[ विराग गुप्ता ]: एक के बाद एक फैसलों की भरमार से उच्चतम न्यायालय इन दिनों चर्चा का केंद्र बिंदु बना हुआ है। इन फैसलों का कितना पालन होगा और कितना असर होगा, इस पर फिलहाल तो कुछ नहीं कहा जा सकता। जब समाज द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि संसद के माध्यम से कानून बनाते हैं तो उनकी स्वीकार्यता के साथ अनुपालन की भी संभावना बढ़ जाती है। दूसरी ओर कोलेजियम प्रणाली से चयनित न्यायाधीशों द्वारा कानून की सीमाओं से परे जाकर दिए गए फैसले तमाम तरह की विसंगतियां पैदा कर सकते हैं। जैसे व्याभिचार को अपराध के दायरे से बाहर करने के फैसले पर यह अंदेशा जताया जा रहा है कि यह भारतीय परिवार व्यवस्था की जड़ों को हिला सकता है। वैसे ही समलैंगिकता संबंधी फैसले को लेकर भी असहमति प्रकट की जा रही है। समाज पर व्यापक असर डालने वाले मामलों में फैसले देने के बजाय कानून में बदलाव के लिए उन्हें संसद के पास भेजना एक बेहतर न्यायिक पहल हो सकती है। ध्यान रहे कि अभी हाल में दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खुद फैसला करने के बजाय इस मसले को संसद के हवाले करना बेहतर समझा। यही काम अन्य मामलों में क्यों नहीं किया जा सकता?

जनहित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों की मौखिक टिप्पणी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज और उनके द्वारा दिए गए फैसले देश का कानून बनते जा रहे हैं तो यह कोई आदर्श स्थिति नहीं। हाल के कुछ फैसलों के कारण भले ही सुप्रीम कोर्ट लगातार चर्चा में हो और वाहवाही भी बटोर रहा हो, लेकिन तथ्य यह है कि उसकी कार्यप्रणाली में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आ पा रहा है। समझना कठिन है कि किसी मामले की सुनवाई के बाद फैसला देने में देरी क्यों की जाती है? आधार मामले में लंबे समय तक सुनवाई करने के बाद 10 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया। करीब साढ़े चार महीने के बाद इस मामले में फैसला आया।

आखिर इतनी देर से फैसला देने का क्या आधार हो सकता है? 2001 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश केटी थॉमस द्वारा दी गई उस व्यवस्था का कुछ समय तक अनेक न्यायाधीशों ने अनुमोदन किया जिसके तहत सुनवाई के बाद तीन महीने की अधिकतम सीमा के भीतर लिखित फैसला जारी हो जाना चाहिए। पता नहीं यह परंपरा क्यों बंद हो गई? ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले में 13 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 1973 में संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधानों की व्याख्या हुई, जिसके लिए 700 पेज का फैसला जरूरी था, लेकिन बहुत सारे फैसले ऐसे होते हैं जिनमें लंबे फैसलों की कोई जरूरत नहीं होती। 2015 में न्यायिक आयोग मामले में करीब एक हजार पेज का फैसला दिया गया था। आधार संबंधी फैसला भी 1448 पेज का लंबा फैसला था। लंबे और भारी-भरकम फैसलों के बढ़ते चलन से न्यायाधीशों के प्रोफाइल में चार चांद भले ही लग जाएं, लेकिन इससे मूल मुद्दे के भटकने का खतरा बढ़ जाता है। मुख्य न्यायाधीशों के सालाना सम्मेलन में इस बात पर गौर होना चाहिए कि जरूरत से ज्यादा लंबे फैसले किसलिए?

इसी के साथ इस पर भी विचार होना चाहिए कि जनहित याचिकाओं को कितनी प्राथमिकता दी जाए? इस पर विचार इसलिए होना चाहिए, क्योंकि अब ऐसा लगने लगा है कि जनहित याचिकाओं पर ज्यादा ध्यान देने के कारण उच्चतम न्यायालय में लंबित दूसरे मामलों की सुनवाई में देर हो रही है। वकीलों का एक समूह जिस भी मसले को चाहता है, जनहित याचिका का रूप दे देता है। इसके चलते फालतू की याचिकाओं की संख्या बढ़ रही है।

सुप्रीम कोर्ट को यह आभास होना चाहिए कि वह सब कुछ ठीक नहीं कर सकता। जनहित याचिकाओं के जरिये तंत्र को ठीक करने का बीड़ा उठाए अदालतें खुद अपनी बदहाली से नावाकिफ दिखती हैं। ऊंची अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सरकार को दोषी ठहराया जाता है, परंतु निचली अदालतों में न्यायाधीशों के 5,500 रिक्त पदों के लिए उच्च न्यायालयों की जवाबदेही क्यों नहीं तय होती? उच्चतम न्यायालय में मामलों की जल्दी सुनवाई के लिए मुख्य न्यायाधीश के सामने मेंशनिंग करने का रिवाज है। इस बारे में लिखित नियम नहीं बनने से आपाधापी की स्थिति रहती है। पुराने मामलों को दरकिनार कर नए मामलो में जल्द सुनवाई आम जनता के साथ अन्याय है। इसके बावजूद इस बारे में पारदर्शी व्यवस्था नहीं अपनाया जाना निराशाजनक है। सरकार द्वारा जवाब दायर नहीं करने से हजारों मामलों में सुनवाई शुरू नहीं हो रही, परंतु इन सबका अदालतों में व्यवस्थित रिकॉर्ड ही नहीं है।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि ऐसे मामलों में लंबी सुनवाई क्यों की जाती है जिनके अंजाम का शुरू से ही पता होता है। इस्लाम में नमाज के लिए मस्जिद की अनिवार्यता का मसला ऐसा ही है। उच्चतम न्यायालय ने 1994 में फैसला दिया था कि नमाज के लिए मस्जिद अनिवार्य नहीं। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से जाहिर था कि अयोध्या विवाद जमीन की मिल्कियत का है तब इस मामले पर नए सिरे से विचार करने की याचिका सुनने का कोई औचित्य नहीं बनता था, लेकिन ऐसा किया गया। इससे तो यही लगा कि सुप्रीम कोर्ट वरिष्ठ वकीलों के दवाब में मामले को नया मोड़ देने की कोशिश का शिकार हो गया। यह तो पहली सुनवाई में ही पता चल जाना चाहिए था कि उक्त मामले का अयोध्या विवाद से कोई लेना-देना नहीं।

यह संतोष की बात है कि शहरी नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार लोगों को सुप्रीम कोर्ट ने राहत देने से इन्कार कर दिया, लेकिन सवाल यह है कि आखिर इस मामले को सुना ही क्यों गया? क्या इससे सुप्रीम कोर्ट ट्रायल कोर्ट की भूमिका में नहीं आ गया? क्या तीसरे पक्ष की याचिका के आधार पर उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई सुनवाई एक नई परंपरा नहीं? पुणे पुलिस के अभियुक्तों की नजरबंदी के लिए दिए गए फैसले से उच्चतम न्यायालय की प्रक्रिया से ट्रायल कोर्ट का आभास होना दुर्भाग्यपूर्ण है।

सबरीमाला मामले में एक पुरानी प्रथा को गलत ठहराने के फैसले के साथ ही पुनर्विचार याचिका दायर करने की मांग होने लगी है। मुख्य न्यायाधीश के रिटायर होने की वजह से यदि पुनर्विचार याचिका के लिए नई पीठ का गठन करना पड़े तो उसे न्यायिक प्रक्रिया के लिहाज से स्वस्थ कैसे माना जा सकता है? आखिर फैसलों को सुनाने के लिए रिटायरमेंट की तारीख का इंतजार क्यों होना चाहिए? संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय के आदेश देश का कानून माने जाते हैं, लेकिन दिल्ली में व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग के मामले में अदालती आदेशों की अवहेलना कोई शुभ संकेत नहीं। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने सिस्टम के सुधार के लिए साहसिक पहल करे।

[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैैं ]