सुरेंद्र किशोर। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में मोदी सरकार की ओर से लिए गए ऐतिहासिक फैसले के बाद से शिमला समझौता की व्यापक चर्चा हो रही है। 3 जुलाई, 1972 को हुए इस समझौते के बारे में यह बात कम लोग ही जानते हैं कि उसकी धज्जियां पाकिस्तान के तत्कालीन शासक जुल्फीकार अली भुट्टो ने उसी जुलाई महीने में ही उड़ानी शुरू कर दी थी।

इसीलिए यह कहा जाता है कि भारतीय सेना ने तो युद्ध में फतह हासिल की, लेकिन हमारे हुक्मरानों ने समझौते की मेज पर सेना द्वारा हासिल लाभ गंवा दिया। ताशकंद समझौते में भी ऐसा ही हुआ था। ताशकंद समझौते के खिलाफ केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने अपना इस्तीफा तक दे दिया था। वह ताशकंद समझौते की कुछ शर्तों से असहमत थे।

लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने थे। शास्त्री मंत्रिमंडल के सारे सदस्य नंदा मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिए गए। जब ताशकंद समझौते पर मुहर लगाने के लिए मंत्रिमंडल की बैठक हुई तो बहुत देर तक ताशकंद समझौते पर विवाद होता रहा।

समझौते के कई तत्व बहुत ही गंभीर
महावीर त्यागी ने लिखा है, ‘जब इस समझौते को स्वीकार करने का प्रस्ताव आया तो मैं कैबिनेट छोड़कर बाहर आ गया और अपना त्यागपत्र नंदा जी के पास भेज दिया।’ अपने इस्तीफे के बाद त्यागी जी ने कहा कि उनकी समझ से पाकिस्तान और भारत तब तक अच्छी तरह उन्नत और संपन्न नहीं बनेंगे जब तक इन दोनों देशों में एकता स्थापित नहीं हो जाती। उन्होंने लिखा कि ताशकंद समझौते के मूल ध्येय से भी मैं सहमत हूं, लेकिन इस समझौते की कुछ बातें ऐसी हैं जो हमारी सरकार और हमारी पार्टी की ओर से की गई घोषणाओं के विपरीत हैं। इस समझौते के कई तत्व बहुत ही गंभीर हैं।

हाजी पीर की चौकियों को छोड़ना भयंकर भूल
केवल भारत के रक्षा मंत्री की हैसियत से ही नहीं, बल्कि विश्व युद्ध के सैनिक की हैसियत से मेरे कुछ निजी अनुभव हैं। उनके आधार पर मैं कह सकता हूं कि जीती हुई हाजी पीर की चौकियों को छोड़ना भयंकर भूल होगी, विशेष कर तब जब पाकिस्तान अपने छापामारों, गुप्तचरों और बिना वर्दी के हथियारबंद सैनिकों को वापस बुलाने और भविष्य में ऐसे आक्रमण न करने को कटिबद्ध नहीं होता।

हथियारबंद पाकिस्तानियों को वापस बुलाने का जिक्र
महावीर त्यागी ने यह भी लिखा है कि ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद पाकिस्तानी नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि ‘समझौते में हथियारबंद पाकिस्तानियों को वापस बुलाने का जो जिक्र है उसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने हथियारबंद छापमारों को भी कश्मीर से वापस बुलाएंगे। इसी तरह एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का अर्थ यह नहीं है कि हम जम्मू-कश्मीर में कोई दखल न दें, क्योंकि इस क्षेत्र को पाकिस्तान अपना निजी क्षेत्र मानता है।’

शिमला समझौता के बाद पाकिस्तानी संसद में भुट्टो का भाषण
ताशकंद समझौते जैसा हश्र शिमला समझौते का भी हुआ। शिमला समझौते पर दस्तखत करके पाकिस्तान लौटने पर पाकिस्तानी संसद में अपने 165 मिनट के भाषण में भुट्टो ने कहा था, ‘हम पाकिस्तान की जनता की ओर से यह आश्वासन देना चाहते हैं कि ज्यों ही कश्मीर की जनता अपना मुक्ति आंदोलन शुरू करती है, पाकिस्तान के लोग उनकी हर प्रकार से सहायता करेंगे।

वे इस सिलसिले में अपना खून बहाने से भी नहीं हिचकिचाएंगे।’ पाकिस्तान के युद्धबंदियों पर भुट्टो का कहना था कि ‘भारत उन्हें अधिक देर तक नहीं रख सकता। हम इस सिलसिले में विश्व जनमत बनाने का प्रयास करेंगे।’ भुट्टो ने यह भी कहा, ‘इस समझौते से कश्मीर के बारे में हमारे किसी प्रकार के सिद्धांतों का हनन नहीं हुआ है। पाकिस्तान कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाने को स्वतंत्र है।’

भारत का आत्मसमर्पण 
शिमला समझौते के समय अटल बिहारी वाजपेयी शिमला में ही थे। समझौते के बाद वाजपेयी ने जो कुछ कहा, इतिहास ने उसे सच साबित किया। वाजपेयी ने तभी कह दिया था, ‘यह भारत का आत्मसमर्पण है, क्योंकि दोनों देशों के विवादों पर कोई समझौता न होने पर भी भारत पाकिस्तानी इलाकों से भारतीय सेनाओं को हटा लेने पर सहमत हो गया।’

याद रहे कि समझौते के अनुसार पाकिस्तान को 69 वर्ग मील भारतीय इलाका खाली करना था तो भारत को 5139 वर्ग मील पाकिस्तानी इलाका। शिमला समझौते पर तत्कालीन विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह का कहना था कि दोनों देशों ने भारतीय उप महाद्वीप में स्थायी शांति की स्थापना के उद्देश्य से बातचीत में भाग लिया, लेकिन सब जानते हैं कि शांति स्थायी रूप नहीं ले सकी।

घुसपैठिये लगातार कश्मीर में फैलाते रहे आतंक
यदि ताशकंद और शिमला में भारत ने पाकिस्तान से कड़ी सौदेबाजी की होती तो स्थायी शांति की जमीन तैयार हो सकती थी। ध्यान रहे ताशकंद समझौते के जरिये भी भारत ने जीती हुई महत्वपूर्ण भूमि पाकिस्तान को लौटा दी थी। उसी जमीन से घुसपैठिये लगातार कश्मीर में प्रवेश करके आतंक फैलाते रहे।

पाकिस्तान हर बार गैर भरोसमंद पक्षकार ही साबित हुआ है। वह झूठ बोलने और अपने लोगों समेत दुनिया को भरमाने में माहिर है। यह किसी से छिपा नहीं कि बालाकोट में एयर स्ट्राइक पर उसका यही कहना था कि भारत चंद पेड़ों को नुकसान पहुंचाने के अलावा कुछ खास नहीं कर सका।

दोनों देशों ने लिया था संकल्प
अब यह कह रहा है कि भारत बालाकोट से भी बड़े हमले की तैयारी में है। शिमला समझौते के तहत दोनों देशों ने संकल्प लिया था कि वे अपने मतभेदों को द्विपक्षीय वार्ता द्वारा शांतिपूर्ण उपायों से हल करेंगे और दोनों देशों की सरकारें अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक-दूसरे के खिलाफ घृणित प्रचार नहीं करेंगी।

समझौते का मुख्य बिंदु
इसमें यह भी कहा गया था कि आपसी संबंधों में सामान्य स्थिति लाने की दृष्टि से सुविधाओं का आदान-प्रदान होगा और दोनों देशों की सेनाएं अपनी सीमा में लौट जाएंगी। समझौते का एक बिंदु यह भी था कि जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर, 1971 को हुए युद्ध विराम के तहत नियंत्रण रेखा को मान्य रखेंगे। इस समझौते को लागू करने के लिए किसने क्या प्रयास किए, इसे बयान करने के लिए 1972 के बाद की घटनाएं पर्याप्त हैं। कश्मीर में आतंक फैलाए रखने में पाकिस्तान की मुख्य भूमिका रही है। वह वहां खुले आम जिहाद छेड़ने की बात करता है।

शिमला में दोहराया गया ताशकंद
कश्मीर में पाकिस्तान की बेजा हरकतें भारत की ओर से उसके प्रति दिखाई गई उदारता का नतीजा हैं। क्या शिमला समझौते में शामिल भारतीय पक्ष ताशकंद समझौते के बाद के अनुभव से परिचित नहीं था? जरूर परिचित रहा होगा। 90 हजार सैनिकों और करीब 5 हजार वर्ग मील पाकिस्तानी भूभाग पर भारतीय सेना के कब्जे के बावजूद भारत सरकार पाकिस्तान को कोई ठोस सबक नहीं सिखा सकी।

शिमला में एक तरह से ताशकंद दोहराया गया। यदि अब ऐसा कोई अवसर आए तो यही उम्मीद की जाती है कि मौजूदा सरकार ताशकंद और शिमला वाली गलती नहीं करेगी। इसी के साथ यह भी उम्मीद की जाती है कि हमारी सरकार उस पुरानी धारणा से भी इस देश को मुक्त करेगी कि भारतीय अपने इतिहास से नहीं सीखते।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 

इसे भी पढ़ें: रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दिया ‘शिमला समझौते’ का हवाला, कहा- कश्‍मीर में मध्‍यस्‍थता का सवाल ही नहीं