[कृपाशंकर चौबे]। मानसून सत्र में महंगाई जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर सार्थक बहस के बजाय हंगामा, आसन के अनादर, कई सदस्यों के निलंबन से तमाम सवाल खड़े हुए हैं। जिस तरह विपक्ष को महंगाई पर चर्चा कराने की मांग करने का अधिकार था, उसी तरह सरकार को यह कहने का अधिकार था कि कोरोना संक्रमण से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के मुक्त होते ही वह इस पर बहस कराएगी।

सरकार ने विपक्ष की मांग अस्वीकार नहीं की, बल्कि वित्त मंत्री के स्वस्थ होकर सदन में आने तक का समय मांगा था, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि देश की सबसे बड़ी पंचायत को ही गतिरोध का शिकार बना दिया जाए। मौजूदा मानसून सत्र में संसद का मूल्यवान समय जिस तरह नष्ट हुआ, वह संसदीय लोकतंत्र के अवमूल्यन का पहला दृष्टांत नहीं है। संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं में मूल्यवान समय और धन की बर्बादी पहले भी होती रही है। आम जनता द्वारा दिए जाने वाले कर से जो धन आता है, उसी से संसद चलती है। सदन को नहीं चलने देकर उस धन की बर्बादी क्या अपराध नहीं है?

संसद चूंकि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की केंद्रीय संस्था है इसीलिए जनता की आवाज को अभिव्यक्त करने और उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी उसे दी गई है। उसे कानून बनाने, देश की विधि-व्यवस्था पर नियंत्रण रखने, कार्यपालिका को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने और जरूरी होने पर संविधान में संशोधन करने का अधिकार दिया गया है। इन्हीं अधिकारों के कारण प्रशासन का पूरा तंत्र उसी के चारों तरफ घूमता है।

संसद के चालू सत्र में दोनों सदनों के प्रभावी ढंग से काम नहीं करने देने से क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि सांसद अपनी निर्धारित भूमिकाओं का निर्वाह करने से परहेज कर रहे हैं? एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जनप्रतिनिधि यदि अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और भूमिकाओं का पालन नहीं करेंगे तो संसद जनता के मंच के रूप में कैसे उभरेगी?

वाद-विवाद और संवाद से ही लोकतंत्र चलता है। विरोधी मत को उचित मान देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत ही यही है कि वह विरोधी विचार को सहने की शक्ति देता है और विविधता को संरक्षण देता है। अनौचित्य को टोकना जनप्रतिनिधियों का ही नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक का भी फर्ज है, पर टोकने, विरोध दर्ज करने का तरीका भी शिष्ट होना चाहिए। सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के सांसदों से यही अपेक्षा रहती है कि वे तमाम विरोधों के बावजूद संसदीय और राजनीतिक शिष्टाचार को कायम रखेंगेर्, किंतु अक्सर वे इस पर खरे नहीं उतरते। यदि यह संसदीय शिष्टाचार कायम रहता तो संसद के चालू सत्र में गतिरोध नहीं पैदा होता।

याद रहे कि संसद या विधानसभाओं को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं, विपक्ष की भी होती है। महंगाई निश्चित ही बड़ा मामला है, लेकिन जनहित के दूसरे मामले भी हैं, परंतु संसद जब चलने दी जाएगी तभी तो उन मामलों पर भी बहस होगी। गंभीर बहस के प्रति कई सांसदों की अरुचि किसी से छिपी बात नहीं रही है। यदि गंभीर बहस हो तो सरकार हिल जाती है।

डा. राममनोहर लोहिया संसद में बहस कर ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर देते थे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जब संसद में बोलने के लिए खड़े होते थे तो सरकार और सांसद ही नहीं, पूरा देश उन्हें ध्यान से सुनता था। भारत में संवाद और शास्त्रार्थ की लंबी परंपरा रही है। सरमा-पणि, विश्वामित्र-नदी, यम-यमी, यमराज-नचिकेता, शिव-पार्वती, अगस्त्य-लोपामुद्रा, गरुड़-काकभुशुंडी, पुरुरवा-उर्वशी, अर्जुन-कृष्ण संवाद महत्वपूर्ण माने गए हैं।

संवाद की वह परंपरा इतनी प्रभावी रही है कि युद्ध से भागते हुए अर्जुन से कृष्ण युद्ध करा लेते हैं। इसी तरह शंकराचार्य का काशी में मंडन मिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ इतिहास प्रसिद्ध है। शंकराचार्य ने अपने से आयु और अनुभव में काफी बड़े विद्वान मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। उसके बाद पूरे भारत का भ्रमण कर मीमांसा, सांख्य, चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन के अनुयायी विद्वानों के साथ भी शास्त्रार्थ किया। इस तरह वह जगद्गुरु कहलाए। संवाद और शास्त्रार्थ की पुरानी परंपरा में यह सामान्य मान्यता थी कि तथ्यों की अनदेखी नहीं होगी, मिथ्यारोप नहीं लगेंगे, चरित्र हनन नहीं होगा।

इसके विपरीत आज हम देखते हैं कि संसद, विधानसभाओं, राजनीतिक दलों की रैलियों, सभाओं और प्रेस वार्ताओं में विपरीत मत वालों के विरुद्ध तथ्यों की अनदेखी, मिथ्यारोप और चरित्र हनन एक प्रवृत्ति बनती जा रही है। विपरीत मत वालों के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह राजनीति की गरिमा और मर्यादा को बार-बार क्षत-विक्षत करता है। इसके एक नहीं, बल्कि अनेक उदाहरण हैं।

अभी हाल में देश को राष्ट्रपति के रूप में मिलीं पहली आदिवासी महिला के लिए कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया, वह किस राजनीतिक संस्कृति का द्योतक है? सार्वजनिक संवाद के क्षरण की रही-सही कसर न्यूज चैनलों की बहसों ने पूरी कर दी है। वहां प्रतिदिन प्रतिभागी आपस में जिस तरह भिड़ते हैं, एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं उससे कई बार आशंका होती है कि अब हाथापाई पर उतर आएंगे। और तो और कुछ एंकर भी प्रतिभागियों से उलझ पड़ते हैं। ऐसे मीडियाकर्मियों से निष्पक्ष और सार्थक बहस की उम्मीद बेमानी है। कुल मिलाकर सार्वजनिक जीवन में संवाद जिस तरह दूषित और स्तरहीन होता जा रहा है, वह चिंतित और विचलित करने वाला है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)