नीरजा माधव। भारत की स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने सैकड़ों वर्षों की बौद्धिक परतंत्रता और दासता को मिटा कर भारतीय राजनीति को एक सर्वप्रिय और वैश्विक स्वरूप प्रदान करने की जो कोशिश की, उसे गणतंत्र दिवस पर गहराई से समझना आवश्यक है। कुछ कम्युनिस्ट विचारकों ने धर्म को मजहब के समानार्थी मानने की भूल करते हुए सनातन धर्म के शाश्वत मानव मूल्यों को संकीर्ण दृष्टि से समझने का जो कार्य किया, उसे मिटाते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय जीवन-पद्धति को धर्म का मूल मानते हुए राष्ट्र के कल्याण के लिए उनका सूत्र वाक्य में प्रयोग किया और धर्म शब्द की वास्तविक व्याख्या की। यूरोपीय विचारक और वामपंथी इतिहासकार भारत के जीवन दर्शन की जिस गहराई की थाह नाप भी न सके, उसे स्वतंत्रता बाद संविधान निर्माताओं और चिंतकों ने पुन: व्याख्यायित करने का काम किया तथा उसके स्वरूप को स्पष्ट किया। इसी कारण 'धर्मचक्र प्रवर्तनाय' को भारतीय संसद के प्रेरणा वाक्य के रूप में स्वीकार किया गया तो भारत की न्यायपालिका का प्रेरणा वाक्य बना-'धर्मो रक्षति रक्षित:।'

भारतीय संविधान की मूल प्रति में जिन सांकेतिक चित्रों का प्रयोग हुआ है, वे भी भारतीय संस्कृति से ही लिए गए हैं, परंतु दुर्भाग्यवश हमारे इस संविधान का मूल स्वरूप आम लोगों को सहज उपलब्ध नहीं है। संविधान का जो पाठ बाजारों में उपलब्ध है, प्राय: उसमें वे सांकेतिक चित्र नहीं दिए होते। संविधान के जिस भाग में भारतीय नागरिकता का उल्लेख है, उस भाग का प्रारंभ वैदिक काल के गुरुकुल से किया गया है। ऐसा गुरुकुल जहां वैदिक उपनिषदों का पाठ हो रहा है और हवन भी हो रहा है। वैदिक ऋषि द्वारा किया जाने वाला यह हवन ही भारतीय संस्कृति के मूल तत्व को बताने के लिए पर्याप्त है। इसी प्रकार संविधान के भाग तीन में, जहां मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है उसका प्रारंभ राम, सीता और लक्ष्मण के चित्रों से किया गया है। भारतीय संविधान के इस स्वरूप को सांस्कृतिक आधार देने के निमित्त भगवान शंकर, भगवान कृष्ण, भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के भी चित्र हैं। संविधान में दिए गए इन चित्रों का तात्पर्य भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि को रेखांकित करना ही है। ये चित्र भारत के इतिहास की ओर भी संकेत करते हैं। दुर्भाग्य से भारत के विभिन्न दल सेक्युलरिज्म की आड़ में अल्पसंख्यकवाद, अलगाववाद जैसी छिछली राजनीति कर वोट बैंक तक अपनी पहुंच बनाने के फेर में भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को ही दृष्टि ओझल करने की कोशिश करते रहे हैं।

भारतीय राजनीति से जुड़े अधिकांश लोगों में अपनी संस्कृति के तत्वों को लेकर विभ्रम और अनभिज्ञता की स्थिति रही। आज भी अधिकांश लोग भारत के पूरे सांस्कृतिक चरित्र को पश्चिमी चश्मे से देखना चाहते हैं। सबसे अधिक विभ्रम अंग्रेज इतिहासकारों और विचारकों ने फैलाया। उनकी हां में हां मिलाते हुए भारतीयता विरोधी कुछ भारतीय विचारकों एवं लेखकों ने भी उसे फैलाया। इन सबके पीछे एक ही लक्ष्य था-भारत को मानसिक स्तर पर विभाजित रखना। पहले आर्य और द्रविड़ में विभाजन किया। बाद में यह स्थापित करने लग गए कि भारत कभी एक संगठित राष्ट्र के रूप में नहीं रहा और न ही वह कभी सांस्कृतिक या राजनीतिक इकाई के रूप में पहचाना गया। इस दुष्प्रचार ने धीरे-धीरे भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता पर विपरीत असर डाला। यदि बार-बार किसी झूठ को दोहराया जाए तो एक समय के बाद वह सत्य सा प्रतीत होने लगता है।

भारत की प्राचीन राजनीति का आधार आध्यात्मिक चिंतन है, परंतु उद्देश्य सर्वदा ही मानव मात्र का कल्याण रहा है। संविधान के 'मौलिक अधिकारों' वाले भाग के पहले प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण का चित्र देकर यह संकेत भी दिया गया है कि 'रामराज्य' तभी आ पाएगा, जब नागरिकों को विधि के सामने समानता का अधिकार प्राप्त हो। चाहे वह शिक्षा या अभिव्यक्ति की समानता हो या शोषण, जातीयता, लिंगभेद आदि के विरुद्ध समानता का अधिकार हो। इसी प्रकार संविधान के 'राज्य के नीति निर्देशक तत्व' वाले भाग से पहले भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन को उपदेश देने का चित्र रखने के पीछे भी भारतीय राजनीति में नीतिगत व्याख्या का प्राचीनतम स्वरूप दिग्दर्शित करने का ही भाव निहित है। लोक कल्याण के लिए व्यक्ति के क्या कर्तव्य हैं? नीति को निर्धारित करने वाले कौन से तत्व हैं? इन सबका विशद विवेचन श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में अर्जुन को ज्ञान देते हुए किया है। इस सबके पीछे एक ही उद्देश्य है कि राष्ट्र की वर्तमान भावना को भारत की हजारों वर्षों पुरानी संस्कृति और उसके प्रतीकों के साथ भी जोड़ा जाए, तभी इस राष्ट्र की विशेषता को विश्व समुदाय पहचान पाएगा।

राष्ट्र केवल एक भौगोलिक या राजनीतिक इकाई ही नहीं होता। राष्ट्र सबसे पहले व्यक्ति की चेतना में पैदा होता है। उस राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के भीतर रागात्मक लगाव उसे उत्तराधिकार में प्राप्त होता है। वैसे ही जैसे राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन, इतिहास, परंपराएं, परिवेश और स्मृतियां हमें सहजता से उत्तराधिकार में प्राप्त होती हैं। हमारा संविधान हमारी उसी राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक माना जाना चाहिए। राष्ट्रीय चेतना से जुड़े इन प्रतीकों को रेखांकित करने, सम्मानित करने और साथ ही उनका गौरव गान करने की आवश्यकता है। यह एक शुभ संकेत है कि पिछले कुछ वर्षों से यह काम किया जा रहा है और इस क्रम में उन परंपराओं का परित्याग किया जा रहा है, जो ब्रिटिश राज के दौरान स्थापित की गईं और किन्हीं कारणों से स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहीं।

(लेखिका साहित्यकार हैैं)