[ संजय गुप्त ]: चार राज्यों के विधानसभा और उसके ठीक बाद लोकसभा चुनाव से पहले देश के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह जातिवादी राजनीति की आग सुलग उठी है वह चिंताजनक भी है और भारतीय राजनीति के स्याह पक्ष को रेखांकित करने वाली भी। इस जातिवादी राजनीति से उत्तर भारत के कई राज्य झुलस रहे हैं। इन दिनों आरक्षण की आड़ में तो जातिवादी राजनीति हो ही रही है, एससी-एसटी एक्ट के बहाने भी हो रही है। अपने देश में जब भी चुनाव आते हैं तो जाति-पंथ से जुड़े मुद्दे किसी न किसी बहाने सतह पर आ ही जाते हैं। इन मुद्दों के जरिये ध्रुवीकरण की राजनीति की जाने लगती है। जब ऐसा होता है तो विकास के सवाल अपने आप पीछे छूट जाते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अभी हाल में एससी-एसटी एक्ट के विरोध में सड़कों पर उतरे सवर्ण समाज के विभिन्न संगठनों ने आरक्षण को लेकर भी विरोध जताया।

एससी-एसटी एक्ट के विरोध में सड़कों पर उतरे लोग भले ही अलग-अलग संगठनों से जुड़े हों, लेकिन यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि उन्हें पर्दे के पीछे से राजनीतिक शह इसलिए दी जा रही थी ताकि भाजपा के समक्ष मुश्किलें खड़ी की जा सकें। अभी तक अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़े वर्ग के लोग ही जातीय हित के सवाल को लेकर धरना-प्रदर्शन किया करते थे, लेकिन अब इसी रास्ते पर सवर्ण वर्ग भी चलता दिख रहा है। इस वर्ग के लोग विभिन्न राज्यों में जिस तरह सड़कों पर उतरे उससे तमाम राजनीतिक दल अपनी रणनीति बदलने के लिए विवश हो सकते हैैं।

एक समय भाजपा पर यह आरोप लगता था कि वह अगड़ी जातियों की पार्टी है, लेकिन आज वह दलित समाज की चिंता करने को लेकर कठघरे में खड़ी की जा रही है। इसका कारण यह है कि केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय की ओर से एससी-एसटी एक्ट में किए गए आंशिक बदलाव को सही न मानते हुए उसके पुराने स्वरूप को बहाल करने का काम किया। एक तरह से मोदी सरकार को ऐसा करने के लिए विवश किया गया, क्योंकि विपक्ष ने यह शोर मचा दिया था कि उच्चतम न्यायालय ने एससी-एसटी एक्ट को बहुत कमजोर कर दिया है और इससे दलितों का उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं हो सकेगी।

यह माहौल संकीर्ण राजनीतिक इरादे से बनाया गया। इससे बचा जाना चाहिए था, क्योंकि उच्चतम न्यायलय ने केवल यह आदेश दिया था कि एससी-एसटी एक्ट के तहत आरोपितों की गिरफ्तारी सक्षम पुलिस अधिकारी की जांच के बाद ही होगी। हालांकि यह फैसला न्यायालय का था, लेकिन विरोधी दलों ने ऐसी तस्वीर पेश की जैसे यह सब मोदी सरकार ने किया हो। चूंकि इस मामले में गलत तस्वीर पेश की गई इसलिए दलित समाज उद्वेलित हो उठा। इसका लाभ उठाकर भाजपा विरोधी अभियान छेड़ दिया गया। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आयोजित भारत बंद के दौरान जमकर हिंसा हुई, जिसमें कई लोगों की जान गई। हालांकि उस दौरान यह साफ था कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं और वह उसके खिलाफ अपील दायर करेगी, लेकिन बावजूद इसके विरोधी दल एससी-एसटी एक्ट को लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे।

अपने वायदे के अनुसार केंद्र सरकार ने संशोधन विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में बहाल कर दिया। इसके विरोध में ही सवर्ण समाज के कुछ संगठनों ने बंद का आयोजन किया। उनका विरोध इसी बात को लेकर था कि इस एक्ट को पुराने स्वरूप में क्यों बहाल किया गया? यही सवाल अब एक याचिका की शक्ल में सुप्रीम कोर्ट के सामने है।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एससी-एसटी एक्ट ही नहीं, आरक्षण से जुड़े कई मसले भी हैैं। इन सब पर उसका फैसला कुछ भी हो, यह ध्यान रहे कि आजादी के बाद वंचित-शोषित तबके को मुख्यधारा में लाने के लिए जब आरक्षण की पहल हुई तब डॉ. भीमराव आंबेडकर के लिए इसका मतलब बैसाखी नहीं, सहारा था। वह इस मत के थे कि इसकी सतत समीक्षा होती रहे कि जिन्हें आरक्षण दिया जा रहा है उनकी स्थिति में सुधार हो रहा है या नहीं? वह आरक्षण व्यवस्था केवल दस वर्ष के लिए चाहते थे, लेकिन उसकी समयावधि लगातार बढ़ती गई। आज स्थिति है कि किसी भी राजनीतिक दल में यह साहस नहीं कि वह आरक्षण को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने की बात करना तो दूर रहा, उसकी समीक्षा करने अथवा उसे और अधिक न्यायसंगत बनाने की बात कर सके।

यह एक यथार्थ है कि सवर्ण समाज की तुलना में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग प्रगति की दौड़ में कहीं पीछे हैं। इन्हें मुख्यधारामें लाने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना शेष है, लेकिन इसके साथ ही इसकी भी आवश्यकता है कि जिन जातियों को आरक्षण का लाभ मिलता चला आ रहा और जिनकी आर्थिक स्थिति मेंसुधार आ चुका है उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए। ऐसी कई जातियां अन्य पिछड़ा वर्गों में भी हैैं और अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों में भी।

केंद्र सरकार सरकार ने ओबीसी आरक्षण के उप वर्गीकरण की संभावना का पता लगाने के लिए जिस आयोग का गठन किया है उसकी रपट जल्द ही आने वाली है। माना जा रहा है कि इस आयोग की रपट के बाद सरकार ओबीसी आरक्षण को तीन हिस्सों में वर्गीकृत करेगी और हर हिस्से में समान सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाली जातियां रखी जाएंगी। इससे उन जातियों को विशेष लाभ होगा जो आरक्षण के दायरे में होते हुए भी उसका अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रही हैैं। फिलहाल ओबीसी आरक्षण 27 प्रतिशत है। एससी-एसटी आरक्षण मिलाकर कुल आरक्षण सीमा 49.5 प्रतिशत हो जाती है, लेकिन तमिलनाडु और कुछ अन्य राज्यों में आरक्षण सीमा 69 प्रतिशत तक पहुंचा दी गई है। अन्य राज्य सरकारें भी आरक्षण सीमा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैैं। कई बार तो वे मनमाने ढंग से आरक्षण की मांग करने वाली जातियों को आरक्षण देने की घोषणा कर देती हैैं।

आमतौर पर आरक्षण देने के मनमाने फैसले न्यायपालिका की ओर से रद कर दिए जाते हैैं, फिर भी राज्य सरकारों की ओर से इस या उस जाति को आरक्षण देने का सिलसिला कायम है। आज जब विभिन्न समर्थ जातियों की ओर से आरक्षण मांगा जा रहा है तब इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि आर्थिक आधार पर भी आरक्षण की मांग तेज हो रही है। इसका कारण यह है कि देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सवर्ण जाति का होने के बावजूद विपन्न है। वह आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था से खिन्न है और उसमें कुंठा घर कर रही है। ऐसे में बेहतर होगा कि आर्थिक आधार पर भी आरक्षण देने की कोई व्यवस्था बनाई जाए। ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण इसलिए होना चाहिए ताकि देश की राजनीति जातिवाद के दलदल से बाहर निकल सके।

आज तो आरक्षण वोट बैैंक बनाने का हथियार बन गया है। राजनीतिक दलों को यह अहसास होना चाहिए कि मूल समस्या आर्थिक पिछड़ापन है। जब समाज का हर तबका आर्थिक रूप से सक्षम होगा तभी उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य समस्याओं का निपटारा हो सकेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]