[ अभिनव प्रकाश ]: माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपने घोषणापत्र में शराबबंदी का वादा कर सकती है। मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को मानना है कि इससे महिला वोटरों को लुभाने में आसानी होगी। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि बीते 2 अक्टूबर को बिहार में शराबबंदी का कानून लागू हुए दो साल हो गए। यहां शराबबंदी मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम के तहत लागू की गई। आजाद भारत के इतिहास में ऐसे किसी अन्य दमनकारी कानून की मिसाल नहीं मिलती।

आम तौर पर कानून की मुख्य भूमिका अपराध को नियंत्रित करने की होती है, लेकिन बिहार में कलम के एक झटके से लाखों लोगों को रातों-रात अपराधी बना दिया गया। इस कानून के कुछ मूल प्रावधानों पर एक नजर डालने से ही यह साफ हो जाता है कि यह कानून संविधान की भावना के खिलाफ और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का आपराधिक उल्लंघन करने वाला है।

इस कानून के मूल प्रावधानों के तहत शराब बेचने, खरीदने या सेवन करने के आरोप में गैर-जमानती गिरफ्तारी, एक लाख रुपये का जुर्माना और दस साल के कारावास का प्रावधान था। इसी के साथ यह भी प्रावधान था कि जिस गाड़ी, घर या बिल्डिंग में शराब की एक भी बोतल पाई जाएगी उसे जब्त कर लिया जाएगा। शायद यह भी काफी नहीं था और इसीलिए यह प्रावधान किया गया था कि जिस घर में शराब पाई जाएगी उस घर के सभी बालिग सदस्यों को जेल भेज दिया जाएगा, चाहे वे महिला हों या पुरुष। अगर सभी प्रावधानों को साथ पढ़ें तो प्रशासन चाहे तो किसी भी परिवार के बालिग सदस्यों को जेल भेज सकता है, घर-जमीन जब्त कर सकता है और बच्चों तक को ‘तस्करी’ में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर सकता है, क्योंकि इस कानून के तहत खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी संबंधित व्यक्ति की है, न कि पुलिस और प्रशासन की। किसी कानून के जरिये ऐसी दमनकारी शक्ति तो शायद आपातकाल में भी नहीं हासिल की गई थी।

आखिर ऐसी दमनकारी व्यवस्था बनाई किसके लिए गई? इसका तब जवाब मिल जाता है जब हम यह देखते हैैं कि इस कानून के तहत अभी तक गिरफ्तार 1.6 लाख लोगों में करीब 90 फीसद लोग दलित या अति-पिछड़े वर्ग से आते हैैं। हजारों गरीबों, विधवा महिलाओं, बच्चों को हत्या, दुष्कर्म जैसे अपराधियों के साथ जेल में ठूंस दिया गया। किसी भी कानून की वास्तविक मंशा उसके नतीजों से ही साबित होती है।

कई मायनों में यह अंग्रेजी हुकूमत के आपराधिक जाति और जनजाति अधिनियम, 1871 का आधुनिक संस्करण सरीखा दिखता है। उस समय तत्कालीन सरकार ने ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करने वाली दलित और पिछड़ी जातियों को आपराधिक जाति घोषित कर बर्बाद कर दिया था। उस दौरान ब्रिटिश शासन ने अपने वफादारों को जमींदारी और नौकरियों से नवाजा था। बिहार में इसे नशा मुक्ति के उद्देश्य का चोला पहनाकर विधायकों और अन्य पार्टियों को नैतिकता के नाम पर समर्थन करने पर मजबूर किया गया, जबकि सबको यह मालूम था कि दुनिया में कभी भी, कहीं भी शराबबंदी सफल नहीं हुई है। यह सिर्फ कालाबाजारी, जहरीली शराब और अन्य आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा देती है।

अगर सरकार समाज में मदिरा और नशे को कम करने को लेकर गंभीर होती तो इस तरह बिजली गिराने के बजाय व्यसन-मुक्ति और पुनर्वास की दीर्घकालीन नीतियों को लागू करती। इस कानून के तहत सबसे पहले सजा पाने वालों में सेअति-पिछड़ी जाति से आने वाली एक विधवा थी जो महुआ तैयार कर एक कमरे के कच्चे मकान में अपने परिवार को पालती थी। उसे तो शायद इस कानून का पता भी न होगा, लेकिन एक दिन उसे एक लाख रुपये के जुर्माने सहित दस साल की जेल सुना दी गई। कोई भी गंभीर और संवेदनशील सरकार उसे जीवनयापन के अन्य साधन की ओर ले जाने का प्रयास करती न कि जिसके पास खाने को नहीं उससे एक लाख रुपये की वसूली करती, लेकिन इस कानून के तहत बिहार में यह अंधेरराज चल रहा है। जो अमीर और साधन संपन्न वर्ग से आते हैं, अपवाद छोड़कर उनका कुछ नहीं बिगड़ रहा। पिस रहा है तो वह जो न समर्थ है और जो न किसी प्रभुत्वशाली जाति-वर्ग से आता है ताकि किसी को फोन घुमाकर बच निकले।

जो गिरफ्तार हो रहे हैैं उन्होंने कौनसा अपराध किया है? आखिर सुरापान कब से अपराध हो गया और किसके कहे अनुसार? संविधान सभा में जयपाल सिंह एकमात्र आदिवासी सदस्य थे। उन्होंने शराबबंदी का यह कहते हुए विरोध किया था कि गांधीवादी, समाजवादी या फिर सरकार कौन होती है भारत की तमाम जातियों-जनजातियों पर अपनी नैतिकता थोपने वाली? शराब भारत के बहुत से इलाकों और समुदायों की संस्कृति और रीति-रिवाजों का हिस्सा है। आखिर इसके सेवन को आपराधिक कैसे घोषित किया जा सकता हैं? क्या वे दोयम-दर्जे के नागरिक हैं जिन पर बिहार सरकार ने अपनी नैतिकता की परिभाषा थोप दी है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

बिहार सरकार शराब की बिक्री को निरुत्साहित कर सकती है, लाइसेंस कम कर सकती है, टैक्स बढ़ा सकती हैं, लेकिन गिरफ्तार करना, जुर्माना लगाना तो मूलभूत अधिकारों का मखौल और न्याय की अवमानना है। शराबबंदी से अपराधों में कमी तो नहीं आई है, परंतु बिहार की जेलें जरूर खचाखच भर गई हैं। दुनिया में सबसे कम अपराध दरों वाले देशों में तो शराब की प्रति-व्यक्ति खपत भारत से कई गुना अधिक है और शराबबंदी वाले बिहार में सड़कों पर हत्या कर अपराधी एके 47 लहराते हुए निकल जा रहे हैं और पुलिस-प्रशासन इसमें लगा है कि कहीं कोई थोड़ी से शराब न पी ले।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में लोक-नीति पर चर्चा का स्तर इतना कमतर है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी और यहां तक कि विपक्ष भी शराबबंदी कानून का खुलकर विरोध नहीं कर रहा है। वह कुछ समय पहले इस कानून को नरम किए जाने के बहाने शांत है। इससे भी हैरानी की बात यह है कि आदिवासी आबादी वाले मध्य प्रदेश में बिहार की ही तर्ज पर शराबबंदी लागू करने की बातें हो रही हैैं। अगर शराबबंदी के मनमानी कानूनों के जरिये ऐसा ही दमन चलता रहा तो उसमें और आपातकाल के नसबंदी-कानून में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। दोनों ने जनता के अस्तित्व को ही अपराध बनाया। नतीजे भी अलग होंगे, ऐसा सोचना बेमानी है।

[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैैं ]