अनुराग दीक्षित

शुक्रवार को शुरू हुआ संसद का सत्र मौजूदा यानी 16वीं लोकसभा का 13वां सत्र है। यह पांच जनवरी तक चलेगा। 14 बैठकों वाले इस सत्र को सफल बनाने के लिए सरकार ने विपक्ष से सहयोग की अपील तो की, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल, बीते सत्रों का अनुभव और सत्र में देरी के आरोप के बीच विपक्ष से रचनात्मक सहयोग की उम्मीद कम ही नजर आती है। इसकी एक झलक पहले दिन की संसद की गतिविधियों से मिल भी गई। चूंकि बीते तीन सालों से संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 16 नवंबर से हो रही थी इसलिए इस बार सत्र की शुरुआत में करीब एक महीने देरी से हुई। सरकार की दलील है कि गुजरात चुनाव की वजह से सत्र में देरी हुई, लेकिन विपक्ष का कहना है कि सरकार उसका सामना करने से बचना चाहती थी। वैसे संसद सत्र में पहली बार देरी नहीं हुई। कांग्रेस के ही शासनकाल में चुनावों के चलते 2011 में और तेलंगाना विवाद के चलते साल 2013 में सत्र की तारीखों में बदलाव हुआ था। संसदीय नियमों के मुताबिक दो सत्रों के बीच में न्यूनतम 20 दिन का अंतर होना चाहिए और छह महीने से ज्यादा की देरी भी नहीं होनी चाहिए।

अतीत के अपने आचरण और संसदीय नियमों के आधार पर विपक्ष को समझना चाहिए कि सत्र में देरी कोई संसदीय अपराध नहीं। कांग्रेस का एक आरोप यह भी था कि इस पूरे साल संसद सिर्फ 38 दिन ही चली है, जबकि मान्यताओं के मुताबिक चलनी चाहिए सौ दिन। शायद कांग्रेस यह भूल गई कि लोकसभा में सौ बैठकें आखिरी बार साल 1988 में हुई थीं, जबकि राज्यसभा में साल 1974 में।1 संसद के इस सत्र में उठने वाले संभावित मुद्दों की बात करें तो विपक्ष रोजगार के साथ-साथ नोटबंदी और जीएसटी पर फिर से सरकार को घेरने की कोशिश करेगा। राफेल विमान खरीद और तेल की बढ़ी कीमतों पर भी सवाल पूछे जाने तय हैं। मुमकिन है कि फिल्म पद्मावती विवाद, राजस्थान की आपराधिक घटनाएं, कश्मीर के हालात और अयोध्या मामले पर भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हो। किसानों की बेहाली को लेकर सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगना तय ही माना जाए। यह तो तय ही हो गया कि विपक्ष और खासकर कांग्रेस गुजरात चुनाव के दौरान पाकिस्तान कनेक्शन को लेकर सत्तापक्ष को घेरेगा, लेकिन चुनाव नतीजे संसद के माहौल को बदलने का काम कर सकते हैं।

इस सत्र के संभावित विधेयकों की बात करें तो पूर्व में आए तीन अध्यादेशों को विधेयक के तौर पर लाने की नियमानुसार जरूरी पहल होगी। कैबिनेट के फैसले के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि सरकार तुरंत तीन तलाक खत्म करने से जुड़ा विधेयक लाने जा रही है। इसे लेकर संसद में घमासान के आसार नजर आ रहे हैं। संसद के इसी सत्र में उपभोक्ता संरक्षण से जुड़ा संशोधन विधेयक भी पारित होना चाहिए। नए कानून में भ्रामक विज्ञापन देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है। उपभोक्ताओं के लिहाज से इसे अहम विधेयक माना जा रहा है। इसके साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की तरह ओबीसी आयोग को भी संवैधानिक दर्जा देने से जुड़े विधेयक को पारित कराने की एक बार फिर से कोशिश होगी। यह विधेयक राज्यसभा में अटका है।

सड़क हादसों को रोकने और बेहतर परिवहन नीति के लिहाज से अहम मोटर व्हीकल बिल पर भी मुहर लगने की उम्मीद की जानी चाहिए। यह बेहद जरूरी भी है, क्योंकि देश में सड़क हादसों में हर दिन 400 से ज्यादा मौतें होती हैं। हालांकि इसे लेकर संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट पेश होनी अभी बाकी है। वैसे कंपनी संशोधन विधेयक और फैक्टरी संशोधन विधेयक के साथ-साथ लोकपाल-लोकायुक्त और भ्रष्टाचार रोकने से जुड़े विधेयकों पर संसदीय समितियों की रिपोर्ट पेश हो चुकी हैं। ऐसे में देखना होगा कि इन विधेयकों पर सरकार आगे बढ़ती है या नहीं? प्रस्तावित एफआरडीआइ बिल को लेकर ढेरों आशंकाओं के बीच सरकार ने अपनी तस्वीर साफ की है, लेकिन विपक्ष की आपत्तियां सामने आना तय है।

मोदी सरकार में मौजूदा 16वीं लोकसभा के अब तक के सफर को देखें तो करीब साढ़े तीन साल में 245 दिन लोकसभा की बैठकें हुई हैं। इनमें करीब 1322 घंटे कामकाज हुआ है, जबकि करीब 210 घंटे हंगामे में बर्बाद कर दिए गए। बीते तीन सत्रों में ही 125 घंटों से ज्यादा हंगामे की भेंट चढ़ चुके हैं। इस दौरान 148 विधेयकों पर लोकसभा की मुहर भी लगी है। इससे पहले 11 अगस्त को खत्म हुए मानसून सत्र पर नजर डालें तो सत्र की शुरुआत जहां राष्ट्रपति पद के चुनाव के साथ हुई थी, वहीं सत्र के आखिरी दिन राज्यसभा के नए सभापति या यह कहें कि उपराष्ट्रपति चुने गए। तब लोकसभा की उत्पादकता 67 फीसद रही, जबकि राज्यसभा की 72 फीसद। पूरा मानसून सत्र ही हंगामेदार था।

अकेले लोकसभा में ही हंगामे के कारण करीब 30 घंटे बर्बाद हुए। अभद्र व्यवहार के चलते पांच दिन के लिए छह कांग्रेसी सांसदों का निष्कासन भी करना पड़ा। देखना होगा कि इस सत्र में राजनीतिक दल संसद में किस तरह की तस्वीर पेश करते हैं? यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि सरकार विपक्ष के साथ सहमति बनाने में सफल हो पाती है या नहीं?

[लेखक टेलीविजन के वरिष्ठ पत्रकार हैं।]