नई दिल्ली (उदय प्रकाश अरोड़ा)। अगले वर्ष महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती मनाने की तैयारी शुरू हो गई है। इस अवसर को यादगार बनाने के उपायों पर राष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली एक समिति विचार कर रही है। कुछ समय पहले ही दुनिया ने कार्ल माक्र्स को उनकी 200वीं जंयती पर याद किया था। माक्र्स और गांधी का लक्ष्य एक था, किंतु लक्ष्य प्राप्त करने के साधन भिन्न थे। माक्र्स ने हिंसा और गांधी ने अहिंसा का समर्थन किया माक्र्सवाद का सूर्य अब अस्त हो रहा है। क्या इसकी जगह गांधीवाद ले सकेगा? माक्र्स के आदर्श थे पूंजीवाद का

नाश, मजदूरों एवं श्रमिकों का वर्चस्व और राज्य विहीन समाज की स्थापना। माक्र्स जैसा चाहते थे उसके उलट हुआ। राज्य विहीन समाज की स्थापना का उनका लक्ष्य तो ओझल ही हो गया। साम्यवादी मुल्कों में तानाशाही एवं निरंकुशता की स्थापना हुई। रूस में तो जो कोई लेनिन या उसके शासन के विरूद्ध सक्रिय पाया जाता था उसे पुलिस द्वारा मरवा दिया जाता था।

लेनिन की मृत्यु के बाद जब जोसेफ स्टालिन ने सत्ता संभाली तब खून खराबा और अधिक तेज हो गया। रूस की तरह चीन में भी सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर माओ ने लाखों लोगों को खत्म कर दिया। 1975-79 के दौरान कंबोडिया में पोलपोट की साम्यवादी खमेर रूज पार्टी ने अपने लाखों राजनीतिक विरोधियों की हत्या की। हत्याओं, श्रम यातनाओं, कुपोषण और भंयकर बीमारियों के कारण कंबोडिया की 30-35 लाख आबादी समाप्त हो गई। श्रमिकों के कल्याण की बात करने वाली साम्यवादी पूर्वी जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी के शासन में श्रमिकों का वेतन पश्चिमी जर्मनी के श्रमिकों के वेतन के आधे से भी कम था। यदि हिटलर और मुसोलिनी को उनके फासिस्ट कारनामों के लिए याद किया जाता है तो माओ, लेनिन और स्टालिन फासिस्ट क्यों नहीं हैं? इन्हें क्रांतिकारियों की श्रेणी कैसे मिल गई? आज साम्यवाद केवल कुछ ही मुल्कों में नाममात्र के लिए ही है। दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है, किंतु अपने देश में बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा तबका साम्यवादी लकीर का फकीर बना हुआ है।

उसे माक्र्स से प्रेम है और गांधी से परहेज। पता नहीं क्यों वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि साम्यवाद से मोहभंग होने पर दुनिया के देश उदारवादी लोकतंत्र की ही ओर बढ़ रहे हैं? साम्यवाद की तरह उदारपंथी लोकतंत्र भी पश्चिम की देन है। जिन लोगों ने यूरोप में लोकतंत्र को आगे बढ़ाया उनकी पृष्ठभूमि भी गौर करने लायक है। प्रजातंत्र के प्रवर्तक इंग्लैंड, फ्रांस, नॉर्वे और इटली के नेता अपनी हिंसक गतिविधियों के लिए जाने जाते थे। हेनरी अष्टम (1509-47) किसी तानाशाह से कम नहीं था। उसने न केवल अपनी असुविधाजनक रानियों की हत्या की बल्कि, बच्चों और वफादार सेवकों तक को मरवा डाला। उसके द्वारा अनेक हत्याएं सामूहिक ढंग से की गईं, परंतु उस समय इसे राजनीति का हिस्सा माना जाता था। फ्रांस में भी लोकतंत्र आसानी से नहीं स्थापित हुआ। प्रथम फ्रेंच रिपब्लिक शासन के दौरान करीब 16 हजार लोगों को मौत के घाट उतारा गया। यह भी अजीब बात है कि अपने प्रजातंत्र पर गौरव करने वाले यूनान ने उस सिकंदर को अपना इतिहास पुरुष घोषित किया जिसने अनेक राज्यों को नष्ट किया।

सिकंदर ने राज्यों को नष्ट कर तानाशाही की स्थापना की। एथेंस के कशल राजनीतिज्ञ डेमोस्थनीज ने अपने प्रजातंत्र को बचाने की भरसक चेष्टा की, किंतु उसे भुला दिया गया और महान उस व्यक्ति को घोषित किया गया जिसने न केवल लोकतंत्र को नष्ट किया, बल्कि तानाशाही व्यवस्था को आगे बढ़ाया। निर्दोष जनता, स्त्रियों और बच्चों की सामूहिक ढंग से हत्या करने वाले सिकंदर को पश्चिमी विद्वान न केवल एक महान विजेता के रूप में, बल्कि सभ्यता के प्रचारक के रूप में भी स्मरण करते हैं। पश्चिम की देखा-देखी दूसरे मुल्कों ने भी युद्ध और हिंसा को गौरवान्वित किया। मंगोलों ने अपने नेता चंगेज खां को महान घोषित किया। चंगेज खां की क्रूरता से कौन वाकिफ नहीं है? मंगोलिया उसे अपना राष्ट्रपिता मानता है। भारत में तबाही मचाने वाले तैमूर लंग को उजबेकिस्तान ने अपना राष्ट्रपिता माना। लुटेरे नादिरशाह को ईरान की जनता आदर के साथ स्मरण करती है। दुनिया में हिंसा के मार्ग को अधिक पसंद किया गया। हमने अशोक, बुद्ध, महावीर और गांधी के मार्ग को पंसद किया। गांधी की अहिंसा से प्रभावित होकर फ्रांस के लेखक रोम्यां रोलां ने कम्युनिस्टों और गांधी को एक साथ लाने की बहुत कोशिश की परंतु असफल रहे।

असफल होना स्वाभाविक था, क्योंकि कम्युनिस्टों ने अपना दिमाग हमेशा बंद रखा और गांधी ने अहिंसा के मार्ग को अपने जीवन का मिशन बना रखा था। दुनिया में परिवर्तन के लिए जितनी भी क्रांतियां हुईं उनका लक्ष्य भले ही महान रहा हो, किंतु उन्होंने गांधी जी की तरह साधनों की पवित्रता पर ध्यान नहीं दिया। क्या स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का लक्ष्य हिंसक साधनों से प्राप्त किया जा सकता है? 1928 में महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरा यह अटल विश्वास है कि हिंसा के आधार पर कोई स्थाई चीज नहीं बनाई जा सकती है। गांधीवादी तरीकों से दुनिया के विभिन्न मुल्कों में विरोध प्रदर्शन तो हुए, किंतु समाजवाद, साम्यवाद आदि की तरह गांधी के विचारों को सिद्धांत रूप में स्थापित नहीं किया जा सका। भारतीय समाजवादियों ने आजादी की लड़ाई में गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया, लेकिन आजादी के बाद से समाजवादी अलग-अलग वैचारिक गुटों में बंट गए। डॉ. राममनोहर लोहिया ने समाजवाद को गांधीवाद के साथ जोड़ा। 1954 में देश में पहली बार केरल में गैर कांग्रेस दल की सरकार बनी। यह सरकार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की थी, जिसके महामंत्री राममनोहर लोहिया थे।

उस दौरान राज्य सरकार के खिलाफ त्रिवेंद्रम में एक रैली निकाली गई। उस रैली को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने गोली चलाई, जिससे सात लोग मारे गए। लोहिया जी उस समय नैनी जेल इलाहाबाद में बंद थे। जैसे ही उन्हें सूचना मिली उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री को तार लिखा कि शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चलाकर पुलिस ने आमानवीय कार्य किया है। उसकी संपूर्ण नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री अपने पद से इस्तीफा दें। दोषी आधिकारियों को निलंबित किया जाए और संपूर्ण घटना की छानबीन के लिए एक उच्च स्तरीय गैर सरकारी समिति बनाई जाए। लोहिया के लोगों को पहली बार सत्ता सुख भोगने को मिला था, जिसे वे छोड़ना नही चाहते थे। लोहिया अपनी बात पर अड़े रहे। अपनी ही पार्टी के खिलाफ प्रस्ताव लाए। राष्ट्रीय समिति ने उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया। लोहिया ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। यह था गांधी का रास्ता। लोहियाजी ने जिस बात को सबसे अधिक महत्व दिया था वह मानव अस्तित्व के प्रति आदर भाव था।

[लेखक जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं]