[ संजय गुप्त]: मोदी सरकार के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव का वही हश्र हुआ जो पहले से तय दिख रहा था। अविश्वास प्रस्ताव के परिणाम से विपक्ष के साथ सत्तापक्ष भी परिचित था, लेकिन उसने जिस आनन-फानन अविश्वास प्रस्ताव की मांग मंजूर की उसकी उम्मीद विपक्ष को शायद ही रही हो। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान यह झलका भी कि विपक्षी दल इतनी जल्दी उस पर बहस के लिए तैयार नहीं थे। इस प्रस्ताव पर बहस के दौरान विपक्षी नेताओं की दलीलें सुनकर देश के लोग शायद ही किसी नतीजे पर पहुंचे हों, क्योंकि उनके पास घिसे-पिटे आरोपों को दोहराने के अलावा और कुछ नहीं था।

विपक्ष के आक्रामक, किंतु आधारहीन आरोपों का जवाब सत्तापक्ष और खासकर प्रधानमंत्री ने जिस प्रभावी तरीके से दिया उससे समझना कठिन है कि विपक्षी दलों को अविश्वास प्रस्ताव से हासिल क्या हुआ? अधिकांश विपक्षी दलों के समर्थन वाला तेलुगु देसम पार्टी की ओर से पेश अविश्वास प्रस्ताव मूलत: इस शिकायत पर केंद्रित था कि केंद्र ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा क्यों नहीं दिया? सरकार के जवाब से यह साफ हो गया कि विशेष दर्जे के बहाने आंध्र के लोगों को बरगलाने की राजनीति की जा रही थी और प्रधानमंत्री के आगाह करने के बाद भी चंद्रबाबू नायडू वाइएसआर कांग्रेस की चाल में जा फंसे थे।

अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान राहुल गांधी सबके केंद्र में थे। लोग जानना चाह रहे थे कि क्या वह वाकई ऐसा कुछ बोलेंगे जिसका असर भूकंप सरीखा होगा? अफसोस कि वह ऐसा कुछ नहीं बोल सके। उलटे उन्हें अपनी कुछ बातों के लिए शर्मसार होना पड़ा। उन्होंने भाषण के अंत में भले ही यह कहा हो कि उनके दिल में सबके लिए प्रेम है, लेकिन पूरे भाषण के दौरान उनकी भावभंगिमा आक्रोश और अंहकार से भरे नेता की रही। उनकी ओर से प्रधानमंत्री को जबरन गले लगाना बेहद नाटकीय रहा।

पीएम को गले लगाने के बाद राहुल ने अपने सहयोगियों की ओर देखकर जिस तरह आंख मारी उससे गले मिलने के उनके नाटकीय आचरण की पोल ही खुली। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने उनके इस व्यवहार की जमकर खबर भी ली। राहुल ने प्रधानमंत्री को यह जो चुनौती दी थी कि वह उनकी आंख में आंख डाल कर बात नहीं कर सकते उस पर भी उन्हें इस करारे तंज का सामना करना पड़ा कि भला एक कामदार व्यक्ति एक नामदार से कैसे आंखें मिला सकता है?

प्रधानमंत्री ने राहुल के साथ विपक्षी दलों को भी यह याद दिलाया कि आंख में आंख डालकर बात करने वाले नेताओं के साथ कांग्रेस ने कैसा व्यवहार किया? इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने यह भी रेखांकित किया कि कांग्रेस किस तरह सरकारों को गिराने का खेल खेलती रही है। उन्होंने राहुल के साथ सोनिया गांधी को भी उनके उस बयान के लिए निशाने पर लिया कि कौन कहता है कि विपक्ष के पास संख्या बल नहीं है? राहुल ने अपने भाषण की शुरुआत में सर्जिकल स्ट्राइक को जुमला स्ट्राइक बोलकर भी मुसीबत ही मोल ली। लगता है कि उन्होंने इसी मसले पर खून की दलाली वाले अपने बयान से कोई सबक नहीं सीखा।

कांग्रेस को राहुल गांधी से उम्मीद थी कि वह पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद सरकार के समझ तगड़ी चुनौती पेश करेंगे, लेकिन उन्होंने राफेल विमान सौदे का मुद्दा उठाते हुए जिस तरह फ्रांस के राष्ट्रपति से अपनी बातचीत का हवाला देकर दावा किया कि इस सौदे में गोपनीयता का कोई प्रावधान नहीं है उससे यही जाहिर हुआ कि उन्हें बिना सोचे-विचारे बयान देने की आदत पड़ गई है।

राहुल के बयान के दो घंटे के भीतर फ्रांस सरकार ने साफ किया कि इस तरह का कोई प्रावधान न होने की बात सही नहीं। इसके साथ ही रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी राफेल सौदे को लेकर संप्रग सरकार द्वारा किए गए समझौते का जिक्र कर कांग्रेस अध्यक्ष के दावे को झुठला दिया। प्रधानमंत्री भी यह कहने से नहीं चूके कि एक पारदर्शी रक्षा सौदे पर उलटे-सीधे आरोप लगाना बचकाना व्यवहार है। प्रधानमंत्री ने बैैंकों के फंसे कर्जे पर भी विपक्षी दलों को आईना दिखाते हुए जिस तरह अनुत्तरित किया उससे यही लगा कि अविश्वास प्रस्ताव उनके और खासकर कांग्रेस के ही गले पड़ा।

अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अन्य मामलों के साथ भीड़ की हिंसा के बढ़ते मामलों को लेकर भी सरकार को घेरा गया। नि:संदेह यह एक गंभीर मसला है, लेकिन यह कानून एवं व्यवस्था से जुड़ा है, जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है। विपक्ष यह जानते हुए भी एक अर्से से इस मसले पर मोदी सरकार को घेर रहा है कि कानून एवं व्यवस्था पर केंद्र राज्यों को निर्देश देने तक ही सीमित है। विपक्ष भीड़ की हिंसा के मामलों को लेकर यह कहने की कोशिश करता दिखा कि ये मामले मोदी सरकार के रुख-रवैये के चलते बढ़ रहे हैैं, लेकिन आखिर कोई भी सरकार यह क्यों चाहेगी कि उसके शासन में समाज और देश को शर्मिंदा करने वाली घटनाएं घटें। बेहतर होता कि भीड़ की हिंसा पर आरोप-प्रत्यारोप के बजाय इस तरह की वारदातों को रोकने के उपायों पर कोई ठोस और सकारात्मक चर्चा होती ताकि समाज को कोई सही संदेश जाता।

राहुल गांधी के साथ अन्य विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार को आर्थिक मसलों पर भी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। हैरानी की बात यह रही कि नोटबंदी के दो साल बाद उसे अविश्वास प्रस्ताव का हिस्सा बनाने की कोशिश की गई। नोटबंदी के बाद जीएसटी आए हुए एक साल बीत चुका है और यह एक तथ्य है कि अर्थव्यवस्था को जो झटके लगे थे उससे उबर आया गया है। अब जब भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की छठवें नंबर की अर्थव्यवस्था बन गई है और पांचवां स्थान अर्जित करने की ओर बढ़ रही है तब उसकी खराब हालत का जिक्र करने का औचित्य समझना कठिन था।

भले ही अविश्वास प्रस्ताव के बहाने विपक्षी दलों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने की कोशिश की हो, लेकिन वह अच्छे से नजर नहीं आई। सत्तापक्ष की ओर से विपक्षी एकता पर जमकर चुटकी ली गई तो इसीलिए कि जहां कई विपक्षी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं वहीं कुछ खुद को उससे ताकतवर बताने की कोशिश कर रहे हैैं। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से यही अधिक प्रकट हुआ कि विपक्ष के पास ऐसे मुद्दों का अभाव है जिन पर वह सरकार को घेरकर जनता का ध्यान आकर्षित कर सके। ऐसा लगता है कि वह अपने ही दांव में फंस गया।

विपक्षी दलों की ओर से जो मुद्दे उठाए गए उन पर सरकार आसानी के साथ जोरदार पलटवार करने में समर्थ रही।

अभी आम चुनाव में देर है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि अगर विपक्ष को सरकार के सामने ढंग की चुनौती पेश करनी है तो उसे अपुष्ट आरोप लगाने से आगे बढ़ना होगा। यह अच्छी बात नहीं कि विपक्ष उन मुद्दों को गंभीरता के साथ सामने नहीं ला पा रहा जो आम जनता को कहीं अधिक प्रभावित कर रहे हैैं। ऐसा लगता है कि विपक्ष इसलिए राजनीतिक गंभीरता का परिचय देने की जरूरत नहीं समझ रहा, क्योंकि वह यह जानता है कि अपने देश में चुनाव भावनात्मक मसलों पर लड़े जाते हैैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]