नई दिल्ली (डॉ. उदित राज)। पिछले कुछ वर्षों से डॉ. आंबेडकर की जयंती कुछ ज्यादा जोरशोर से मनाई जा रही है। इस बार भी ऐसा ही होता दिख रहा है। सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्षी दल भी डॉ. आंबेडकर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने की तैयारी कर रहे हैं। दो अप्रैल को भारत बंद के बाद सभी राजनीतिक दल खुद को दलित हितैषी बताने में कोई कसर नहीं रहने देना चाहते, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चाहे डॉ. आंबेडकर हों अथवा अन्य महापुरुष हमारे समाज में उनका स्मरण रस्म अदायगी के तौर पर ही अधिक होता है। महापुरुषों का स्मरण करके कर्तव्य की इतिश्री अधिक की जाती है।

इस सिलसिले को देखते हुए इस पर विचार करना होगा कि आखिर महापुरुषों का रस्मी तौर पर स्मरण करने से हमें क्या हासिल हो रहा है? इस पर न केवल राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों, बल्कि खुद दलित समाज को भी विचार करना चाहिए। महापुरुषों के विचार पढ़ना और उन्हें दोहराना हमारी परंपरा का हिस्सा है, लेकिन जब उन्हें आत्मसात करने की बारी आती है तो हम इस मोर्चे पर मात खा जाते हैं। बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के बारे में भी यही बात सटीक बैठती है। 14 अप्रैल को उनकी जयंती के अवसर पर देश भर में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, लेकिन अगर समाज की मौजूदा स्थिति और असंतोष को देखें तो लगता है कि हम बाबा साहब के विचारों को आदर्श रूप में नहीं अपना पाए हैं। आंबेडकर जयंती पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में लगेगा कि आज ही सामाजिक व्यवस्था दुरुस्त होकर सामाजिक क्रांति हो जाएगी, लेकिन कार्यक्रमों से निकलते ही हम उन विचारों एवं आदर्शों को सभागार में ही छोड़ आते हैं। फिर से अपनी जाति और पहचान के दायरे में सिकुड़ जाते हैं। केवल आंबेडकर ही नहीं, बल्कि गांधी जी हों या अन्य महापुरुष उनके मामलों में भी यही देखने को मिलता है। गांधीजी ने तो यहां तक कहा था कि आजादी के बाद राज्य के अस्तित्व की भी दरकार नही होगी और हर गांव अपने आप में आत्मनिर्भर हो जाएगा। यहां तक कि उन्होंने तो कांग्रेस को ही भंग करने तक का सुझाव दे दिया था, लेकिन असल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

गांधीजी, नेहरू या सुभाष चंद्र बोस या भगत सिंह, इनके विचारों को अंगीकार करना अभिजात्य वर्ग की आवश्यकता नहीं है। पहले से ही यह समाज अच्छी स्थिति में रहा है तो उसके ऊपर शायद इनके विचारों का मुलम्मा न चढ़े। महापुरुषों के विचारों को भारतीय समाज मानता तो क्या हमारा देश अमेरिका, चीन, रूस जैसा विकसित नही होता। मध्यकाल में कबीरदास के जो क्रांतिकारी बोल थे, कितनों ने उन्हें अपनाया? असल में उन्हें सराहते सभी हैं, लेकिन अपनाते बहुत कम हैं। अगर हम इन्हें अपना लें तो उन तमाम सामाजिक चुनौतियों से पार पा सकते हैं जो इस समय देश के समक्ष दस्तक दे रही हैं। समाज में अगर सभी अपनी भूमिका का सही रूप से निर्वहन करें तो शायद असंतोष की यह आग जोर ही न पकड़े, लेकिन यदि किसी भी पक्ष की ओर से जरा

भी चूक हुई तो देश को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। बीते दो अप्रैल को देश में भारत बंद के दौरान इसकी बानगी भी नजर आई।

दलित संगठनों द्वारा बुलाया गया भारत बंद एक तरह की अनियंत्रित मिसाइल ही कहा जाएगा और फिलहाल इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि इसका निशाना आखिर कहां जाकर लगेगा। इसे मूलत: दलित नौजवानों के गुस्से की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। इसका सबसे खास पहलू यही रहा कि अखिल भारतीय स्तर पर इसका असर देखा गया। कोई नेता या संगठन इसके नेतृत्व की दावेदारी नहीं कर सकता, क्योंकि यह स्वत: स्फूर्त था। जब भारत बंद होने लगा तब जरूर कुछ नेता और संगठन श्रेय लेने के लिए आगे आने लगे। इसमें दलित विचारको और नेताओं से कहीं अधिक समाज को सोचना होगा कि आखिर कहां पर चूक हो रही है? इस आंदोलन के गर्भ में कई बाते समाहित हैं जिन पर समय रहते चर्चा करना बेहद जरूरी है।

अगर हम उन मुद्दों की पड़ताल करेंगे तो उनका समाधान हमारे उन महापुरुषों की दिखाई राह में ही नजर आएगा जिनका हम प्रतीकों के तौर पर तो बहुत इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उसे जीवन में नहीं उतार पाते। विकसित देश बनने की आकांक्षा के बीच हमें निश्चित रूप से यह समझना होगा कि आंतरिक द्वंद्व चाहे किसी भी समाज में कायम हों उस समाज को उन द्वंद्वों को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इसमें चीन से ही सबक लिया जा सकता है। चीन के महान क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग समाज के अंतर्विरोध को खत्म करते रहे और उन्होंने चीनी समाज को एक सूत्र में पिरोने में काफी हद तक सफलता भी हासिल की। दो अप्रैल की घटना का असर उत्पादन, शिक्षा और विकास पर पड़ना ही था जिसकी कीमत सभी को चुकानी पड़ेगी। हमें इस पर भी मनन करना होगा कि देश की इतनी बड़ी आबादी को उत्पादन, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय सेवा आदि से वंचित करके कैसे विकसित भारत बनाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट के एक प्रावधान में परिवर्तन और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों में भर्ती से संबंधित निर्णय ने दलितों के असंतोष को भड़काने में चिंगारी का काम किया।

जो भी हो, लेकिन एक बात जरूर प्रमाणित हो गई है कि अब दलितों और पिछड़ों को अपमानित और शोषित करके नहीं रखा जा सकता, मगर उससे पहले दलित समाज को भी अपने आंतरिक मतभेद सुलझाने होंगे और एक व्यापक दृष्टि विकसित करनी होगी। अनावश्यक विरोध और अपरिहार्य विरोध के बीच में रेखा खींचनी होगी। एक तरह से डॉ. आंबेडकर के विचारों को खुद दलितों ने ही नहीं अपनाया और इस तरह अपना ही अहित किया है। वे खुद ही तमाम विभाजित रेखाओं में बंटे हैं। यही वजह है आज भी उनके हितों पर तलवार लटकती रहती है और उन्हें इसके लिए आवाज बुलंद करनी पड़ती है। इस बार भारत सरकार 14 अप्रैल को जस्टिस डे के रूप में मना रही है, लेकिन इन्हें कौन न्याय देने वाला है जब ये खुद जातिवाद के जहर से नही निकल रहे हैं। विचार पढ़ने और बोलने से  जीवन नही बदलते, बल्कि व्यवहार में उतारने से अपना असर दिखाते हैं।

लेखक लोकसभा में सदस्य हैं