[ कुलदीप नैयर ]: लगता है पाकिस्तान में फौज ने किसी खास आदमी को बिना किसी वैध कारण के चुनाव जिताने का रास्ता निकाल लिया है। इमरान खान इसी प्रक्रिया की पैदाईश जान पड़ते हैैं। आम चुनाव के काफी पहले ही उनका नाम प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर उछाल दिया गया था। यह माना जा सकता है कि शायद फौज जो करना चाहती है उसके लिए इमरान खान के अतिरिक्त कोई दूसरा आदमी फिट नहीं था।

नवाज शरीफ अतीत में कई बार चुनाव जीते चुके थे, लेकिन फौज ने उनमें कमी पाई। यहां तक कि जनरल परवेज मुशर्रफ का फौजी शासन भी उसके पैमाने पर खरा नहीं उतरा, लेकिन इस पर विचार करें कि आखिर फौज बीच में क्यों आ गई और उसने चुनाव की प्रक्रिया को नष्ट क्यों कर दिया? फौज को लगा कि उसे एक ऐसे आदमी के जरिये सीधे शासन करना चाहिए जो अकड़ कर चलने वाले फौज का घोड़ा बनने में गर्व महसूस करे। क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान राजनीति में काफी दिनों से हैं, लेकिन वह अभी तक इस श्रेणी तक नहीं पहुंच पाए थे।

जनरल जिया-उल हक और जनरल परवेज मुशर्रफ तो हर तरह से फौज के आदमी थे। उन्होंने मार्शल लॉ डिक्टेटर की तरह शासन किया और अपने से जनता को दूर कर दिया। जब नवाज शरीफ प्रधानमंत्री थे तो पाकिस्तानी फौज की उपस्थिति हर तरह से नजर आती थी। वह अपनी जरूरत के हिसाब से कामों के संचालन के लिए कैबिनेट की बैठकों में भी भाग लेती दिखाई देती थी। अब जो प्रयोग हो रहा है उसमें ऐसे गैर-फौजी को शीर्ष पर बिठाया जाना है जो सोच और कामकाज में फौज का आदमी हो।

लोकतांत्रिक देशों ने साफ कहा कि पाकिस्तान फौजी शासन में ही था। क्या पश्चिमी देशों में इमरान खान की साख स्वीकार की जाएगी? इसका पता आने वाले कुछ महीनों में उनके शासन से ही चलेगा। यह इमरान खान पर निर्भर करेगा कि वह दोनों शासकों-फौज और जनता को खुश कर पाते हैं या नहीं? जहां तक भारत का सवाल है, उसकी भूमिका तमाशबीन की है। वह सर्जिकल स्ट्राइक कर सकता है जैसा कि वह एक बार पहले भी कर चुका है। इससे कुछ भी ज्यादा बाकायदा युद्ध में तब्दील हो सकता है।

अपनी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआई के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद दिए गए अपने विजयी भाषण में इमरान खान ने कहा कि वह भारत के साथ बेहतर रिश्ता रखेंगे। उन्होेंने यह तक कहा कि अगर रिश्ते सुधारने के लिए भारत एक कदम बढ़ाता है तो वह दो कदम बढाएंगे। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर केंद्रीय मुद्दा है और इसे सुलझना चाहिए। वह शायद इस बात को भूल गए कि कश्मीरी अब खुद का स्वतंत्र इस्लामिक गणराज्य बनाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में वे मदद के लिए पाकिस्तान की ओर नहीं ताक रहे हैं। यहां तक कि यासीन मलिक और शब्बीर शाह जैसे लोग भी अब अप्रासंगिक हो गए हैं।

ज्यादा समय नहीं हुआ जब मैं कश्मीरी छात्रों से संवाद के लिए श्रीनगर गया था। वहां मैैं यह देखकर हैरान रह गया कि वे अब पाकिस्तान समर्थक नहीं रह गए हैं। उनकी नजर में अपना शासन थोपने के मामले में नई दिल्ली और इस्लामाबाद, दोनों एक समान हैैं। इमरान उनकी सोच को कैसे बदलेंगे, जबकि वह यह मानते हैैं कि दो ही पक्ष हैं-भारत और पाकिस्तान जिन्हें कश्मीर मुद्दे का मर्म मालूम है?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के लिए कश्मीरी युवक कोई पक्ष नहीं लगते, क्योंकि समस्या सुलझाने की बातचीत में अब दो की जगह तीन पक्षों को बैठना पडे़ेगा। जैसा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कह चुकी हैं, भारतीय पाकिस्तान से तब तक बातचीत नहीं करेंगे जब तक वह आतंकवादियों को पनाह देना बंद नहीं करता। क्या इमरान खान कश्मीर का सूत्र पकड़ने पर ऐसा कोई आश्वासन दे पाएंगे? वह ऐसी कठिन स्थिति में हैैं कि अगर वह इस तरह का आश्वासन दे भी देते हैं तो इसे तब तक गंभीरता से नहीं लिया जाएगा जब तक सेना प्रमुख उनकी बात का खुल कर समर्थन नहीं करते। कम से कम अभी तो इसका कोई संकेत दिखाई नहीं देता। कुछ करने के लिए इमरान खान को पहले पांव जमाने पड़ेंगे, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह क्षेत्र में शांति चाहेंगे।

निश्चित तौर पर भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा कर इमरान खान ने राजनीतिक रूप से अपने को सही साबित कर दिया है, लेकिन उनकी असली परीक्षा इस बात से होगी कि भारत से संबंध सुधारने के लिए फौज उन्हें कितनी आजादी देती है? यह काम अभी तक फौज के अधिकार-क्षेत्र में रहा है। फौज को अलग करने का मतलब होगा सरकार के प्रशासन में पूरी तरह बदलाव, क्योंकि अभी तो फौैज का शासन नीचे गांव तक है। दक्षिण एशिया के एक वरिष्ठ विशेषज्ञ ने पाकिस्तान के चुनाव नतीजों पर निराशा से भरे विचार जाहिर करते हुए कहा है कि दुनिया का सबसे खतरनाक देश और खतरनाक हो गया है। इस विशेषज्ञ के मुताबिक, इमरान खान फौज का खुलकर पक्ष लेने वाले और उसकी खुफिया एजेंसी आइएसआइ की सरपरस्ती में चलने वाले इस्लामिक आंदोलन से गहराई से जुड़े हैं। यह अशुभ संकेत है।

इस पर हैरत नहीं कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान में नेतृत्व परिवर्तन, जो कि अभी होना बाकी है, का स्वागत सतर्क होकर किया है। इसकी वजह शायद यह है कि इमरान खान अमेरिका के मुखर आलोचक हैं। इमरान के मुताबिक, अमेरिका ने पाकिस्तान का इस्तेमाल ‘पायदान’ की तरह किया है। दूसरी ओर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के पूर्व विशेषज्ञ और व्हाइट हाउस के अधिकारी ने इशारा किया है कि फौज के साथ इमरान खान की मौज-मस्ती ज्यादा समय तक नहीं चलेगी। इस अधिकारी के अनुसार, इमरान की छवि आजादी वाली और चंचलता की है और उनका राजनीतिक आंदोलन करीब-करीब व्यक्ति-पूजा है। फौज के लिए यह सब इमरान खान से संबंध रखने में एक बाधा बन सकता है।

सेक्युलर भारत को इमरान खान कश्मीर के आतंकियों को अधिक मदद देते हुए नजर आ सकते हैैं। इमरान यह मानते हैं कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। उन्हें सेना के कमांडरों के सामने यह साबित करना है कि वह उनके दिए काम को पूरा कर सकते हैं। भारत को ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ सकता है कि न तो युद्ध हो और न ही शांति। इस माहौल में इमरान खान का इस्लाम की ओर झुकाव एक और पहलू जोड़ देता है। यह भी परिस्थिति को उलझा देता है। इसमें कोई छेड़छाड़ विनाशकारी परिणाम ला सकती है।

यह साबित करने के लिए कि वह लोगों के साथ हैं और जब कठिन परिस्थिति आएगी वह उनके साथ खड़े रहेंगे, इसके लिए इमरान को कुछ करना पडे़गा-चमत्कार से भी ज्यादा। वर्तमान में लोगों के दिमाग में यह है कि वह फौज के आदमी हैं। यह एक ऐसी छवि है जिसे वह आसानी से नहीं मिटा सकते।

[ लेखक पाकिस्तान मामलों के जानकार और वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]