[ मनमोहन वैद्य ]: कुछ दिन पूर्व मुंबई में ‘कराची स्वीट मार्ट’ नामक दुकान के मालिक को एक शिवसैनिक ने दुकान का नाम बदलने के लिए धमकाया। उसका कहना था कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियां चलाता है इसलिए नाम बदलना चाहिए। उस दुकान के मालिक ने भी संघर्ष टालने की मंशा से नाम बदलने की बात स्वीकार करते हुए ‘कराची’ शब्द को ढक दिया। यह समाचार पढ़कर उस शिवसैनिक की क्षुद्र मनोदशा, इतिहासबोध का अभाव और सत्ता से उपजी हेकड़ी देखकर दया आई। उसे भारत के इतिहास का थोड़ा भी बोध होता तो किस परिस्थिति में कराची का अपना सारा कारोबार छोड़कर उस दुकानदार के पूर्वज भारत में आने को बाध्य हुए, इसका स्मरण होता। हिंदू समाज की और उस समय के भारत के नेतृत्व की कमजोरी या मजबूरी के कारण उन्हें अपने ही देश में निर्वासित होकर आना पड़ा। अन्य किसी भी गलत मार्ग का अवलंब न करते हुए अपनी मेहनत से धीरे-धीरे तिनका-तिनका जुटाकर उन्होंने यहां अपना कारोबार खड़ा किया और देश की समृद्धि में अपना योगदान दिया।सिंध या पंजाब से आए ऐसे अनेक लोगों ने कष्ट सहते हुए पूरे देश के भंडार समृद्ध किए हैं। उन्होंने अनेक शैक्षिक और व्यावसायिक संस्थान-प्रतिष्ठान खड़े किए हैं, जिनका लाभ समाज के सभी वर्ग ले रहे हैं। जिस स्थान से हम आए उस स्थान का स्मरण करना या रखना नई पीढ़ी का दायित्व बनता है, ताकि आगे योग्य समय एवं सामर्थ्य आने पर फिर से वहां वापस जा सकें।

'कराची’ नाम रखना गलत बात नहीं  

भारत में 14 अगस्त के दिन ‘अखंड भारत स्मृति दिवस’ मनाया जाता है। इस दिन लोगों को भारत विभाजन की दर्दभरी कहानी बताई जाती है और फिर से भारत अखंड बनाने के संकल्प को दोहराया जाता है। शायद यह बात वह शिवसैनिक नहीं जानता हो। योगी अरविंद ने भारत विभाजन के समय ही कहा था कि यह विभाजन कृत्रिम है और कृत्रिम बातें स्थायी नहीं रहती हैं। एक न एक दिन भारत फिर से अखंड होगा। हम कराची से आए हैं या हमें मजबूरी में आना पड़ा है और हम फिर वापस कराची जाएंगे ऐसा संकल्प रखना कोई गुनाह नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को भी यह संकल्प याद रहे इसलिए ‘कराची’ नाम रखना गलत बात नहीं। इजरायल के लोग 1800 वर्षों तक अपनी भूमि से दूर थे। प्रतिवर्ष नए साल के दिन फिर से यरुशलम जाने का संकल्प वे 1800 वर्षों तक दोहराते रहे और आज इजरायल विश्व का एक शक्तिसंपन्न देश है।

संपूर्ण भारत में एक राजा का राज्य नहीं था, फिर भी भारत एक था

अखंड भारत की बात सुनते ही कुछ लोगों की भृकुटियां तन जाती हैं। यह राजकीय विस्तारवाद की बात नहीं है उन्हें इसे समझना होगा। अंग्रेजों के एकछत्र शासन में आने से पहले संपूर्ण भारत में एक राजा का राज्य नहीं था, फिर भी भारत एक था। वास्तव में भारत एक भू-सांस्कृतिक इकाई है। यह सदियों से रही है। हम सबको जोड़ने वाली जीवन की अध्यात्म आधारित एकात्म और सर्वांगीण दृष्टि से भारत की एक विशिष्ट पहचान और व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। भारत की इस पहचान या व्यक्तित्व को ही दुनिया हिंदुत्व’ के रूप में जानती है। अपने शोधपरक ग्रंथ ‘वर्ल्ड हिस्ट्री ऑफ इकोनॉमिक्स’ में प्रख्यात ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन ने दावा किया है कि ईसा की पहली शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी सर्वाधिक (33 प्रतिशत) थी। वह इसी भू-सांस्कृतिक इकाई भारत की बात थी।

राजा अलग थे, लोग अलग-अलग भाषा बोलते थे फिर भी भारत का व्यवहार एक समान स्वागत का था

दूसरी शताब्दी में यहूदी, छठी शताब्दी में पारसी और आठवीं शताब्दी में सीरियन ईसाई भारत के अलग-अलग भूभाग में आश्रय के लिए आए। वहां के राजा अलग थे, लोग अलग-अलग भाषा बोलते थे, अलग-अलग उपासना करते थे, फिर भी उन लोगों के साथ भारत का व्यवहार एक समान स्वागत, सम्मान और स्वीकार का था। कारण भारत भू-सांस्कृतिक दृष्टि से एक था। इसलिए भारतीयों के श्रद्धा स्थल इस संपूर्ण भू-सांस्कृतिक इकाई में व्याप्त हैं। हिंगलाज देवी का मंदिर, ननकाना साहिब गुरुद्वारा आज के पाकिस्तान में, ढाकेश्वरी देवी का मंदिर आज के बांग्लादेश में, पशुपतिनाथ का मंदिर, सीता माता का जन्मस्थान जनकपुरी आज के नेपाल में हैं। रामायण संबंधित कितने सारे स्थान आज के श्रीलंका में हैं। ब्रह्मदेश (म्यांमार), श्रीलंका, तिब्बत, भूटान अदि देशों में रहने वाले बौद्ध-मतावलंबियों के श्रद्धा स्थान भारत में हैं। कैलास-मानसरोवर की यात्रा भारतीय वर्षों से करते आए हैं। इस सब स्थानों की तीर्थ यात्रा इस भू-सांस्कृतिक इकाई में रहने वाले लोग वर्षों से श्रद्धापूर्वक करते आए हैं।

भू-सांस्कृतिक एकता का दर्शन भारतीय परिवारों में बच्चों के नामकरण में भी होता है

इतना ही नहीं इस भू-सांस्कृतिक एकता का दर्शन भारतीय परिवारों में बच्चों के नामकरण में भी होता है। कर्नाटक का एक परिवार गुजरात में रहता था। उनकी दो पुत्रियों के नाम सिंधु और सरयू थे। सरयू नदी कर्नाटक में नहीं है और सिंधु नदी तो आज के भारत में भी नहीं है। पाकिस्तान में बहती है। कर्णावती में इसरो में कार्यरत उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के एक विज्ञानी की पुत्री का नाम कावेरी था। गुजरात के भावनगर के एक परिवार की बेटी का नाम झेलम है और विदर्भ के एक परिवार में एक बेटी का नाम रावी रखा गया है। ये सब बातें इतनी सहजता से और आनंद से होती आई हैं इसके पीछे का विचार यही भू-सांस्कृतिक एकता की भावना ही है।

भारत की भू-सांस्कृतिक इकाई का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए

जाहिर है भारत की भू-सांस्कृतिक इकाई का इतिहास तो हजारों वर्षों पुराना, आर्थिक समृद्धि का, सांस्कृतिक संपन्नता का, मानव जीवन के लिए दीपस्तंभ के समान दिशा दर्शक रहा है। इस वृहत-भारत का वही स्थान फिर से प्राप्त करना है तो भारत की इस भू-सांस्कृतिक इकाई का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए। स्थानों के और व्यक्तियों के नाम के द्वारा ही सही उसकी स्मृति संजोए रखना आवश्यक है। क्षुद्र मानसिकता, इतिहास बोध का अभाव और सत्ता के कारण उपजी हेकड़ी, इन सब बातों का कड़े शब्दों में निषेध और विरोध करते हुए हर उपाय करते हुए इस भू-सांस्कृतिक एकता का स्मरण, गौरव और फिर से वह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने का संकल्प बार-बार दोहराना आवश्यक है।

( लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं )