नई दिल्ली [ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]। अर्थव्यवस्था में सामग्री को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। एक वर्ग सार्वजनिक सुविधाओं का होता है जैसे करेंसी नोट, रक्षा, न्याय एवं पुलिस इत्यादि। ये सामग्री केवल सरकार द्वारा ही उपलब्ध कराई जा सकती हैं। अर्थशास्त्र में माना जाता है कि इन सार्वजनिक सामग्रियों को उपलब्ध कराना सरकार की अहम जिम्मेदारी है और उनसे वह विमुख नहीं हो सकती। दूसरे प्रकार की सामग्री निजी होती है। जैसेकपड़ा, मोबाइल, बैंकिंग सुविधा, शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाएं। इनमें सरकार का दखल नहीं है।

गुटखा खाने से समाज में नशे की प्रवृत्ति बढ़ती है

नियम है कि सार्वजनिक सामग्री उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका है और व्यक्तिगत सामग्री उपलब्ध कराने में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। इसे बाजार पर छोड़ दिया जाए, लेकिन व्यक्तिगत सामग्री में कुछ ऐसी होती हैं जिनका समाज पर भी प्रभाव पड़ता है। जैसे यदि कोई नागरिक गुटखा खाता है तो यह उसकी व्यक्तिगत खरीद होती है, पर उसके गुटखा खाने से समाज में नशे की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसलिए सरकार को गुटखे पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। दूसरी तरफ शिक्षा होती है जो व्यक्तिगत होते हुए भी समाज पर अच्छा प्रभाव डालती है। यदि कोई बीटेक की डिग्री हासिल करता है और रक्षा क्षेत्र में शोध करता है तो देश को लाभ होता है। इसलिए इन्हें ‘अच्छी’ व्यक्तिगत सामग्री कहा जाता है।

अर्थशास्त्र में मान्यता है कि अच्छी व्यक्तिगत सामग्रियों को उपलब्ध कराने में सरकार दखल दे सकती है। यद्यपि करेंसी नोट या रक्षा की तरह यह अनिवार्य नहीं है। यह देखा गया है कि सरकार द्वारा किए गए खर्चों में भ्रष्टाचार और बर्बादी की समस्याएं रहती हैं। करेंसी नोट जैसे क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को समाज बर्दाश्त करता है, क्योंकि इन सामग्रियों का दूसरा विकल्प नहीं है। इसकी तुलना में उच्च शिक्षा में दूसरे विकल्प उपलब्ध हैं। हमारे सामने चुनौती है कि सरकार वित्तीय अनुदान इस प्रकार से दे कि भ्रष्टाचार न हो और अच्छी व्यक्तिगत सामग्री का विस्तार भी हो। वर्तमान व्यवस्था में देश की उच्च शिक्षा का नियंत्रण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी द्वारा किया जाता है। यह संस्था देश के विश्वविद्यालयों का नियमन करती है। उच्च शिक्षा की खस्ता हालत के लिए यही संस्था जिम्मेदार है। उसने व्यवस्था बना रखी है कि विश्वविद्यालयों के अध्यापकों को वेतन एवं अन्य सुविधाएं मिलती रहें चाहे वे शोध करें या न करें, पढ़ाएं या न पढ़ाएं।

पूरी व्यवस्था नौकरशाही के जंजाल में फंसी है

एक केंद्रीय विवि के कुलपति ने मुझे बताया कि प्रोफेसरों से दिन में दो कक्षाएं पढ़वाना भी कठिन है। पूरी व्यवस्था नौकरशाही के जंजाल में फंस गई है। इस समस्या के निदान के लिए सरकार ने 62 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता देने की घोषणा की है। इनमें जेएनयू, एएमयू और बीएचयू प्रमुख हैं। यह स्वागतयोग्य पहल है। इन विश्वविद्यालयों ने बेहतर प्रदर्शन करके दिखाया है और इनके ऊपर यूजीसी का नियंत्रण एक लालफीताशाही वाली बाधा है, लेकिन शेष विश्वविद्यालयों में भी सुधार करना जरूरी है। उपाय यह है कि सभी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग तैयार की जाए। रैंकिंग के मानदंडों में अकादमिक पत्रिकाओं में

प्रकाशित पर्चे, विदेशी कांफ्रेंस और उनमें आमंत्रित प्रोफेसरों की संख्या, आइआइटी, आइआइएम, इत्यादि परीक्षाओं में कितने छात्र उत्तीर्ण हुए, प्रति प्रोफेसर कितनी रकम अर्जित की गई, अंतरराष्ट्रीय और घरेलू विद्यार्थियों का अनुपात जैसे मानदंड बनाए जा सकते हैं। इसके बाद सरकार को इस रैंक के अनुसार धन वितरित करना चाहिए।

इसका परिणाम यह होगा कि जिन विश्वविद्यालयों द्वारा अच्छा कार्य किया जा रहा है उन्हें सहज ही अधिक रकम मिलेगी और जिनके द्वारा घटिया कार्य किया जा रहा है उन्हें कम वित्तीय अनुदान मिलेगा। यह व्यवस्था लागू करने के बाद प्रत्येक विश्वविद्यालय को यह स्वायत्तता दी जा सकती है कि वे नए कोर्स की रूपरेखा तैयार कर सकें, नए केंद्र स्थापित कर सकें और विद्यार्थियों की फीस निर्धारित कर सकें। ऐसा करने से जो विश्वविद्यालय अच्छा कार्य करते हैं उन्हें प्रचुर मात्रा में संसाधन मिलेंगे और उनकी राह आसान होगी। जो विश्वविद्यालय कमतर प्रदर्शन करते हैं उनके पर कतरे जाएं। इससे देश के युवाओं के भविष्य को बर्बाद होने से बचाया जा सकेगा।

सरकारी अनुदान निजी विश्वविद्यालयों को भी दिया जाना चाहिए

सरकारी अनुदान केवल सरकारी विश्वविद्यालयों को नहीं, बल्कि निजी विश्वविद्यालयों को भी दिया जाना चाहिए। सरकार द्वारा उच्च शिक्षा में वित्तीय अनुदान इसलिए दिया जाता है कि शिक्षित छात्रों से समाज को अतिरिक्त लाभ मिलता है, चाहे छात्र सरकारी विश्वविद्यालय में शिक्षित हुआ हो अथवा निजी विश्वविद्यालय में। इसलिए सरकार को निजी विश्वविद्यालयों को भी वित्तीय अनुदान देना चाहिए। देश का एक प्रमुख निजी उच्च शिक्षा संस्थान इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस है। यह अकेली भारतीय संस्था है जो वैश्विक रैंकिंग के 20 शीर्ष बिजनेस स्कूलों में अपना स्थान बना सकी है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के प्रमुख राज सिन्हा बताते हैं कि सिंगापुर, दुबई और कतर जैसे देशों में विदेशी विश्वविद्यालयों को मुफ्त बुनियादी सुविधाएं दी जाती हैं ताकि वे अपने शैक्षणिक परिसर स्थापित करें। यदि श्रेष्ठ गुणवत्ता की शिक्षा निजी विश्वविद्यालयों को अनुदान देने से हासिल होती है तो उन्हें भी अनुदान दिया जाना चाहिए।

वास्तव में सरकारी विश्वविद्यालयों को अनुदान कम और निजी विश्वविद्यालयों को अधिक अनुदान दिया जाना चाहिए, क्योंकि सरकारी विश्वविद्यालयों को भूमि, बिल्डिंग इत्यादि बुनियादी संरचना सरकार ने पहले ही उपलब्ध करा रखी है जबकि निजी विश्वविद्यालय इस बुनियादी संरचना को अपने धन से स्थापित करते हैं। ऐसा करने से निजी विश्वविद्यालयों का विकास होगा और देश में उच्च शिक्षा का प्रसार होगा। सरकारी विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता से फीस बढ़ाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। यह सामाजिक न्याय पर आघात होगा, क्योंकि आम आदमी के लिए सरकारी विश्वविद्यालयों में ही उच्च शिक्षा पाना सुलभ होता है। इस समस्या का समाधान यह है कि उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को भी मुफ्त वाउचर दिए जाएं।

पूरे देश में नीट की तर्ज पर एक परीक्षा कराई जाए। इस परीक्षा के श्रेष्ठ एक प्रतिशत छात्रों को प्रति माह 50 हजार रुपये का वाउचर दिया जा सकता है। जो छात्र श्रेष्ठ दो से दस प्रतिशत छात्रों में अपना स्थान बनाते हैं उन्हें 25 हजार रुपया प्रति माह और जो छात्र 11 से 25 प्रतिशत श्रेष्ठ छात्रों में स्थान बनाते हैं उन्हें 10 हजार रुपये प्रति माह का मुफ्त वाउचर दिया जा सकता है। इससे जहां छात्रों के लिए विकल्प बढ़ेंगे, वहीं विश्वविद्यालयों के लिए जरूरी हो जाएगा कि वे अपनी गुणवत्ता सुधारें जिससे उन्हें ये वाउचर अधिक मात्रा में मिलें और उनकी आय बढ़े।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]