सुधीर कुमार। बीते दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आरंभ की गई ओडीओपी (एक जनपद : एक उत्पाद) योजना को पूरे देश में लागू करने की घोषणा की थी। दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यह योजना जनवरी 2018 को प्रारंभ की गई थी। केंद्र सरकार अब इस योजना के दायरे का विस्तार कर इसे केंद्रीय स्तर पर लागू करने पर विचार कर रही है। इससे कारीगरों और शिल्पकारों समेत किसानों की भी आय बढ़ाने में सहायता मिलेगी।

ओडीओपी स्कीम का मकसद यूपी में विशिष्ट पारंपरिक उत्पाद औद्योगिक केंद्रों की स्थापना कर उन पारंपरिक उद्योगों का विस्तार करना है, जो राज्य के संबंधित जनपदों के पर्याय हों। इस योजना के तहत उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जनपद को एक विशिष्ट उत्पाद या कला से जोड़कर उसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है। किसी क्षेत्र के खास उत्पाद एवं हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने से उस कला या उत्पाद विशेष को तो नया जीवन मिल ही रहा है, कारीगरों के जीवन में भी बदलाव आ रहा है।

ओडीओपी स्कीम के तहत प्रदेश सरकार ने पांच वर्षो में 2,500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता के जरिये 25 लाख लोगों को रोजगार दिलाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस स्कीम से उत्तर प्रदेश की जीडीपी में दो फीसद की वृद्धि की उम्मीद जताई गई है। इस योजना से एक ओर जहां ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय उत्पादों के लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाजार के द्वार खुलेंगे। उत्तर प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है, जिसका हस्तशिल्प उत्पादों के निर्यात में 44 फीसद तक की हिस्सेदारी है।

राज्य के हर जनपद को किसी विशेष कला एवं उत्पाद के लिए जाना जाता है। हालांकि सरकारी उपेक्षा, महंगी बिजली, बाजारों में चीन के उत्पादों की भरमार और इन उत्पादों की मांग में कमी आने तथा प्रोत्साहन के अभाव में कई परंपरागत उद्योग लुप्त होने के कगार पर हैं। कारीगर पीढ़ियों से अपने आस-पास उपलब्ध संसाधन से कोई न कोई खास उत्पाद को तैयार तो कर रहे हैं, लेकिन तकनीक एवं पूंजी की कमी के चलते वह बदलते बाजार की प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते हैं।

देश में ऐसे अनगिनत स्थानीय उद्योग हैं, जिनकी पहचान एक सशक्त कुटीर उद्योग के रूप में रही है। लेकिन अब हालात ये हैं कि जो परिवार वर्षो से इन व्यवसाय से जुड़े रहे हैं, आज उनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट आ गया है! यही वजह है कि बड़ी संख्या में इन उद्योगों में शामिल लोगों का मोहभंग हो रहा है। हालांकि ओडीओपी योजना के लागू होने के बाद कारीगरों को अपने परंपरागत उद्योगों से जुड़े रहने की एक बड़ी वजह मिल गई है।

स्थानीय उत्पादों को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने तथा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए इस योजना को विश्व के कई देशों में गांव, उप-जिला, शहर अथवा जिला स्तर पर पहले भी लागू किया जा चुका है। इस तरह के योजना की अवधारणा सबसे पहले जापान में अपनाई गई थी। वहां वर्ष 1979 में सरकार ने इसे गांव स्तर पर लागू करते हुए ‘वन विलेज, वन प्रोडक्ट’ (एक गांव, एक उत्पाद) योजना के रूप में अपनाया था, जो अपने मकसद में कामयाब रही थी। उसके उपरांत चीन में 1989 में यह योजना ‘वन टाउन, वन प्रोडक्ट’ के नाम से लागू की गई।

भारत में प्राचीन काल से ही भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के बाद आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता के विकास के लिए लघु उद्योगों के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। वर्ष 1948 में देश में कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई। कई पंचवर्षीय योजनाओं और औद्योगिक नीतियों के माध्यम से कुटीर उद्योगों को संवारने की कोशिशें की गईं।

ओडीओपी योजना के जरिये स्थानीय शिल्प के संरक्षण एवं विकास पर विशेष बल दिया जा रहा है। इससे स्थानीय कला एवं तकनीक का विस्तार तो होगा ही, शिल्पकारों तथा कारीगरों की आय में वृद्धि के साथ बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन भी किया जाएगा। संरक्षण के अभाव में कई उत्पाद व कलाएं दम तोड़ देती हैं। इस तरह की योजना से उसे पुनर्जीवित किया जा सकेगा। इससे स्थानीय उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार एवं उससे जुड़े कारीगरों की दक्षता में वृद्धि होगी तथा स्थानीय उत्पादों को पर्यटन से जोड़ना तथा उसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाना आसान होगा।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी ‘एक गांव, एक उत्पाद’ योजना के पक्षधर थे। वे अक्सर युवा उद्यमियों को गांवों में जाकर वहां के स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की अपील करते थे। चूंकि कुटीर उद्योग का ढांचा कम पूंजी के सहारे खड़ा किया जा सकता है और इसका उत्पादन प्राय: घर के सदस्यों के सहयोग से ही हो जाता है, इसलिए इस तरह के उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय रहे हैं। कम लागत में अधिक मुनाफा देने के अलावा यह परिवारों को आत्मनिर्भर भी बनाता है।

राष्ट्रीय आय की वृद्धि में लघु उद्योगों का महत्वपूर्ण योगदान है। महात्मा गांधी ने गांवों के विकास में लघु एवं कुटीर उद्योग की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहा था- जब तक हम ग्राम्य जीवन को पुरातन हस्तशिल्प के संबंध में पुन: जागृत नहीं करते, हम गांवों का विकास एवं पुनर्निर्माण नहीं कर सकेंगे। अत: स्थानीय हस्तशिल्प कला व उत्पाद को सहेजने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्येता हैं)