[ प्रदीप सिंह ]: अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक लोकसभा में आम राय से पास हो गया। उम्मीद है कि राज्यसभा से भी इसे मंजूरी मिल जाएगी। मौजूदा राजनीतिक माहौल में किसी विधेयक का आम सहमति से पास होना उपलब्धि से कम नहीं, परंतु यह एक विधेयक हमारी राजनीति, संसदीय व्यवस्था और कानून के राज के बारे में बहुत कुछ कहता है। जनतांत्रिक व्यवस्था में आम सहमति अच्छी बात है, लेकिन उसके साथ ही सवाल यह भी है कि आम सहमति किसलिए और उस आम सहमति से लिए गए फैसले का मकसद क्या है? राजनीति क्या और कैसे-कैसे फैसले करा सकती है, इसका उदाहरण उक्त विधेयक है। ऐसा लगता है पूरी संसद ने मिलकर तय किया कि वह कुछ मामलों में न्याय के सिद्धांत नहीं मानेगी- सर्वोच्च न्यायालय कहेगा तब भी नहीं।

संसद के मानसून सत्र में दो बड़ी घटनाएं हुईं। पहली तो यह कि संसद की कार्यवाही चल रही है। प्रत्यक्ष रूप से उसके दो कारण समझ में आते हैं। एक अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष सरकार के खिलाफ अपने मन की भड़ास निकाल चुका है। हार तो तय थी पर हार के अंतर ने उसका हौसला थोड़ा पस्त किया। दूसरा, उसे समझ में आ गया कि लगातार संसद की कार्यवाही बाधित करने से उसकी नकारात्मक छवि बन रही है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव के नजदीक होने से इसका राजनीतिक नुकसान हो सकता है।

संसद ने बीते दिनों पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक पर मुहर भी लगाई। कई दशकों से यह मांग थी। सभी सरकारें वादा तो करती रहीं, परंतु किसी ने किया नहीं। मोदी सरकार ने इसका बीड़ा उठाया और पूरा किया। यदि कांग्रेस ने राज्यसभा में अड़ंगा न लगाया होता तो इस विधेयक पर बजट सत्र में ही संसद की मुहर लग जाती। समझना मुश्किल है कि कांग्रेस ने पिछले सत्र में अड़ंगा क्यों लगाया और इस सत्र में समर्थन क्यों किया? इस विधेयक के पास होने पर प्रधानमंत्री ने कहा कि इतिहास में यह सत्र सामाजिक न्याय सत्र के रूप में याद किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने यह भी घोषणा की कि अब हर साल एक से नौ अगस्त तक सामाजिक न्याय सप्ताह मनाया जाएगा।

उक्त विधेयक पर मुहर लगाने के बाद लोकसभा में अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून में बदलाव के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए विधेयक को पारित किया गया। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े इस वर्ग के लोगों को सुरक्षा देने के लिए कानून बने और सख्त कानून बने, इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, परंतु यह संशोधन विधेयक जिन परिस्थितियों में सरकार को लाने के लिए मजबूर होना पड़ा वह हमारी राजनीति का विद्रूप चेहरा दिखाती है। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इतना कहा था कि इस कानून के तहत गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारी इसकी पड़ताल करेंगे कि प्रथमदृष्टया मामला बनता या नहीं? अदालत ने गिरफ्तारी के लिए कुछ शर्तें भी लगाई थीं। जिस याचिका पर यह फैसला आया उसमें कहा गया था कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। हालांकि यह कोई बहुत वाजिब तर्क नहीं था, क्योंकि दुरुपयोग तो हर कानून का होता है।

दहेज विरोधी कानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कुछ समय पहले इसी आधार दहेज विरोधी कानून में भी सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत के बाद तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। शायद इसी फैसले से प्रेरित होकर याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए थे। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह न तो नैतिक रूप से ठीक था और न ही राष्ट्रहित की दृष्टि से। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विपक्षी दलों और कुछ गैर राजनीतिक संगठनों ने अनुसूचित जाति और जनताति के लोगों को बरगलाया कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है। स्वाभाविक रूप से इसकी प्रतिक्रिया हुई। दो अप्रैल को आंदोलन की घोषणा हुई। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और हिंसा हुई जिसमें कई लोग मारे गए। अनुसूचित जाति-जनजाति के जो लोग इस आंदोलन में शामिल हुए उनसे जब पूछा गया कि प्रदर्शन में क्यों आए हो तो तमाम का जवाब था कि उन्हें बताया गया है कि सरकार आरक्षण खत्म कर रही है।

लोगों को गुमराह करने का यह काम इसके बावजूद हुआ कि 2015 में मोदी सरकार ने ही अनुसूचित जाति-जनजाति के खिलाफ अत्याचार की श्रेणी में आने वाले मामलों की संख्या 22 से बढ़ाकर 47 की थी। इसके अलावा भी सरकार ने इस वर्ग की सुरक्षा और विकास को लेकर कई कदम उठाए, परंतु यहां सवाल इसका नहीं कि सरकार ने क्या किया? सवाल है कि सरकार ने जो नहीं किया उसका झूठा प्रचार करके एक वर्ग को सड़क पर उतरने, सामाजिक समरसता को बिगाड़ने का प्रयास क्यों किया गया? यह केवल वोट के लिए किया गया। यह विपक्ष का अधिकार है कि वह सरकार की कमजोरियों और नाकामियों पर लोगों को लामबंद करे, परंतु समाज और देश के प्रति भी उसकी जिम्मेदारी है।

एक झूठे प्रचार के जरिये केंद्र सरकार और अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को आमने सामने खड़ा कर दिया गया। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कुछ संगठनों ने नौ अगस्त को इसी मुद्दे पर दोबारा भारत बंद का एलान कर दिया। प्रतियोगी राजनीति जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी है, परंतु यही राजनीति जब राष्ट्रहित पर दलगत हित को तरजीह देने लगती है तो देश और जनतंत्र दोनों का नुकसान करती है। विपक्षी दलों को लगता है कि यदि दलित समुदाय को भाजपा से अलग कर दिया जाए तो मोदी को रोका जा सकता है। यही कारण है कि उनकी राजनीति कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ की बात करती है तो कभी दलितों पर अत्याचार के मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है। यही राजनीति अपराध में कभी धर्म खोजती है तो कभी जाति।

2014 में कई राज्यों में दलित समाज का एक बड़ा तबका भाजपा के साथ गया। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी यह ट्रेंड बना रहा। इसी कारण दलित अस्मिता के नारे पर बनी बसपा लोकसभा में एक भी सीट नहीं मिली और विधानसभा में वह 19 सीटों पर सिमट गई। भाजपा और संघ की कोशिश है कि समाज का यह तबका उससे स्थाई रूप से जुड़े। आजादी के कई दशक बाद तक कांग्रेस को ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों का थोक में वोट मिलता था। भाजपा की कोशिश है कि उसका सवर्ण, अति पिछड़ा और दलित समीकरण बने जिससे चुनाव जाति पर जाएं तो भी उसे नुकसान न हो। विपक्ष इसी को रोकने के लिए नैतिक के साथ अनैतिक हथकंडे आजमा रहा है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]