[ संदीप घोष ]: अगले लोकसभा चुनाव में अभी काफी समय शेष है, परंतु भाजपा विरोधी ताकतें एकजुट होना शुरू हो गई हैं। यह अनपेक्षित भी नहीं है। चूंकि कांग्र्रेस लगातार सिकुड़ती जा रही है तो यही सहमति बन रही है कि सभी विपक्षी दलों द्वारा मिल-जुलकर ही भाजपा को चुनौती दी जा सकती है। पिछले आम चुनाव से पहले भी ऐसी कवायदें हुई थीं, लेकिन कांग्रेस के कारण परवान नहीं चढ़ सकीं। दरअसल कर्नाटक और उसके बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी जीत का स्वाद चखने के बाद कांग्र्रेस को अपने दम पर सत्ता में वापसी की संभावनाएं दिखने लगीं और उसने भाजपा विरोधी एकजुटता से कन्नी काट ली। इस बार ऐसी एकजुटता में हैरानी की बात यही है कि यह चुनाव से करीब तीन साल पहले ही शुरू हो गई है। बंगाल में भाजपा को लगे झटके ने विपक्ष को एक नई ऊर्जा दी है। इसी कड़ी में तृणमूल को राष्ट्रीय स्तर पर गुंजाइश दिखने लगी है। एक वर्ग द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर में मोदी सरकार ने अपनी भारी राजनीतिक पूंजी गंवा दी है और इस महामारी के कारण होने वाले आर्थिक आघात से सरकार को और नुकसान पहुंच सकता है।

नए कृषि कानूनों का विरोध

नए कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे अभियान से भी विपक्ष को बड़ी उम्मीद है, जिसकी आंच खरीफ सीजन के दौरान और तेज की जा सकती है। इससे भी बढ़कर उनकी उम्मीदें अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत विरोधी भावनाओं के उबाल पर टिकी हैं। विशेषकर अमेरिका में बाइडन प्रशासन के सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी उम्मीदों को नए पंख लगे हैं, जिसकी दृष्टि में मोदी सरकार की छवि दक्षिणपंर्थी ंहदू सरकार की है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को क्षति पहुंचा सकती है। इन पहलुओं को मिलाकर यही लगता है कि मोदी सरकार को उसके शेष कार्यकाल के दौरान रक्षात्मक रुख अपनाने पर मजबूर कर विपक्ष को नई संजीवनी दी जा सकती है।

भाजपा नहीं बौखलाई

यदि किसी को लगा हो कि भाजपा इस सबसे बौखला जाएगी तो उसने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया। सरकार कोरोना की दूसरी लहर के सबसे बदतर दौर से पार पा चुकी है। देश में अब तक 50 करोड़ से अधिक लोगों को टीका लग चुका है। राजनीतिक रूप से मोदी ने अपनी मंत्रिपरिषद में व्यापक स्तर पर फेरबदल किया। उन्होंने कई नए चेहरों को जगह दी। इससे शासन-प्रशासन में नई ताजगी आई। बदलाव की बयार स्पष्ट दिख रही है। विशेषकर स्वास्थ्य जैसे महकमे में, जिस पर तात्कालिक रूप से ध्यान केंद्रित करने की जरूरत थी। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों को लेकर निर्णायक फैसले किए गए, जहां चुनाव दस्तक देने वाले हैं। जम्मू-कश्मीर से जुड़ी सर्वदलीय बैठक भी एक बड़ी पहल रही। मानसून सत्र को बाधित करने की विपक्षी कोशिशों से बेपरवाह सरकार अपने महत्वपूर्ण विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी है। पेगासस जासूसी मामले पर हंगामे से सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा।

विदेश नीति में ठोस कदम

अफगानिस्तान से लेकर चीन के मोर्चे पर विदेश नीति में ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के हालिया दौरे और लद्दाख सीमा पर चीनी सेना के पीछे हटने से यह प्रत्यक्ष दिखा। जुलाई में अर्थव्यवस्था ने भी दूसरी लहर से उबरने के शुरुआती संकेत दिए। वहीं र्ओंलपिक में भारत के बढ़िया प्रदर्शन ने भी देश का मिजाज बेहतर बना दिया है। कुल मिलाकर मोदी सरकार ने सब कुछ नियंत्रण में होने का ही आभास कराया है।

विपक्ष को मिला अवसर गवां दिया

विपक्ष ने उत्साह तो खूब दिखाया, लेकिन उसमें गंभीरता एवं गहराई का अभाव और शोर-शराबा अधिक रहा। उसने मानसून सत्र में मिला अवसर भी गंवा दिया। सार्थक मुद्दों पर बहस के जरिये सरकार को घेरने के बजाय वह सदन के भीतर और बाहर हंगामे में लगा रहा। इससे कोई हित पूरा न हुआ। विपक्ष की अगंभीर और नकारात्मक छवि से सरकार को ही लाभ पहुंचा।

विपक्षी नेताओं का जमावड़ा

भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प को आकार देने के लिए नई दिल्ली में शरद पवार के आवास पर विपक्षी नेताओं का जमावड़ा हुआ। इसके बाद ममता बनर्जी ने भी एक हाई-प्रोफाइल बैठक की, जिसमें विपक्ष के कई नेता शामिल हुए। चूंकि कांग्र्रेस इस सबसे बहुत असहज थी और वह नहीं चाहती थी कि किसी को पहली चाल चलने का फायदा मिले, इसलिए उसने जल्दबाजी में एक चाय पार्टी का आयोजन किया, ताकि भाजपा विरोधी ध्रुव में अपनी स्थिति मजबूत कर सके। निचली पांत के उसके कई नेता यह कहते दिखे कि कांग्र्रेस की केंद्रीय भूमिका के बिना विपक्षी एकता का कोई प्रयास फलीभूत नहीं हो सकता। ऐसे आयोजन में बसपा जैसे दलों की अनुपस्थिति से कुछ संदेह उपजे। वहीं इसमें शामिल हुई सपा फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोल रही। इस प्रकार देखा जाए तो मंच सजने से पहले ही विरोधाभास सतह पर उभरने लगे हैं। फिलहाल विपक्षी एकता के भविष्य की धुरी प्रशांत किशोर पर टिकी है, लेकिन कोई चुनावी सलाहकार किसी करिश्माई और विजनरी नेता का विकल्प नहीं बन सकता। वैसे भी वह कोई जयप्रकाश नारायण या लोहिया तो हैं नहीं।

भाजपा चुनौती को हल्के में नहीं लेती

ऐसे में क्या भाजपा को आत्मसंतुष्ट हो जाना चाहिए? मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा किसी भी चुनौती को हल्के में नहीं लेती। वे जानते हैं कि उत्तर प्रदेश का रण बहुत टेढ़ी खीर है और कई लोग इसे अगले आम चुनाव का सेमीफाइनल भी बता रहे हैं। वे विपक्ष के बीच भ्रम की इस स्थिति के दौरान अपनी जीत सुनिश्चित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। प्रधानमंत्री मोदी के पिछले वाराणसी दौरे में इसका बिगुल पहले ही बज चुका है। आने वाले दौर में पूर्वांचल एक्सप्रेस जैसी बड़ी परियोजनाओं से इस अभियान को और गति मिलेगी। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मिले घाव भी अब भरने लगे हैं। ऐसे में अगर कोई अप्रत्याशित त्रासदी न घटित हो तो कुछ फिसली सियासी जमीन 2022 से पहले फिर वापिस हासिल हो सकती है।

यूपी में महागठबंधन के आसार कम

उत्तर प्रदेश में किसी महागठबंधन होने के आसार कम हैं। बसपा और सपा दोनों कांग्र्रेस को बहुत ज्यादा भाव नहीं देंगी। प्रियंका वाड्रा को लेकर हो रहे अतिरेकपूर्ण दावों के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन फीका ही रहने का अनुमान है। बहरहाल विपक्षी खेमे में तृणमूल भले ही ‘खेला होबे’ की हुंकार भर रही हो, लेकिन वह शायद मोदी की उस प्रतिभा से परिचित नहीं जो खेल से पहले ही उसकी काया पलटने की कूवत रखते हैं। ऐसे में उन्हें कमतर आंकना भारी भूल होगी।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )