[अरविंद चतुर्वेदी]। परिवार के ज्येष्ठ पुत्र से सबको बड़ी उम्मीद होती है। अपवादों को छोड़ दें, तो माना जाता रहा है कि अगर घर-कुल का बड़ा बेटा लायक निकल गया तो छोटे भी उसका अनुसरण कर सकते हैं और उनके भी लायक बनने की संभावना प्रबल हो जाती है। इसके उलट भी मामले होते हैं, लेकिन ये मान्यता टूट नहीं रही है। मान्यताओं को वास्तविकता के चश्मे से देखे जाने वाले देश में एक और समझ है- वसुधैव कुटुंबकम। यानी पूरी धरती को अपना परिवार समझने की। अगर हम इस मान्यता पर आधुनिक दुनिया को एक परिवार मानें तो इस परिवार का ज्येष्ठ पुत्र अमेरिका हुआ।

लिहाजा अमेरिका के आचार-विचार और व्यवहार से पूरी दुनिया प्रेरित और प्रोत्साहित होती है, लेकिन अगर यही देश दुनिया के हित के प्रतिकूल कोई हरकत कर देता है तो सवाल स्वाभाविक हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने बचकाने फैसलों के लिए पूरे कार्यकाल के दौरान किरकिरी कराते रहे। इन्हीं में से एक पेरिस जलवायु समझौते से देश को बाहर करने का भी उनका फैसला रहा।

दुनिया को ग्लोबल वार्मिग के दंश से बचाने के लिए किया गया यह वैश्विक करार अमेरिका के इन्कार से हीलाहवाली की भेंट चढ़ता दिखा। जिस अमेरिका की प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन मात्र भारत से करीब 10 गुना ज्यादा हो, भला उसके कार्बन उत्सर्जन की कटौती से मुंह फेरने पर भारत जैसे छोटे भाई क्यों अपना दायित्व निभाएंगे। नए राष्ट्रपति बाइडन ने ट्रंप की भूलों को सुधारने का काम शुरू किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अलावा पेरिस जलवायु समझौते में वह अमेरिका को फिर से शामिल कर रहे हैं व तय लक्ष्यों के तहत देश में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के नियम को लागू करेंगे।

दीर्घकालिक समस्या है ग्लोबल वार्मिग

दुनिया के किसी भी समझदार इंसान से पूछिए कि आज की सबसे बड़ी समस्या क्या है तो वह कोरोना नहीं बोलेगा। कोरोना तो तात्कालिक है। दीर्घकालिक समस्या ग्लोबल वार्मिग बन चुकी है, जिसका प्रत्यक्ष और परोक्ष नुकसान इस महामारी से कई गुना अधिक दुनिया को हर साल उठाना पड़ता है। यानी ग्लोबल वार्मिग पर अंकुश लगाकर हम मानवता का कल्याण कर सकते हैं।

दिसंबर 2015 में हुआ पेरिस  समझौता 

दुनिया ने इसे माना और संयुक्त राष्ट्र की छतरी के नीचे सभी देशों के बीच कई बार अहम समझौते हुए। इसी क्रम में दिसंबर 2015 में पेरिस सम्मेलन में 196 देशों के बीच एक समझौता किया गया, जिसमें पूर्व औद्योगिकीकरण काल के मुकाबले तापमान दो डिग्री सेल्सियस नीचे रखे जाने का लक्ष्य रखा गया। खास बात यह रही कि समझौते में सभी देशों को उनकी प्रकृति के हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य रखा गया। यह बात भी सामने आई कि दशकों से सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन कर औद्योगिक देश अब विकसित देश बन चुके हैं, लेकिन जब गरीब मुल्कों के विकास की बात आई तो उन पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य थोपा जा रहा है।

जून, 2017 में अमेरिका इस संधि से अलग हो गया

लिहाजा समझौते में यह कहा गया कि विकासशील देश तेजी से विकास करें, इसके लिए विकसित देश तकनीकी स्थानांतरण के रूप में उनकी मदद करेंगे। उन तकनीकों के इस्तेमाल से गरीब मुल्क अपनी जरूरत के मुताबिक आर्थिक विकास के लक्ष्य हासिल कर सकेंगे और इस समझौते के अनुसार बाध्यकारी कार्बन कटौती के लक्ष्य को भी हासिल कर सकेंगे। इस वार्ता में शामिल दोनों ही प्रकार के देशों यानी गरीब और अमीर को यह बात सुहा गई और समझौते पर हस्ताक्षर हो गए। पर्यावरणविदों और विज्ञानियों ने मानवता के कल्याण में इसे ऐतिहासिक दिन बताया। लेकिन सारी खुशी काफूर तब हो गई, जब तब के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समझौते से अपना हाथ खींच लिया। अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी जलवायु परिवर्तन जैसी अवधारणा को शायद मनगढ़ंत मानती रही है, तभी उसके पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश भी इस सिद्धांत को विज्ञानियों की एक काल्पनिक कहानी मानते रहे। जून, 2017 में अमेरिका इस संधि से अलग हो गया।

अमेरिका का इस समझौते से फिरने का क्या संदेश गया होगा?

बड़े भाई के रूप में अमेरिका का इस समझौते से फिरने का भारत जैसे तमाम छोटे भाइयों को क्या संदेश गया होगा, ये हर कोई समझता है। वैसे भारतीय जनमानस हमेशा से मितव्ययी रहा है। आज भी वह वाहन का चयन माइलेज देखकर ही करता है, हालांकि यहां भी एक प्रभावी वर्ग उभर आया है जो हर कीमत की और हर स्तर के वाहनों को खरीदने में सक्षम है। अमेरिका के पास इफरात पैसा है। वह अपने लोगों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर अकूत धन देता है, जिसे बेहिचक खर्च करने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती है।

देशों का भरोसा पेरिस जलवायु संधि को लेकर मजबूत होगा

तभी वहां की सड़कों पर आप बड़े इंजन वाले भारी-भरकम वाहनों से आम लोगों के आवागमन को व्यापक रूप से देख सकते हैं, जो बहुत अधिक ईंधन की खपत करते हैं। ऐसे में अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत अगर ट्रंप ने जलवायु नीति से किनारा कर लिया, तो भला उसके छोटे भाई क्यों न सवाल खड़े करें। अंत भला तो सब भला। तब अमेरिका के उस कदम का एक हद तक अन्य बड़े उत्सर्जक देशों ने मौन समर्थन किया था, कुछ ही मुखर हो पाए थे, लेकिन अब बड़ा भाई फिर से इस समझौते में शामिल हो चुका है तो दुनिया के देशों का भरोसा फिर से पेरिस जलवायु संधि को लेकर मजबूत होगा और तमाम बड़े उत्सर्जक देशों में यह संदेश जाएगा कि वे अपने तय लक्ष्यों को हासिल करें और गर्म होती धरती के विनाशकारी दुष्प्रभावों से दुनिया को बचाएं।