ज्ञानेंद्र रावत। आज हिमालय का समूचा क्षेत्र संकट में है। इसका प्रमुख कारण इस पूरे क्षेत्र में विकास के नाम पर अंधाधुंध बन रहे अनगिनत बांध और पर्यटन के नाम पर हिमालय को चीर कर बनाई जा रही सड़कें हैं। दुख इस बात का है कि हमारे नीति-नियंता आंख बंद कर इस क्षेत्र में पनबिजली और सड़क परियोजनाओं को ही विकास का असली प्रतीक मानकर उनको स्वीकृति प्रदान करते रहे हैं, बिना यह जाने-समझे कि इससे हिमालय को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा। पनबिजली परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण के लिए किए जाने वाले विस्फोटों के परिणामस्वरूप पहाड़ तो खंड-खंड हो ही रहे हैं, वहां रहने वालों के घर भी तबाह हो रहे हैं।

विडंबना यह है कि यह सब उस स्थिति में हो रहा है, जबकि दुनिया के कई विज्ञानियों ने इस बात को साबित कर दिया है कि बांध पर्यावरण के लिए भीषण खतरा हैं और दुनिया के दूसरे देश अपने यहां से धीरे-धीरे बांधों को कम करते जा रहे हैं। हालांकि इसके लिए किसी एक सरकार को दोष देना सही नहीं होगा। वह चाहे संप्रग सरकार रही हो या फिर राजग, दोनों में कोई फर्क नहीं है। विडंबना यह है कि हमारी सरकारें यह कदापि नहीं सोचतीं-विचारतीं कि हिमालय पूरे देश का दायित्व है। वह देश का भाल है, गौरव है, स्वाभिमान है, प्राण है। जीवन के सारे आधार यथा-जल, वायु, मृदा हिमालय की देन हैं। देश की तकरीबन 65 फीसद आबादी का आधार हिमालय ही है। यदि उसी हिमालय की पारिस्थितिकी प्रभावित होगी, तो हमारा देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

पर्यावरणविद् मानते हैं कि हिमालय की सुरक्षा के लिए सरकार को इस क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन को बचाना होगा। इसके उसे लिए पर्वतीय क्षेत्र के विकास के अपने मौजूदा मॉडल को बदलना होगा। उसे बांधों के विस्तार की नीति बदलनी होगी। साथ ही पर्यटन के नाम पर सड़कों के लिए पहाड़ों के विनाश को भी रोकना होगा। बांधों से नदियां सूखती हैं। यदि एक बार नदियां सूखने लगती हैं, तो फिर वे हमेशा के लिए खत्म हो जाती हैं। इसके पारिस्थितिकीय खतरे भी खतरनाक होते हैं। पहाड़, जो हमारी हरित संपदा में अहम भूमिका निभाते हैं, नहीं होंगे तो हमारा वर्षा चक्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। परिणामस्वरूप मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा। हिमालय को प्रदूषण से बचाना भी आज की सबसे बड़ी चुनौती है। इस क्षेत्र में काम करने की महती आवश्यकता है।

हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियों और वनों को यदि समय रहते नहीं बचाया गया, तो इसका दुष्प्रभाव पूरे देश पर पड़े बिना नहीं रहेगा। यदि हिमालय बचेगा, तभी नदियां बचेंगी और तभी इस क्षेत्र में रहनेवाली आबादी का जीवन भी सुरक्षित रह पाएगा। बीते वर्षो में तापमान और जलवायु में बदलाव के चलते हिमालय के एक से दो वर्ग किलोमीटर के छोटे आकार के हिमनदों में तेजी से बदलाव आया है। इसलिए सतत और समावेशी विकास नीति बनाए बिना हिमालय और ग्लेशियरों को बचाना मुश्किल हो जाएगा।

देखा जाए तो हिमालय से निकली नदियों की हमारे देश में हरित और श्वेत क्रांति में भी बड़ी भूमिका रही है। इन्हीं नदियों पर बने बांध देश की ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूíत में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, लेकिन विडंबना है कि उसी हिमालय क्षेत्र के करीब 40 से 50 फीसद गांव आज भी अंधेरे में रहने को विवश हैं। यही नहीं, देश के लगभग 60-65 फीसद लोगों की प्यास बुझाने वाला हिमालय अपने ही लोगों की प्यास बुझाने में असमर्थ है। समूचे हिमालयी क्षेत्र में पीने के पानी की समस्या है। वहां खेती तक मानसून पर निर्भर है। जो हिमालय पूरे देश को प्राणवायु प्रदान करता है, उसके हिस्से में वह मात्र तीन फीसद ही आती है।

गौरतलब है कि सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र होने के चलते पर्यावरण से की गई छेड़छाड़ का सीधा असर सबसे पहले यहीं पर होता है। भूकंप और बाढ़ आदि आपदाएं इसका प्रमाण हैं। ऐसा लगता है कि ये आपदाएं हिमालयी क्षेत्र की नियति बन चुकी हैं। हिमालय का पूरा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील है। दरअसल यह पूरा हिमालयी क्षेत्र भारतीय और यूरेशियन प्लेटों की टकराहट वाले भूगर्भीय क्षेत्र में आता है, जिसके चलते इस क्षेत्र में अक्सर भूकंप आते ही रहते हैं, जो विनाश का कारण बनते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता प्रतिष्ठान हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को समझे और ऐसे विकास को तरजीह दे, जिससे पर्यावरण की बुनियाद मजबूत हो, तभी बदलाव की कुछ उम्मीद की जा सकती है।

[अध्यक्ष, राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति]