उत्तराखंड, कुशल कोठियाल। कोरोना पर कुछ हद तक काबू तो पाया, पर महामारी से प्रदेश को निजात फिलहाल मिलने वाली नहीं है। एक जून को कोरोना का प्रदेश में रिकवरी रेट 33 फीसद था तो आज 60 फीसद तक पहुंच गया है। एक जून को प्रदेश के कोविड अस्पतालों में 720 सक्रिय केस थे जो आज की तारीख में 675 रह गए हैं। इस तरह कुछ संतुष्ट करने वाले आंकड़े हैं तो कुछ चिंता बढ़ाने वाले भी। एक जून को प्रदेश में कुल संक्रमितों की संख्या 929 थी तो आज 1,800 से भी अधिक हो गई है।

अनलॉक-वन के तहत कई छूटें मिली हैं तो संक्रमण का खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ गया है। अभी तक संक्रमण बाहर से आने वालों तक ही सीमित रहा है। पहले जमाती तो अब प्रवासी श्रमिक। कोरोना के आम जन तक न पहुंचने का श्रेय राज्य की जागरूक जनता को जाता है। प्रवासी श्रमिकों का स्थानीय लोगों ने स्वागत भी किया और शारीरिक दूरी भी बनाए रखी। छोटे से पहाड़ी राज्य में करीब ढाई लाख लोगों की आमद सचमुच में पहाड़ जैसी चुनौती ही होती है। इनके समायोजन में प्रशासन को अभूतपूर्व जन सहयोग मिला। कोरोना काल में जन सतर्कता के कई उदाहरण दिखने को मिले। जब सरकार ने बाजार सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक खोलने की अनुमति दी तो कई व्यापारी संगठनों ने इसका विरोध करते हुए स्वयं दुकानें तीन घंटे पहले बंद कर दीं।

जन सजगता का सबसे बेहतर उदाहरण तो चारधाम यात्रा है। प्रदेश सरकार चमोली, रुद्रप्रयाग एवं उत्तरकाशी जिले के लोगों को चारों धाम में दर्शनों की अनुमति दे चुकी है। इसके पीछे सरकार की मंशा सीमित संख्या में चारधाम यात्रा शुरू करने की है, लेकिन चारों धाम के तीर्थ पुरोहित, हक-हकूकधारी और स्थानीय व्यापारी इसके कतई पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि यात्रा शुरू करने से चारों धाम में भी कोरोना संक्रमण का खतरा गहरा जाएगा। वैसे उनका कहना गलत भी नहीं है। दरअसल चिकित्सक और मेडिकल स्टाफ अभी कोरोना से जंग लड़ रहे हैं, चारों धाम में स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं के बराबर हैं। ऐसे में यदि यात्रा शुरू होती है तो धामों को कोरोना संक्रमण से बचाना मुश्किल हो जाएगा। फिर यात्री भी ऐसे हालात में अपनी जान को जोखिम में नहीं डालना चाहेंगे। लिहाजा यात्रा से जुड़े पक्ष सरकार के यात्रा शुरू करने के निर्णय को गैर जरूरी बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं।

क्वारंटाइन सियासतदान : कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री एवं उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत दो दिन पूर्व दिल्ली से देहरादून पहुंच गए हैं। वह अपने आवास पर इक्कीस दिनों तक क्वारंटाइन रहेंगे, यह जानकारी उन्होंने स्वयं ट्वीट करके राज्य के निवासियों को दी है। यूं तो दिल्ली से भी उनका उत्तराखंड सरकार से ट्विटर वार चलता ही रहा, लेकिन अब देहरादून में हैं तो धार एवं निरंतरता में आवेग आना स्वाभाविक है। मुद्दे को पकड़ने एवं उछालने के लिए अनुकूलतम माध्यम पकड़ने की उनकी जैसी कला राज्य के किसी और सियायतदान में नहीं है। इसी महारत के चलते सरकार व सत्ताधारी दल ही नहीं, उनकी अपनी पार्टी के नेता भी बेचैन हैं।

गौरतलब है कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में ही आधी कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी में चली गई थी। कांग्रेस के मौजूदा प्रांतीय नेतृत्व के साथ उनके समीकरण फिट नहीं बैठते। कई मर्तबा यह मनभेद सार्वजनिक भी हुआ है। मसला हाईकमान के संज्ञान में भी है। राष्ट्रीय महामंत्री के नाते उनके पास असम की जिम्मेदारी है। कुछ माह पहले तो उन्होंने खुद को स्वयं ही राज्य की राजनीति से घोषित रूप से अलग भी कर दिया था, लेकिन परोक्ष सक्रियता ने सत्ता दल ही नहीं, कांग्रेस को भी छकाए रखा। इस समय भी वह घोषित रूप से क्वारंटाइन हैं, लेकिन फिर भी सियासी गलियारों में हलचल है। भारतीय जनता पार्टी आक्रामक तो कांग्रेस नेतृत्व बेहद सतर्क। चारदीवारी के अंदर से होने वाले आक्रमण से बचें भी कैसे व जवाब भी दें तो कैसे? कांग्रेस के भीतर उनके विरोधियों के लिए तो स्थिति और भी विकट है। जिसे बीता हुआ नेता करार दे रहे थे, वह आधुनिक यानी सोशल मीडिया पर दौड़ता है।

[राज्य संपादक, उत्तराखंड]