[बलबीर पुंज]। तमिलनाडु में तूतीकोरिन स्थित वेदांता समूह की स्टरलाइट के तांबा संयंत्र के विरोध में आंदोलन और पुलिस की कार्रवाई से कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने आवश्यक हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में निरपराध लोगों की मौत का वास्तविक जिम्मेदार कौन है? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा का कोई स्थान है? हिंसक भीड़ से निपटने के लिए पुलिस के पास क्या विकल्प बचते हैं? तूतीकोरिन में जो कुछ हुआ वह अत्यंत खेदजनक और कष्टदायी है। यह घटना प्रादेशिक खुफिया तंत्र की विफलता को ही दर्शाती है। यहां तीन माह से स्टरलाइट संयंत्र के विस्तार के खिलाफ चल रहा प्रदर्शन 22-23 मई को यकायक हिंसक हो गया। प्रशासनिक चेतावनी-दिशानिर्देशों की अवहेलना और भीड़ के हिंसक होने पर जवाबी कार्रवाई स्वरूप पुलिस की गोली से 13 लोग मारे गए, जबकि दर्जनों घायल हो गए। कुछ राजनीतिक दल पुलिस की कार्रवाई को राज्य प्रायोजित आतंकवाद तो कुछ उसकी तुलना जलियांवाला बाग नरसंहार से कर रहे है। वेदांता पर आरोप है कि उसके संयंत्र के कारण क्षेत्र में पानी प्रदूषित हो रहा है। इससे स्थानीय लोग बीमार हो रहे हैं और मछली उद्योग भी प्रभावित हो रहा है।

लोकतंत्र में अपनी मांगों की पूर्ति और समस्याओं के समाधान के लिए हिंसा पर उतर आना कहां तक उचित है? क्या इससे प्रजातंत्र कमजोर नहीं होता? गत वर्ष अगस्त में जब डेरा प्रमुख गुरमीत सिंह के विरुद्ध यौन शोषण मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत का निर्णय आया तब विरोध स्वरूप डेरा समर्थकों का उग्र रूप देश-विदेश की जनता ने देखा। इससे उपजी हिंसा में 38 लोग मारे गए। अधिकतर मौतें पुलिस की जवाबी कार्रवाई में हुईं। उस समय कई राजनीतिक-बौद्धिक चिंतकों सहित समाज के अधिकांश लोगों ने उपद्रवियों के आचरण और पुलिस की प्रारंभिक शिथिल कार्रवाई पर गंभीर सवाल उठाए। सीधे तौर पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल और उनकी सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया गया। आरोप लगाए गए कि जब तक स्थिति हाथ से निकल नहीं गई तब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई।

कहा गया कि सरकार को इतनी बड़ी संख्या में डेरा समर्थकों के जुटने पर रोक लगानी चाहिए थी। इसी प्रकार का दोषारोपण जाट आंदोलन और रामपाल समर्थकों के मामले में भी किया गया था। हरियाणा की इस पृष्ठभूमि में तमिलनाडु के तूतीकोरिन की घटना को देखें। क्या पुलिस के पास कोई दूसरा विकल्प शेष था? जब हरियाणा के मामलों में कानून तोड़ने और हिंसा करने वाले डेरा, रामपाल एवं जाट आंदोलन समर्थकों को कटघरे में खड़ा किया जाना उचित है तब तूतीकोरिन में हिंसा पर उतारू हुए प्रदर्शनकारियों का पक्ष लेने का क्या मतलब? यह दोहरा मापदंड क्यों? लोकतंत्र में कानून-व्यवस्था राज्य संबंधित विषय होता है। जब देश में सभी नागरिकों को अपनी बात रखने और मांगों को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन, धरना देने और हड़ताल के संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं तो उसके स्थान पर हिंसा को एकमात्र विकल्प बनाना, कानून अपने हाथों में लेना और दूसरों के जीवन को खतरे में डालना क्या अपराध नहीं माना जाएगा?

तूतीकोरिन हिंसा पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ईके पलानीसामी द्वारा गैर सरकारी संस्थाओं और असमाजिक तत्वों पर संदेह करने का एक बड़ा और स्वाभाविक कारण है। जब तमिलनाडु की वर्तमान अन्नाद्रमुक सरकार जनहित में और प्रदूषण नियंत्रण विभाग पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिए तूतीकोरिन स्टरलाइट संयंत्र के विरुद्ध कार्रवाई कर रही है और मामला शीर्ष अदालत में लंबित है तब प्रदर्शनकारियों के यकायक हिंसक होने का क्या औचित्य? क्या यह दुर्योग है कि जब दिल्ली स्थित आर्कबिशप अनिल कूटो सत्तारूढ़ भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के विरोध में ईसाई समाज को लामबंद करने की दिशा में कथित प्रार्थना करने का आह्वान कर रहे थे तब उसी कालावधि में तूतीकोरिन में चर्च के निकट प्रदर्शनकारी एकत्र हुए और फिर हिंसा शुरू हो गई?

तूतीकोरिन आंदोलन से फातिमा बाबू सहित कई पर्यावरणविद और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कट्टरपंथी ईसाई प्रचारक मोहन सी लाजरस भी जुड़े रहे। स्टरलाइट संयंत्र विरोधी आंदोलन ने गति तब पकड़ी जब स्थानीय चचोर्ं ने लाजरस के माध्यम से क्षेत्र के ईसाई व्यापारियों को बंद बुलाने के लिए विवश किया। तूतीकोरिन से पहले 2011-12 में तमिलनाडु में ही कुडनकुलम स्थित देश के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र के विरुद्ध विदेशी गैर सरकारी संस्थाओं ने स्थानीय लोगों को गुमराह कर आंदोलन को भड़काया था जिसमें ईसाई मिशनरियों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। वास्तव में इन सभी मजहबी संस्थाओं द्वारा देश की बड़ी परियोजनाओं का विरोध उनकी घबराहट को ही रेखांकित करता है। उन्हें डर है कि बड़ी-बड़ी आर्थिक परियोजनाओं से न केवल क्षेत्र का विकास और स्थानीय लोगों का भला होगा, अपितु दूरदराज के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। स्वाभाविक रूप से यह स्थिति चर्च के ‘आत्मा के कारोबार’ अर्थात मतांतरण के लिए अनुकूल नहीं है।

लगभग तीन माह पूर्व स्टरलाइट संयंत्र विरोधी प्रदर्शन की शुरुआत तूतीकोरिन के कुमाराट्टियापुरम गांव से हुई थी। वहां ग्रामीण भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। चर्च के अतिरिक्त जिन शक्तियों ने वर्ष 2016-17 के जल्लीकट्टू आंदोलन में शामिल होकर अपने विभाजनकारी हितों की पूर्ति करने का प्रयास किया था उसी जमात ने तूतीकोरिन में भी ऐसी ही कोशिश तब शुरू कर दी जब एक अप्रैल 2018 को अलग तमिल राष्ट्र की मांग करने वाले तिरुमुरुगन गांधी कुमाराट्टियापुरम गांव पहुंच गए। उस समय जिन झंडों और बैनरों का उपयोग कर स्टरलाइट संयंत्र के विरुद्ध नारेबाजी की गई उसमें लिट्टे सरगना टीवी प्रभाकरण की तस्वीर लगी हुई थी।

जब कभी भी ईसाई मिशनरियों की अनुचित कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा होता है तो कई विदेशी वित्तपोषित गैर सरकारी संगठन उपासना एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि के अधिकार पर आघात होने के नाम पर उत्पात मचाना प्रारंभ कर देते हैं। ऐसे संगठन न केवल भारत में विकास कार्यक्रमों को बाधित करने में शामिल हैं, अपितु मानवाधिकार हनन के मिथ्या दुष्प्रचार से विदेशों में देश की छवि भी खराब करते हैं। समय-समय पर ईसाई मिशनरियों और कई स्वयंसेवी संगठनों की कारगुजारियां उजागर होती भी रही है, किंतु सेक्युलरवाद के नाम पर उनके राष्ट्रविरोधी अभियानों पर नकेल कसने के बजाय उनका पर्दाफाश करने वाले राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। मोदी सरकार की नीतियों से आज विदेशी धनपोषित शक्तियां हतप्रभ हैं। कहीं तूतीकोरिन हिंसा ऐसी शक्तियों की बौखलाहट का दुष्परिणाम तो नहीं?

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)