हैं।

विंध्य-महाकोशल

मुख्यमंत्री के साले को टिकट से नाराजगी : बालाघाट जिले के वारासिवनी से मुख्यमंत्री के साले संजय सिंह मसानी भाजपा से टिकट मांग रहे थे, नहीं मिला तो कांग्रेस में शामिल हो गए। अब कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है। विरोध में पूर्व विधायक प्रदीप जायसवाल ने बगावत कर दी। जबलपुर-उत्तर से भाजपा ने राज्यमंत्री शरद जैन को टिकट दिया। इसी सीट से युवा मोर्चा के पूर्व अध्यक्ष धीरज पटैरिया भी टिकट मांग रहे थे। नाराज होकर उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। दमोह जिले के पथरिया से भाजपा से पूर्व कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया को टिकट नहीं मिला, अब वह दमोह और पथरिया से निर्दलीय किस्मत आजमाएंगे।

चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि बगावत की यह कहानी नई नहीं है। लेकिन मध्य प्रदेश में बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाएं और परिवारवाद के खिलाफ कार्यकर्ताओं का खुला विद्रोह राजनीति की प्रकृति में आ रहे बदलाव का बड़ा संकेत है। इसका असर कब, कैसे और किस रूप में सामने आएगा, यह अभी बताना मुश्किल है, लेकिन इससे शुरू हो चुके नुकसान का आकलन आसानी से किया जा सकता है। एक सप्ताह पहले उज्जैन आए जेएनयू नई दिल्ली में सेंटर ऑफ पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर टीजी सुरेश कहते हैं, ‘भोपाल से उज्जैन तक सफर करते हुए मैंने अनुभव किया कि मध्य प्रदेश में इस बार का चुनाव बेहद रोमांचक होगा, क्योंकि कोई ‘लहर’ ही नहीं है। ऐसे में पार्टी के साथ-साथ स्थानीय चेहरा परिणाम पर असर डालेगा। तभी विद्रोह के इतने स्वर उठ रहे हैं।’ वह आगे कहते हैं,‘अवसरवाद का यह ट्रेंड सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में चल रहा है, लेकिन फिलहाल किसी दल के पास इसका हल नहीं है इसीलिए सभी परेशान हैं। जहां तक परिवारवाद की बात है तो पश्चिमी देशों में यह लगभग खत्म हो चुका है। भारत में इसके खत्म होने के फिलहाल आसार नजर नहीं आ रहे हैं इसलिए नेता-कार्यकर्ता के बीच खुला असंतोष दिख रहा है।’

शायद यही वजह भी है कि कांग्रेस नेता प्रेम कुशवाह ने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए ग्वालियर में जहर खा लिया तो इंदौर में ललित पोरवाल ने कैलाश विजयवर्गीय पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और निर्दलीय मोर्चा जमा लिया।