[प्रो. नागेश्वर राव]। रोना महामारी के कारण प्रत्येक क्षेत्र को कुछ न कुछ समयानुकूल समाधान निकालने पड़े हैं। इसी कड़ी में शिक्षा क्षेत्र को ऑनलाइन शिक्षा जैसा माध्यम अपनाना पड़ा। चूंकि आत्मनिर्भर भारत की बड़ी योजना का अहम पक्ष शिक्षा से जुड़ा हुआ है और यहां एक बड़ी युवा आबादी भी है तो ऐसा कोई विकल्प तलाशना बहुत आवश्यक था। ऑनलाइन शिक्षा संसाधन और इच्छाशक्ति, दोनों की मांग करती है और भारत ने इन दोनों ही मोर्चो पर अच्छा प्रदर्शन किया है। प्रधानमंत्री ई-योजना के तहत 50 लाख विद्यालय और 50 हजार से अधिक उच्च शिक्षण संस्थाओं को डिजिटल बनाने की योजना बन चुकी है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने भी कहा है कि दुनिया के सामने भारत एक मानक बन सकता है। यह अच्छा है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को भी ऑनलाइन शिक्षा के साथ सुसंगत किया गया है।

यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में कुछ मूलभूत अड़चनें हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन ‘एलिमिनेशन’ अर्थात विलोपन के आधार पर होता है। जैसे कि दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में नामांकन पैमाना 99 प्रतिशत और यहां तक शत प्रतिशत अंकों तक जाता है। देश के अन्य प्रतिष्ठित महाविद्यालयों की भी कमोबेश यही स्थिति है। आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समाज के बच्चों के लिए 90 प्रतिशत का स्तर पाना ही मुश्किल है। इसके उलट यदि ऑनलाइन शिक्षा की बात करें तो यहां नामांकन ‘एलिमिनेशन’ के आधार पर नहीं, बल्कि विद्यार्थियों की इच्छाशक्ति के आधार पर होता है।

सभी विद्यार्थियों के लिए संस्थान बनाने का रोडमैप अत्यंत कठिन

भारत में उच्च शिक्षण संस्थाओं में नामांकित विद्यार्थियों की तादाद कई यूरोपीय देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। अगर क्लास रूम और ब्लैक बोर्ड तक शिक्षा सिमटी रहती है, तो करोड़ों बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित रह सकते हैं। सभी विद्यार्थियों के लिए संस्थान बनाने का रोडमैप भी अत्यंत कठिन है। यह विशालकाय हाथी की तरह है, जिसका पालन-पोषण अत्यंत खर्चीला और चुनौतीपूर्ण है। वहीं ऑनलाइन शिक्षा में यह स्थिति बदल जाती है। अगर ऑनलाइन आधार पर शिक्षा की बात की जाए तो उसमें न ही जमीन की जरूरत है और न ही भारी भरकम संसाधन की। ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था पर अमेरिकी शोध संस्थाओं की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है।

ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से ही भारत की धाक जम सकती है

विश्व व्यवस्था में ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से ही भारत की धाक जम सकती है। कई आंकड़े भारत के पक्ष में है। वर्ष 2030 तक दुनिया में कामगार लोगों की सबसे बड़ी जमात भारत में होगी। भारत सरकार की योजना और सोच भी है कि 2035 तक उच्च शिक्षण संस्थाओं में सकल नामांकन अनुपात यानी जीईआर के आंकड़े को 50 प्रतिशत तक पहुंचाना है, जो अभी 25 फीसद पर अटका हुआ है। विकसित देशों में यह आंकड़ा 80 से 90 प्रतिशत के बीच है। इस बीच अहम सवाल यही है कि क्या पारंपरिक शिक्षा के माध्यम से यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। संसाधनों की दृष्टि से तो यह संभव नहीं लगता।इसका दूसरा पक्ष गुणवत्ता से जुड़ा है। हजारों संस्थान बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करने में असफल भी रहते हैं। स्पष्ट है कि जीईआर को 50 प्रतिशत तक लाना दुष्कर है। इसके लिए भारत को ऑनलाइन मोड में जाना ही पड़ेगा। यह एक सार्थक और बेहतर विकल्प है। इसमें वैश्विक समावेश की भी गुंजाइश है।

बेहतरीन विश्वविद्यालयों के साथ भारतीय सोच को विकसित करने की आवश्यकता

बस आवश्यकता है विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालयों के साथ भारतीय सोच को विकसित करने की। इससे भारत की वैश्विक तस्वीर भी बदलेगी। विशेषकर दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और अफ्रीकी देशों के करोड़ों विद्यार्थी भारतीय शिक्षा व्यवस्था से जुड़ जाएंगे। मल्टीमीडिया के जरिये ऑनलाइन शिक्षा को रुचिकर और ज्ञानवर्धक बनाने में मदद मिलेगी। अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय की 2019 में आई रिपोर्ट में इस बात की व्याख्या है कि ऑनलाइन माध्यम में बच्चों की शिक्षा और मूल्यांकन ज्यादा गुणवत्तापूर्ण रहा है। शिक्षक का भी विद्यार्थियों के साथ अकादमिक संपर्क अधिक सशक्त होता है। भारत ब्रॉडबैंड मिशन के तहत वर्ष 2022 तक देश के सभी गांवों और शहरों को इंटरनेट से जोड़ दिया जाएगा। इसलिए ऑनलाइन शिक्षण संस्थान ही देश को बदलने में कारगर हो सकते हैं। डिजिटल भारत ही दुनिया के सामने एक मानक बन सकता है। देश के पास ऑनलाइन के सारे साधन मौजूद हैं, बस हमें पारंपरिक सोच के बजाय आधुनिक दृष्टिकोण के साथ सटीक रणनीति बनानी होगी।

जरूरत मानसिकता को बदलने की

ऑनलाइन शिक्षा की राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। पहली चुनौती मानसिकता की ही है। पुराने और अनुभवी शिक्षक ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर विरोध की कतार में खड़े हो जाते हैं। उनकी सोच में यह सब कुछ युवा पीढ़ी के लिए बना है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है। यह सहज और सुलभ है। जरूरत मानसिकता को बदलने की है। जब एक कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्मार्टफोन से डिजिटल पैसे का लेनदेन कर सकता है तो एक अनुभवी व्यक्ति मल्टीमीडिया के प्रयोग से ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था का अंग क्यों नहीं बन सकता? दूसरी चुनौती कंप्यूटर और इंटरनेट के अभाव की है।

ऑनलाइन शिक्षा की राह में चुनौतियां

देश के कई हिस्से अभी तक इंटरनेट से पूरी तरह नहीं जुड़े हैं और कई हिस्सों में नेटवर्क की समस्या अभी भी कायम है। तमाम विद्यार्थियों के पास स्मार्टफोन या लैपटॉप नहीं हैं। तीसरी चुनौती ऑनलाइन परीक्षा की है। कई जगहों पर इसके लिए प्र्याप्त संसाधन या आवश्यक तकनीक की कमी है। चौथी चुनौती भाषा की समस्या से जुड़ी है। ऑनलाइन शिक्षा को सुलभ और सहज बनाने के लिए पढ़ाई-लिखाई क्षेत्रीय भाषा में होनी चाहिए, जिसके लिए सामग्री तैयार करनी होगी। नि:संदेह ऑनलाइन शिक्षा की राह में ये कुछ चुनौतियां अवश्य हैं, लेकिन उनके अनुपात में संभावनाएं कहीं अधिक हैं।

(लेखक इग्नू के कुलपति हैं)