[ सूर्यकुमार पांडेय ]: एक बार फिर चतुर विक्रम शातिर बेताल को अपनी पीठ पर लादकर अपने राज्य की ओर चल दिया। बेताल ने अपनी चिर परिचित शैली में कहानी आरंभ की-‘सुन राजन! तू स्वयं को बहुत कर्मठ, शक्तिशाली और सदाचारी समझता है, लेकिन मैं तुझे कुछ नहीं समझता हूं। आज भी तुझे मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर देने होंगे अन्यथा मैं फिर तेरे हाथ नहीं आऊंगा। अच्छा, चल बता! किसी लोकतंत्र में विपक्ष के पास कौन-कौन से महत्वपूर्ण औजार होते हैं?’

विक्रम बोला- ‘बेताल! तुम्हारा यह सवाल निहायत ही बचकाने किस्म का है। वैसे वे हैं तो बहुत सारे, किंतु इनमें से अकारादि क्रम में अनशन, घेराव, धरना, प्रदर्शन और बंद को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इनमें कौन सा औजार श्रेष्ठ है, इसका निर्धारण प्रयोगकर्ता द्वारा सही समय पर इस्तेमाल और वह जिस कार्य के लिए उपयोग में लाया जा रहा है उसके सात्विक लक्ष्य में निहित होता है।’ बेताल ने कहा, ‘राजन! तुम्हारा उत्तर संतोषजनक है, लेकिन मैं अभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हूं। अच्छा बता। अनशन में होता क्या है?’ विक्रम बोला, ‘अनशन में अनशनकर्ता के शरीर को भूख-प्यास झेलनी पड़ती है। बाद में किसी विशिष्ट व्यक्ति के हाथों से एक गिलास नींबू पानी या मौसम्मी का जूस इसकी निवृत्ति का कुल जमा हासिल हुआ करता है। यह कई प्रकार का होता है जैसे आमरण अनशन, क्रमिक अनशन, एक दिवसीय अनशन आदि। कभी अनशन को सत्याग्रह भी कहा जाता था। आज समय के साथ इसका नाम परिवर्तित हो चुका है, क्योंकि अब कोई भी सत्य के आग्रह के लिए अनशन नहीं करता है। यह हर किसी से सधता भी नहीं है। इसके लिए शरीर का व्याधिमुक्त होना अनिवार्य शर्त है। यदि कोई मधुमेह रोगी दूसरों की देखादेखी उपवास करने बैठ जाए तो उसे जल्द अस्पताल का मुंह देखना पड़ जाता है।’

बेताल ने पूछा, ‘और यह घेराव क्या होता है?’ विक्रम बोला, ‘यह अपनी उचित या अनुचित मांग मनवाने के लिए भीड़ द्वारा की जाने वाली सामूहिक क्रिया है। इसमें जिसका घेराव किया जाता है उसकी जान को सांसत में डाला जाता है। भीड़ उसे घेर लेती है और अपनी बात मनवाने के लिए उचित-अनुचित दबाव भी डालती है। घेराव प्राय: कुछ घंटों में समाप्त हो जाता है, क्योंकि या तो इसे बलपूर्वक समाप्त करा दिया जाता है या फिर तत्काल समाधान न मिल पाने की अवस्था में घेराव करने वालों का ख़ुद का ही धैर्य जवाब दे जाता है।’ बेताल ने अगला सवाल दागा, ‘प्रदर्शन में क्या प्रदर्शित किया जाता है?’ विक्रम बोला, ‘प्रदर्शन एक सामूहिक कर्म होता है। इसे कोई अकेला करना चाहे तो वह स्वयं ही प्रदर्शनीय हो जाता है। ऐसे प्रदर्शनकारी के नोटिस शासन-प्रशासन तो दूर, आसपड़ोस के लोग भी नहीं लेते। इसमें नारेबाजी होती है और सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फोड़ भी संभव है। यह बहुत खतरनाक औजार है। कभी-कभी यह उसके आयोजकों के हाथ से निकल कर असामाजिक तत्वों के हाथ में चला जाता है। और बेताल सुन! इससे पहले कि तू मुझसे बंद के विषय में पूछे, मैं ख़ुद बताए देता हूं-बंद का अपना गुणधर्म होता है। इसके ‘अनुष्ठान’ से पहले बंद का ‘आह्वान’ करना होता है। विशेषज्ञों का सहयोग भी चाहिए । कुछ सामग्री भी अपेक्षित होती है जैसे पुराने टायर, जिन्हें बीच सड़क पर जलाया जा सके। बंद में अराजकता संग बोनस रूप मेंं प्रदूषण प्राप्ति भी होती है।’

बेताल ने अगला प्रश्न किया, ‘राजन! अब लगे हाथ मुझे धरना के बारे में भी बता दे। साथ ही यह भी बता कि इन औजारों में से श्रेष्ठ कौन है?’ विक्रम ने कहा, ‘मुझे तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर भी ज्ञात है, किंतु तुम भी मुझे एक वचन दो कि यदि मैंने तुम्हारी शंका का निवारण कर दिया तो तुम्हें भी मेरे साथ चलना होगा। तो सुनो बेताल! लोकतंत्र के इन सभी औजारों में से सबसे सरल और सात्विक औजार है धरना। इसमें न कुछ करना होता है, न धरना होता है। अगर कुछ करना-धरना होता भी है, तो बस अपने शरीर को एक स्थान विशेष पर धरना होता है। कुछ लोग कुर्सी पर पसरकर ही धरना देते हैं। कुछ सोफे पर लेट-बैठ कर ही धरनान्वित हो पड़ते है। कई लोग गावतकिया और मसनद पर अपना आसन जमा लेते हैं। वैसे सबसे उत्तम धरना जमीन पर बैठकर दिया जाने वाला होता है। किंतु यह इस पर भी निर्भर करता है कि धरना देने वाली की ममता किसी के प्रति जगी या नहीं? यदि उसके साथ उस धरने में धरना रोकने वाले भी शामिल हो जाएं तो उसका रंग और भी चोखा हो जाता है।’

बेताल ने कहा, ‘राजन! तूने सही उत्तर दिया है, लेकिन मेरी भी एक विवशता है। मैं जो भी कहता हूं, उससे मुकर जाया करता हूं। मेरी प्रतीक्षा कर। चाहे तो प्रतीक्षा करते हुए धरना, बंद आदि का आयोजन कर।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]