डा. अजय खेमरिया । देश के किसी न किसी राज्य में पंचायत चुनाव होते ही रहते हैं। कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए। अब उत्तराखंड और हरियाणा में होने जा रहे हैं। मध्य प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के लिए सदस्यों की खरीद-फरोख्त के आरोप उछले। ऐसे ही आरोप ब्लाक प्रमुख या फिर नगरीय निकाय के प्रमुखों के चुनावों को लेकर भी सामने आए। वास्तव में देश भर में आज त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की यही कहानी है। पंचायती राज का ऐसा दूषित स्वरूप स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर बहुत ही चिंतनीय है। संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन के माध्यम से स्वराज की जिस गारंटी पर देश को आगे बढ़ना था, लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया जाना था, वह धनबल और बाहुबल के आगे लगता है महत्वहीन होता जा रहा है।

बुनियादी रूप से स्थानीय निकाय स्वायत्तशासी चरित्र के होने चाहिए, लेकिन देश भर में पंचायती राज संस्थाओं के साथ नगरीय निकाय राज्य सरकारों के रहमोकरम पर टिके रहते हैं। स्थानीय शासन वास्तविक अर्थो में आज नाम भर का रह गया है। वस्तुत: राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि स्थानीय स्तर पर सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। इसलिए किसी भी राज्य में पंचायती राज संस्थान अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नियोजन या क्रियान्वयन के मामलों में आत्मनिर्भर नहीं हैं। देखा जाए तो प्राय: हर राज्य ने ऐसे प्रविधान इनके गठन के साथ ही कर दिए हैं कि वे स्वायत्त होकर काम ही नहीं कर सकते। हर राज्य में जिसकी सत्ता होती है, पंचायतें उसी के अनुरूप निर्वाचित होती हैं। यानी पंचायती राज की सभी इकाइयां सत्ता की पटरानी बनकर रह गई हैं।

हमारे नीति-नियंता इससे अपरिचित नहीं हो सकते कि त्रिस्तरीय पंचायती राज का मूल उद्देश्य वह था ही नहीं, जो आज रूप ले चुका है। उद्देश्य तो यह था कि ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लाक पर ब्लाक प्रधान और जिले में जिला परिषद मिलकर एक पदक्रम के अनुरूप जिले के विकास की कार्ययोजना बनाएंगे और निर्वाचित प्रतिनिधि अफसरशाही के साथ मिलकर स्थानीय विकास को मूर्त रूप देंगे। नगरीय निकायों में भी महापौर, नगरपालिका अध्यक्ष और नगर परिषद की संरचना इसी तर्ज पर की गई है। सरकारों को सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय कौशल विकास, मनोरंजन, सामुदायिक विकास, पेयजल, पोषण जैसे मामले नियोजन, अनुश्रवण, निगरानी के लिए स्थानीय संस्थाओं को सौंपने थे, लेकिन अफसरशाही ने कभी इस विकेंद्रीकरण को किसी राज्य में अमल में नहीं लाने दिया।

सत्ता में बैठे दलों को लगता है कि सत्ता का विकेंद्रीकरण मतलब उनकी ताकत और रुतबे में कमी हो जाना है इसलिए महात्मा गांधी का पंचायती राज आज भी एक सपना ही बना हुआ है। जिला परिषद के अध्यक्ष को राज्य मंत्री का दर्जा हासिल होता है। एक अपर कलेक्टर स्तर का अधिकारी उसका सचिव होता है। ग्रामीण विकास और कल्याण से जुड़े हर मामले में उसकी भूमिका नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक में अग्रणी होती है। स्वाभाविक है कि अगर करोड़ों की रकम खर्च करके जिला परिषद अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई आएगा तो वह उस पवित्र भावना के साथ कैसे काम करेगा, जिसकी वचनबद्धता संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में समाहित है।

जिला पंचायत इकाइयां जनपद और ग्राम पंचायतों को जिला योजना के अनुरूप धन का आवंटन करती हैं और नियोजन का काम अफसरों की वही टोली करती है, जिसे यह अच्छे से पता है कि सरकारी धन की बंदरबांट कहां और किस तरीके से आसानी से की जा सकेगी? शायद ही किसी जिले में जिला योजना पर परिषद में बैठकर नियोजन किया जाता हो, बहस होती हो या आपत्ति ली जाती हो। अपनी लोकप्रियता पर गुमान करने वाली राज्य सरकारें भी इस बात का जवाब देने तैयार नहीं हैं कि पंचायत प्रतिनिधियों के चुनाव दलीय आधार पर प्रत्यक्ष मतदान से क्यों नहीं कराए जाते? जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव पार्टी के निशान पर हो सकते हैं तो जिला और ब्लाक अध्यक्ष के चुनाव जनता से सीधे क्यों नहीं कराए जाने चाहिए? इससे करोड़ों की खरीद-फरोख्त बंद होगी। साथ ही लोकप्रिय उम्मीदवार चुनकर इन निकायों में आएंगे। कुछ समय पूर्व पंच मिलकर पंचायत के प्रधान को चुनते थे, लेकिन अब प्रधान के लिए वोटिंग होती है, इसलिए प्रधान पद पर खरीद-फरोख्त बंद हो गई है। ऐसी ही प्रणाली ब्लाक और जिला परिषद के लिए देश भर में अपनाए जाने की आवश्यकता है।

मोदी सरकार देश में स्मार्ट सिटी मिशन पर काम कर रही है और दूसरी तरफ स्थानीय निकायों में मुखिया चुनने के लिए भयंकर दूषित प्रक्रिया देश भर में प्रचलित है। आखिर इस स्थिति में शहरीकरण की वैश्विक चुनौतियों के अनुरूप हमारे शहर कैसे तैयार होंगे? बेहतर होगा कि एक देश एक पंचायती राज प्रविधान पर आम सहमति से नया कानून बनाया जाए। सशक्त स्थानीय शासन अंतत: देश में सुशासन के केंद्रीय लक्ष्यों को पूरा करने में बड़ा निर्णायक साबित होता है। पंचायत और नगरीय निकायों के लिए मौजूदा अफसरशाही में से ही एक विशिष्ट कैडर निर्मित किया जाना चाहिए, जो इस क्षेत्र में परिणामोन्मुखी लक्ष्यों पर काम करने में पारंगत हो। अभी एक ही अफसर पंचायत में तो कभी नगर निगम से लेकर अन्य महकमों में भी सेवा देता रहता है। ऐसी व्यवस्था किसी सुनिश्चित लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकती है। यह भी अच्छा होगा कि केंद्र सरकार बाहर से पेशेवर लोगों को लाए और पंचायती राज की कार्य संस्कृति में बदलाव लाए।

(लेखक लोक नीति विश्लेषक हैं)