[रमेश कुमार दुबे]। उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश, सरकारी अमले की सक्रियता, दिल्ली में सम-विषम योजना पर अमल और निर्माण कार्यों पर रोक के बावजूद दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रदूषण का कहर कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इससे स्पष्ट है कि समस्या कहीं अधिक जटिल है और इसे तात्कालिक उपायों से दूर नहीं किया जा सकता।

दरअसल प्रदूषित तत्व साल भर हवा में एकत्रित होते रहते हैं, लेकिन सर्दियों के अलावा प्रदूषण कहर नहीं बन पाता, क्योंकि तब हवा प्रदूषित तत्वों को समान रूप से वितरित करती रहती है। ठंड के मौसम में यह समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है, क्योंकि हवा की गति धीमी पड़ जाती है।

पराली के साथ ही वाहनों और कारखानों का धुआं भी है जिम्मेदार

प्रदूषण के लिए पराली दहन के साथ ही वाहनों, कारखानों का उत्सर्जन और कचरा जलने से पैदा होने वाला धुआं भी जिम्मेदार है, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि दिल्ली के आसपास करीब 30 कोयला आधारित बिजली संयत्र हैं जो साल भर प्रदूषित तत्व उत्सर्जित करते रहते हैं।

इसी तरह दिल्ली-एनसीआर में भारी तादाद में वाहन भी हवा में पर्टिकुलेट मैटर यानी पीएम उत्सर्जित करते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली-एनसीआर में दिसंबर 2018 में एक करोड़ दस लाख वाहन पंजीकृत थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में बाहरी राज्यों से वाहन आते हैं जिससे साल भर प्रदूषण फैलता रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हरियाली क्षेत्र तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। गांव हों या शहर, हर जगह पक्की संरचना के निर्माण से वह हरियाली सिमटती जा रही है, जो प्रदूषित तत्वों को सोखने का काम करती है।

समस्या का होगा आशिंक समाधान

भले ही उच्चतम न्यायालय के आदेश से सरकारें किसानों को पराली न जलाने के लिए सौ रुपये प्रति क्विंटल की दर से भुगतान करें, लेकिन इससे समस्या का आंशिक समाधान ही होगा। जिस पंजाब-हरियाणा में किसान धान की खेती कर रहे हैं वह इलाका मक्के की रोटी और सरसों के साग के लिए मशहूर रहा है, लेकिन हरित क्रांति के दौर में सिंचाई की सुविधाएं, उपजाऊ मिट्टी, सरकारी खरीद की व्यवस्था, मुफ्त बिजली-पानी की सौगात जैसे कारणों से धान का रकबा बढ़ता ही गया।

अब इसी धान की खेती समस्या का रूप ले चुकी है। पंजाब-हरियाणा में अक्टूबर-नवंबर में धान की फसल तैयार होती है और किसानों को गेहूं की बुआई की जल्दी रहती है इसलिए वे जल्दबाजी में खेत तैयार करने के लिए पराली जलाते है। किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए सब्सिडी पर हैप्पी सीडर मुहैया कराया जाता है।

पराली काटने वाले ट्रैक्टरों की कीमत होती है अधिक 

यह न केवल धान की पराली काटता है, बल्कि मिट्टी को समतल भी करता है। इसके बाजवूद बहुत कम किसान इसका इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि इस मशीन के इस्तेमाल से गेहूं के उत्पादन में गिरावट आती है। इसी तरह का काम रोटावेटर करता है, लेकिन समस्या यह है कि इन मशीनों को चलाने के लिए अधिक क्षमता वाले ट्रैक्टरों की जरूरत पड़ती है जिनकी कीमत कहीं अधिक है। 

यही कारण है कि अधिकतर किसान पराली जलाने को प्राथमिकता देते हैं। पराली की समस्या का स्थाई समाधान है फसली चक्र में बदलाव। इसके लिए सबसे कारगर हथियार है सरकारी खरीद नीति को दुरुस्त करना। यद्यपि सरकार 24 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, लेकिन सरकारी खरीद गेहूं, धान, गन्ना, कपास तक ही अधिक सीमित रहती है।

एक फसली खेती को बढ़ावा

यही कारण है कि किसान उन्हीं फसलों को प्राथमिकता देते हैं जिनकी सरकारी खरीद की पक्की व्यवस्था हो। इसी कारण देश में एक फसली खेती को बढ़ावा मिला। पंजाब और हरियाणा में मुफ्त बिजली-पानी और सब्सिडी वाले उर्वरकों ने समस्या को और बढ़ाया है। 

भूजल का गंभीर संकट

आज जिस देश के गोदाम गेहूं, चावल से अटे पड़े हैं वह देश दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल और दालों का आयातक है। यदि सरकार सार्वजनिक खरीद, भंडारण नीति को विविधीकृत करे तो पंजाब और हरियाणा में फिर गेहूं, धान की जगह मक्का और सरसों प्रचलित हो जाएंगे। इससे भूजल संकट, मिट्टी की उर्वरता में कमी, पराली जलाने जैसी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। 

इसकी शुरुआत उन ब्लॉकों से की जाए जो डार्क जोन घोषित हो चुके हैं। चूंकि यहां के किसान मजबूरी में धान की खेती कर रहे हैं ऐसे में जैसे ही उन्हें मक्का, दलहनी और तिलहनी फसलों का कारगर विकल्प मिलेगा वे उसे अपनाएंगे। इसका सकारात्मक प्रभाव समूचे उत्तर भारत पर पड़ेगा। साफ है कि तात्कालिक उपायों और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से प्रदूषण से मुक्ति नहीं मिलेगी।