नई दिल्ली (डॉ. एके वर्मा)। जैसे-जैसे 2019 का लोकसभाचुनाव पास आता जा रहा है वैसे-वैसे भाजपा की चिंता बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपा दलों के एक मंच पर आकर महागठबंधन बनाने और विशेषकर उत्तर प्रदेश में पिछले 23 वर्षों से धुर विरोधी मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा के गठबंधन की संभावनाओं से भाजपा के शीर्ष नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। मोदी मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री और रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख रामदास अठावले ने तो यहां तक कह डाला कि बसपा-सपा गठबंधन को आगामी लोकसभा चुनाव में प्रदेश में 25 से 30 सीटें मिल सकती हैं। लोकसभा चुनाव 2014 का परिणाम अप्रत्याशित था। उसमें सपा को 80 सीटों में पांच, कांग्रेस को दो और बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, शेष 73 सीटें भाजपा-अपना दल गठबंधन ने जीती। 2019 लोकसभा चुनावों में ऐसा प्रदर्शन दोहराना भाजपा के लिए आसान नहीं। बहरहाल बसपा-सपा को उसका श्रेय नहीं मिलेगा। मायावती-अखिलेश दोनों गठबंधन को लेकर उत्साहित हैं।

यह 2017 चुनावों में ‘दो लड़कों के गठबंधन’(अखिलेशराहुल गठबंधन) की याद दिलाता है। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में विजय से दोनों के हौसले बुलंद हैं, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया कि नवगठित निषाद पार्टी ने गोरखपुर से प्रवीण निषाद को पहले ही अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया था, अखिलेश यादव ने केवल उसे समर्थन और चुनाव चिन्ह दिया। वह ऐसा नहीं भी करते तो भी वह अच्छा चुनाव लड़ता और संभवत: जीतता भी। प्रदेश में निषाद (मल्लाह) अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं। 1891 की जनगणना में निषादों (मल्लाहों) की गणना उत्तर प्रदेश में जनजातियों के रूप में हुई थी और तब उनकी जनसंख्या पौने चार लाख थी, लेकिन स्वतंत्रता के बाद उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा न देकर उन्हें पिछड़ी जातियों में शामिल कर लिया गया। आज उत्तर प्रदेश में उनकी अनुमानित जनसंख्या 19 लाख है। उनकी लड़ाई अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करने को लेकर है। प्रदेश के हर जिले में उनकी जनसंख्या औसतन 20 से 25 हजार है। वे संगठित हैं तथा चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। चूंकि उनकी समस्या का समाधान राज्य के प्रतिवेदन पर संसद को करना है, इसलिए उनका समर्थन 2019 में भाजपा को जा सकता है, क्योंकि योगी और मोदी के तालमेल से उनको अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल हो सकता है।

बसपा-सपा गठबंधन तीन परिकल्पनाओं पर आधारित है। एक, सांप्रदायिक भाजपा को केंद्र से हटाना है। दो, गोरखपुर-फूलपुर में बसपासपा के साथ आने से भाजपा हारी और तीसरा यही कि बसपा-सपा अपने-अपने मतों का एकदूसरे के पक्ष में हस्तांतरण करा सकेंगी। भाजपा को हराने का संकल्प राजनीतिक है। लोकतंत्र में यह कोई बुराई नहीं कि कुछ पार्टियां एक साथ आकर चुनाव लड़ें और सत्तारूढ़ दल को हराने का प्रयास करें। प्रश्न यह है कि आखिर भाजपा को जनता ने सत्ता दी है और जनता उसके कार्यों का गहन परीक्षण कर रही है और यदि उसे भाजपा को हटाना है तो गठबंधन को जनता की सुविधा के लिए एक वैकल्पिक विचारधारा एवं शासन मॉडल जनता के सामने रखना चाहिए। सतारूढ़ दल को हटाना तो ठीक है, पर आप करेंगे क्या?

जनता को अब नकारात्मक राजनीति रास नहीं आती, वह सकारात्मकता चाहती है। यदि राष्ट्रीय स्तर पर जनता को कोई सार्थक विकल्प नहीं समझ में आया तो इस बात की संभावना कम है कि वह अभी मोदी सरकार को हटाने की सोचे। जहां तक गोरखपुर-फूलपुर का सवाल है, यह ठीक है कि वहां भाजपा हारी, लेकिन बसपा सपा के साथ आने से नहीं। उसके अनेक कारण थे जो अब सभी को ज्ञात हैं। फिर जिस तरह राज्यसभा चुनावों में अखिलेश ने मायावती के मंसूबों पर पानी फेरते हुए सपा के हितों को ऊपर रख भीमराव अंबेडकर की जगह जया बच्चन को जितवाया उससे मायावती को संकेत चले गए कि अखिलेश का असली इरादा क्या है। फिर भी यदि मायावती गठबंधन पर आमादा हैं तो उसका कारण उनकी पार्टी की राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता का सवाल भी है जो 2014 से ही खतरे में है। इसके लिए बसपा को चार या अधिक राज्यों में प्रत्येक में छह प्रतिशत वोट और कम से कम चार लोकसभा सीटें प्राप्त होनी चाहिए, लेकिन सबसे अहम सवाल है कि क्या मायावती और अखिलेश अपने-अपने दलों के मतों को एक-दूसरे को हस्तांतरित करवा सकेंगे?

2017 में इस परिकल्पना का हश्र सपा-कांग्रेस गठबंधन की नाकामी के रूप में हम देख चुके हैं जिसमें न तो अखिलेश, न ही राहुल अपनी-अपनी पार्टियों के मतदाताओं को अपने साथ रख सके और न ही उनके मतों का गठबंधन उम्मीदवार के पक्ष में हस्तांतरण करा सके। मायावती के दो मुगालते हैं। एक कि उनके पास अभी भी वह जादू है कि उनके कहने से दलित मत सपा को चले जाएंगे और दूसरा यह कि अखिलेश में वह काबिलियत है कि वह सपा के मतों को बसपा उम्मीदवारों को हस्तांतरित करा सकेंगे। इन दोनों पर ही गंभीर प्रश्न चिन्ह हैं। आज दलितों को विश्वास नहीं कि मायावती का कोई दलित एजेंडा है। वर्ष 2007 में जब उनकी सरकार बनी तो सबसे ज्यादा नुकसान दलितों का हुआ जिनके हितों की अनदेखी कर मायावती ने ब्राह्मण और मुस्लिम हितों को तरजीह दी। परिणामस्वरूप दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग बसपा से भाजपा की ओर खिसक गया जिससे आज उत्तर प्रदेश में सभी 17 दलित सांसद और 85 में से 75 दलित विधायक भाजपा के पास हैं। अब दलितों से यह उम्मीद कतई नहीं की जा सकती कि वे मायावती के कहने से बसपा को वोट करेंगे। भाजपा के पास दलित सांसदों और विधायकों की बड़ी फौज होने से न केवल दलितों को सरकार में पैठ प्राप्त है, वरन उससे भाजपा ने भी दलितों पर अच्छी पकड़ बना ली है।

अखिलेश और मायावती का गठबंधन ‘कॉस्मेटिक-पॉलिटिक्स’ का नमूना है जिसमें दो खतरे हैं। एक, बसपा और सपा गठबंधन से जो उम्मीदवार पार्टी टिकटों से वंचित रह जाएंगे, वे या तो स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में उनके वोट काटेंगे या भाजपा का दामन थामेंगे। हाल में नरेश अग्रवाल इसके उदाहरण हैं जो सपा छोड़कर भाजपा में चले गए। दूसरा, बसपा-सपा के वोट-बैंक परस्पर विरोधी आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सपा के समर्थक भू-स्वामी हैं और बसपा के दलित भूमिहीन-मजदूरों का शोषक और शोषित का रिश्ता है। इसलिए उनका एक साथ आना कठिन है। तीन-तलाक के मुद्दे को आगे बढ़ाने से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं का एक वर्ग भीतर ही भीतर कहीं मोदी से जुड़ा है, पर वह वोटों में कितना तब्दील होगा अभी यह कहना मुश्किल है। भाजपा नेताओं को बसपा-सपा गठबंधन से चिंतित होने के बजाय इस पर चिंता करनी चाहिए कि उनके सांसद और विधायक न तो जमीन पर जनता से जुड़ रहे हैं, न ही मोदी और भाजपा सरकारों के कामों की कुशल मार्केटिंग कर पा रहे हैं।

लेखक सेंटर फॉर सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।