[ विवेक काटजू ]: कहने को पाकिस्तान एक लोकतंत्र है जहां चुनी हुई सरकार शासन करती है, लेकिन हकीकत इसके उलट है। यहां सेना प्रमुख को देश की सबसे बड़ी हस्ती माना जाता है। फौज का मुखिया वहां एक पेशेवर सैनिक होने के साथ-साथ देश की सबसे ताकतवर सियासी शख्सियत भी होता है। हालांकि सेना के प्रवक्ता और नेता इससे इन्कार करेंगे, लेकिन इससे सेना प्रमुख के निर्विवाद आभामंडल को झुठलाया नहीं जा सकता। मौजूदा सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा भी इसी परिपाटी का हिस्सा हैं, मगर फिलहाल उनकी बादशाहत को लेकर एक पेच फंस गया है। यह पेच पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने फंसाया है।

पाक सुप्रीम कोर्ट में बाजवा को लेकर इमरान का फैसला रद

यह मामला पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा बाजवा को तीन साल के सेवा विस्तार देने से शुरू हुआ। सुप्रीम कोर्ट में 26 नवंबर को सेवा विस्तार के इस फैसले को चुनौती दी गई। लोग यही मान रहे थे कि इस याचिका पर सुनवाई ही नहीं होगी। हालांकि वे तब भौचक्के रह गए जब कोर्ट ने इमरान के फैसले को रद कर दिया। इसके साथ ही अदालत ने फैसले के पक्ष में सरकार से दलीलें तलब कीं। इसके अगले तीन दिनों तक पाकिस्तान में राजनीतिक एवं कानूनी नाटक पूरे चरम पर रहा। यह इमरान और बाजवा दोनों के लिए भारी शर्मिंदगी का सबब बन गया।

कोर्ट ने बाजवा को राहत के तौर पर छह महीने के सेवा विस्तार को दी हरी झंडी 

उनके लिए राहत की बात सिर्फ यही रही कि अदालत ने बाजवा के छह महीने के सेवा विस्तार को हरी झंडी दिखा दी। इसके साथ ही उसने सरकार को भी गुंजाइश दी कि यदि वह सेवा विस्तार को लेकर उपयुक्त कानून बनाए तो अदालत बाजवा के तीन साल के कार्यकाल को बहाल कर देगी। इस तरह हाल-फिलहाल तो इस मामले का पटाक्षेप हो गया, परंतु बड़ा सवाल यही उठता है कि यह सब कैसे और क्यों हुआ और जो हुआ उसके मायने क्या हैैं?

तीन साल के बाद सेवानिवृत्त की परिपाटी को पीपीपी ने तोड़ा

पाकिस्तान में सैन्य प्रमुखों को बहुत सम्मान दिया जाता है। पाकिस्तानी संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति उनकी नियुक्ति करते हैं। हालांकि संविधान में उनके कार्यकाल की अवधि पर स्पष्टता नहीं है। यह सेना की परंपरा के अनुसार ही तय किया जाता है। इस परंपरा के तहत सेना प्रमुख को तीन साल का कार्यकाल मिलता है। अतीत में चुनी हुई सरकारों के दौर में सेना प्रमुख तीन साल पूरे करने के बाद सेवानिवृत्त हो जाते थे। इस परिपाटी को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने तोड़ा। गिलानी ने 2010 में तत्कालीन सेना प्रमुख अशफाक कयानी को तीन साल सेवा विस्तार दिया। चूंकि पाकिस्तान के सैन्य शासकों की शक्ति का स्नोत सेना ही रही है इसलिए अमूमन वे इस पद को छोड़ने के अनिच्छुक रहते हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति जैसा शीर्ष पद संभालने के बावजूद उन्होंने सेना प्रमुख का ओहदा नहीं छोड़ा।

सेना प्रमुखों के आभामंडल से न्यायपालिका भी भयभीत थी, लेकिन अबकी बार ऐसा नहीं हुआ

बहरहाल पाक में पहली बार ऐसा हुआ जब सेना प्रमुख से जुड़ा कोई मामला अदालत में गया हो। इससे पहले कभी किसी ने उनसे जुड़े मामले को अदालत में चुनौती नहीं दी। यदि कोशिश की भी गई होगी तो उसे न्यायाधीशों ने तवज्जो नहीं दी। वहां सेना प्रमुखों के इर्दगिर्द ऐसा आभामंडल रचा गया जिसने नेताओं के साथ-साथ न्यायपालिका को भी हमेशा भयाक्रांत करके रखा। वहां जब भी सैन्य तख्तापलट हुए तब शायद ही नेताओं ने उसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया हो। इसी तरह अदालतें भी तख्ता पलट पर मुहर लगाती रहीं, लेकिन इस बार मसला अलग था। ऐसा इसलिए, क्योंकि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश आसिफ खोसा अलग मिजाज के माने जाते हैं। उन्होंने सेना प्रमुख की सेवा शर्तों को कानूनी कसौटी पर कसने का फैसला किया। इस तरह उन्होंने ऐसा कदम उठाने से गुरेज नहीं किया जो सत्ता में बैठे लोगों को जरूर खटका होगा।

बाजवा मामले में अदालत में सरकार की पैरवी रही लचर

बाजवा के सेवा विस्तार मामले में इमरान सरकार द्वारा अदालत में की गई पैरवी लचर रही। अदालत ने सरकारी वकीलों से सेवा विस्तार के पीछे कानूनी तर्कों पर सफाई मांगी तो वकील बार-बार अपना रुख बदलते रहे। अदालत में दाखिल उनके लिखित हलफनामे विरोधाभास भरे थे। अदालत ने उनकी धज्जियां उड़ाने से परहेज नहीं किया। इस बीच ऐसी आशंकाएं गहराने लगीं कि यदि मामले ने और तूल पकड़ा और अदालत संतुष्ट नहीं हुई तब बाजवा को इस्तीफा देने पर भी मजबूर होना पड़ सकता है। हालांकि ऐसा नहीं हुआ।

पाक में वरिष्ठता नहीं योग्यता के आधार पर जनरल बनते हैं सेना प्रमुख

मौजूदा घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में एक पहलू पर गौर करना होगा। पाकिस्तानी फौज ने प्रधानमंत्रियों को यह विकल्प दिया कि वह योग्य जनरलों में से किसी को सेना प्रमुख के पद पर नियुक्त करें। उसने कभी जोर नहीं दिया कि सबसे वरिष्ठ जनरल को ही सेना प्रमुख बनाया जाना चाहिए। इस तरह जुल्फिकार अली भुट्टो ने जिया उल हक को और नवाज शरीफ ने परवेज मुशर्रफ को सैन्य प्रमुख बनाया। दोनों ही अपने दौर में वरिष्ठतम नहीं थे।

पाकिस्तानी सेना प्रमुख अपना हित भी देखती

भुट्टो और शरीफ ने इस उम्मीद के साथ उन्हें सेना के सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठाया कि वे उनके वफादार बने रहेंगे। यह उनकी भारी गलती साबित हुई, जिसकी उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जिया ने भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया तो मुशर्रफ ने शरीफ को जेल में डाल दिया। इससे स्पष्ट है कि पाकिस्तानी सेना प्रमुख अपने हित भी देखता है। इन हितों की पूर्ति के लिए वह अक्सर सेना में अलोकप्रिय होने की भी परवाह नहीं करता। सेना में तमाम अधिकारियों के लिए सेवा विस्तार में यह तब झलकता भी है जब तमाम सामान्य प्रक्रियाओं को ताक पर रखा जाता है।

बाजवा की लोकप्रियता में कमी आएगी

बाजवा लोकप्रिय सेना प्रमुख रहे हैं, मगर इस प्रकरण के बाद उनकी चमक जरूर कुछ फीकी पड़ेगी। ऐसे में सेना को ऐसे किसी कानून से परहेज नहीं होगा जो सेना प्रमुख के लिए एक से अधिक कार्यकाल की राह में कुछ अवरोध पैदा करे। इसकी भी तमाम वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह तो यही है कि पाकिस्तानी सेना देश की सामरिक एवं विदेश नीति पर पूरा नियंत्रण चाहती है। इसमें वह कभी नेताओं या न्यायाधीशों का दखल नहीं चाहेगी।

सेवारत या सेवानिवृत्त सेना प्रमुख अपनी आभा प्रभावित नहीं होने देना चाहता

जनरल यही मानते हैं कि वे पाकिस्तान की भौगोलिक सुरक्षा एवं वैचारिक नजरिये के वास्तविक संरक्षक हैं। वैचारिक नजरिये का सरोकार उसी द्विराष्ट्र सिद्धांत से है जिसके आधार पर पाकिस्तान बना। उसमें भारत को हिंदू राष्ट्र माना जाता है और इस नाते वह पाक का स्थाई शत्रु है। बाजवा से जुड़े मौजूदा मामले का इनमें से किसी भी पहलू से कोई लेनादेना नहीं। ऐसे में सेना कभी नहीं चाहेगी कि किसी सेवारत या सेवानिवृत्त सेना प्रमुख को बेवजह उन मामलों को लेकर असहज होना पड़े जिनसे उसकी आभा प्रभावित हो।

भारत के खिलाफ पाकिस्तानी फौज का रवैया नहीं बदलने वाला

सैन्य प्रमुख को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चले जबरदस्त नाटक के बाद भी वहां नीतिगत ढांचे में कोई बदलाव नहीं आने वाला। पाकिस्तान में हमेशा फौज हावी रही है और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। न ही इस बात के कोई संकेत हैं कि भारत के खिलाफ पाकिस्तानी फौज का रवैया बदलने वाला है। भारत को आहत करने के लिए वह आतंकवाद सहित अपने तरकश में हर एक तीर को आजमाने से नहीं हिचकेगी।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )