राजीव सचान : बीते दिनों ‘विधि विरुद्ध पंथ परिवर्तन प्रतिषेध कानून’ के तहत मोहम्मद अफजाल नामक युवक को पांच साल की सजा सुनाने के साथ 40 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया। अमरोहा, उत्तर प्रदेश के अफजाल ने छद्म नाम अरमान कोहली से हिंदू समुदाय की एक किशोरी को अपने प्रेमजाल में फंसाने के बाद उसका जबरन मतांतरण करने की कोशिश की थी। पिछले साल वह इस किशोरी को छल-बल से दिल्ली ले गया। वहां किशोरी को पता चला कि वह जिसे अरमान समझ रही, वह अफजाल है। वह उसे इस्लाम कुबूलने और निकाह करने के लिए धमकाने लगा। पुलिस ने दो दिनों बाद उसे दिल्ली के उस्मानपुर इलाके से बरामद करने के साथ अफजाल को गिरफ्तार कर लिया। अफजाल की सजा इसलिए चर्चा में है, क्योंकि इसे लव जिहाद मामले में पहली सजा कहा जा रहा है।

लव जिहाद शब्द सबसे पहले केरल में सुनाई दिया था। धीरे-धीरे यह देश भर में प्रचलित हो गया, क्योंकि अफजाल जैसे मामले सामने आते ही रहते हैं। इस पर बहस हो सकती है कि ऐसे मामलों को लव जिहाद कहा जाना चाहिए या नहीं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी पहचान छिपाकर दूसरे समुदाय की लड़कियों से प्रेम और विवाह करने का सिलसिला कायम है। हर सप्ताह देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी खबर आती है कि किसी अहमद ने अशोक या किसी शादाब ने सुनील बनकर किसी अन्य समुदाय की लड़की को अपने प्रेमजाल में फंसाया। अधिकांश मामलों में लड़कियों को शादी के बाद ही पता चलता है कि जिसे वे अशोक या सुनील समझ रही थीं, वे वास्तव में अहमद या शादाब थे।

ऐसी तमाम लड़कियों को जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश किया जाता है। जो इन्कार करती हैं, उनकी या तो जान पर बन आती है या फिर उनकी जान ही ले ली जाती है। छल-छद्म से अन्य समुदाय की लड़कियों से दोस्ती, प्रेम और विवाह करने के अनगिनत मामलों के बाद भी कथित लिबरल-सेक्युलर तबका और अंग्रेजी मीडिया का अधिकांश हिस्सा लव जिहाद जैसी किसी समस्या को कुछ सांप्रदायिक लोगों का शिगूफा करार देता है। यह शुतुरमुर्गी रवैये का सटीक उदाहरण है। यह तबका ऐसी ही शुतुरमुर्गी मानसिकता का परिचय छल-कपट और लोभ-लालच से कराए जा रहे मतांतरण के मामलों में भी देता है और आम तौर पर उन सबको धिक्कारता है, जो ऐसे मतांतरण के खिलाफ आवाज उठाते हैं।

यह तब है, जब छल-कपट या प्रलोभन का सहारा लेकर निर्धन तबकों और विशेष रूप से दलितों और जनजातियों के मतांतरण का सिलसिला स्वतंत्रता के पूर्व से ही कायम है। गांधी जी ने ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की निंदा की थी, फिर भी उन पर अंकुश नहीं लगाया जा सका। इसका नतीजा यह हुआ कि ईसाई मिशनरियों ने पूर्वोत्तर और विशेष रूप से मिजोरम, नगालैंड, मेघालय आदि की जनजातियों को मतांतरित कर इन राज्यों के धार्मिक चरित्र को बदल कर रख दिया। इसके बाद उन्होंने अविभाजित बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र के साथ ओडिशा जैसे उन राज्यों का रुख किया, जहां जनजातियों की अच्छी-खासी संख्या है। इन राज्यों में एक बड़ी संख्या में जनजाति समुदाय के लोग ईसाई मिशनरियों के छल-कपट के चलते ईसा मसीह की शरण में जा चुके हैं।

ईसाई मिशनरियां सारे देश में फैल गई हैं और हर कहीं सक्रिय हैं। उनका साथ कुछ अन्य ईसाई संस्थाएं दे रही हैं। एक अर्से से वे पंजाब, तमिलनाडु में भी बड़े पैमाने पर मतांतरण करा रही हैं। लोगों को धोखा या लालच देकर अथवा उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर ईसाई बनाया जा रहा है। देश के जिन हिस्सों में लोगों ने चर्च नहीं देखा था, वहां वे तेजी से बन रहे रहे हैं। देश में जिस गति से मतांतरण हो रहा है, उसे राष्ट्रांतरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

मतांतरण किस तरह राष्ट्रांतरण का पर्याय बन गया है, इसे उन जार्ज पोन्नैया के बयान से समझा जा सकता है, जिनसे भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने मुलाकात की थी। इस मुलाकात में उन्होंने कहा था कि ईसा मसीह ही असली ईश्वर हैं, न कि शक्ति आदि। इसके पहले पोन्नैया यह कह चुके हैं कि ‘भारत माता एक बीमारी है’ और इसीलिए हम चप्पल पहनते हैं। वह यह भी कह चुके हैं, ‘कन्याकुमारी में हम शीघ्र ही 70 प्रतिशत हो जाएंगे। हिंदू भाई इसे एक चेतावनी के तौर पर लें।’ जिहादी किस्म के इस पादरी को मद्रास उच्च न्यायालय ने भी फटकार लगाई थी।

तमिलनाडु से छल-बल या प्रलोभन के जरिये मतांतरण के मामले सामने आते ही रहते हैं। बीते सप्ताह ही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी एनसीपीसीआर ने तमिलनाडु के मुख्य सचिव को उस मामले में स्पष्टीकरण देने के लिए तलब किया, जिसमें एक संस्था में गरीब तबके की छात्राओं के जबरन मतांतरण प्रकरण की रिपोर्ट समय पर नहीं पेश की गई। एनसीपीसीआर ने तमिलनाडु के बाल संरक्षण अधिकार आयोग की छानबीन के आधार पर ही इस मामले में स्टालिन सरकार से जवाब मांगा था। उसने पहले तो जवाब देने में देरी की, फिर राज्य बाल संरक्षण अधिकार आयोग की रपट को खारिज कर दिया। पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि इसी साल जब लावण्या नामक एक छात्रा ने जबरन ईसाई बनाने के लिए बनाए जा रहे दबाव से त्रस्त होकर आत्महत्या कर ली थी, तो स्टालिन सरकार ने हरसंभव तरीके से लीपापोती करने की कोशिश की थी। इसी कारण मद्रास हाई कोर्ट ने मामले की जांच सीबीआइ को सौंपने का निर्णय दिया था। इससे बुरा और क्या हो सकता है कि राष्ट्रघाती समस्याओं पर सरकारें ही ऐसा रवैया अपनाएं?

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)