बलबीर पुंज। यह आश्चर्य ही है कि महज 60 घंटे के भीतर पाकिस्तान की कैद से भारतीय विंग कमांडर अभिनंदन सुरक्षित भारत वापस लौट आए। इतिहास में ऐसा आज तक नहीं हुआ था। पिछले सात दशकों में जो भी भारतीय सैनिक, पाकिस्तान के कब्जे में गया उसे या तो अमानवीय यातनाएं झेलनी पड़ीं या फिर क्षत-विक्षत हालत में उसका शव भारत भेज दिया गया। शहीद कैप्टन सौरभ कालिया, सेवामुक्त फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता, एयर कमोडोर जेएल भार्गव आदि इसके उदाहरण हैं।

आज की तरह इन युद्धों के समय भी जेनेवा संधि-1949 लागू थी। इस पृष्ठभूमि में विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान ने कुछ ही घंटों में क्यों छोड़ दिया? क्या वाकई पाकिस्तान बदल गया है या यह सब नए भारत की सामरिक-आर्थिक शक्ति के कारण संभव हुआ?

भारत में एक वर्ग अभिनंदन की रिहाई का श्रेय जिनेवा संधि के साथ-साथ प्रधानमंत्री इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान की बदली हुई मानसिकता और उदारता को दे रहा है। जो ऐसा सोच रहे हैं, क्या उन्होंने पाकिस्तानी सरकार के मंत्री अली मोहम्मद खान और स्वयं इमरान खान के हालिया बयानों पर विचार किया?

सीमा पर तनाव के बीच 28 फरवरी को पाकिस्तानी संसद में इमरान ने टीपू सुल्तान को अपने देश का नायक बताया। उसी दिन पाकिस्तान के संसदीय कार्यमंत्री और तहरीक-ए-इंसाफ (इमरान की पार्टी) नेता अली मोहम्मद खान ने स्थानीय न्यूज चैनल पर कहा, 'इमरान साहब ने तो अभी टीपू सुल्तान ही याद कराया है, मैं मोहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनवी भी याद कराना चाहूंगा। गजनवी कौन था? उसने आप लोगों के साथ क्या किया था? मोदी जी वे लोग तो पांच लाख थे, अगर पाकिस्तान के 22 करोड़ लोग और भारत के लगभग 30 करोड़ लोग-इस्लाम के नाम पर खड़े हो गए तो क्या करोगे? फिर गंगा-जमुना नहीं, अरब आपका ठिकाना होगा। संभल जाओ, गजवा-ए-हिंद तो होना ही है।’

आखिर यह गजवा-ए-हिंद क्या है? इस मजहबी अभियान के अंतर्गत आठवीं शताब्दी से जिहादी काफिरों यानी हिंदुओं पर विजय प्राप्त कर भारतीय उपमहाद्वीप में निजाम-ए-मुस्तफा को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं जिसमें मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी से लेकर बाबर और अब जैश ए मुहम्मद सरगना मसूद अजहर जैसे आतंकी शामिल हैं। जिस विषाक्त चिंतन ने इन लोगों को जिहाद की प्रेरणा दी उसी के गर्भ से 72 वर्ष पहले पाकिस्तान का जन्म हुआ था।

यक्ष प्रश्न है कि अपनी इस वैचारिक पृष्ठभूमि में पाकिस्तान ने अभिनंदन को जल्दी क्यों छोड़ दिया? इसके दो मुख्य कारण हैं: पहला, यदि भारतीय जवान को पाकिस्तानी कैद में क्षति पहुंचाई जाती तो भारत की प्रतिक्रिया क्या होती उससे खस्ताहाल पाक पहले से सचेत था।

दूसरा, भारत ने कूटनीतिक स्तर पर जैसे विश्व में पाक विरोधी नाकेबंदी की उसमें चीन ने भी उसका साथ छोड़ दिया। यहां तक कि इस्लामी देशों के प्रभावशाली समूह इस्लामिक सहयोग संगठन यानी ओआइसी ने सदस्य देश के रूप में पाक की आपत्ति को उपेक्षित कर दिया, जिसमें इस संस्था ने 50 वर्ष में पहली बार भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को न केवल आमंत्रित किया, अपितु उन्हें सम्मानीय अतिथि का दर्जा भी दिया।

क्या भारत-पाकिस्तान में शांति संभव है? इस प्रश्न का उत्तर इमरान खान और उनके मंत्री अली मोहम्मद खान के बयानों से स्पष्ट है। इमरान के अनुसार, टीपू सुल्तान पाकिस्तान का नायक इसलिए है, क्योंकि उसने अंग्रेजों के समक्ष सिर झुकाने के बजाय सिर कटाना पसंद किया। यदि ऐसा ही है तो पाकिस्तान क्यों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सैयद अहमद खान को अपना राष्ट्रपुरुष मानता है? पाकिस्तान में दर्जनों संस्थान-भवन सैयद अहमद खान के नाम पर हैं तो अंग्रेजों से लड़ने वाले टीपू सुल्तान के नाम पर पाकिस्तानी नौसेना का एक जहाज पीएनएस-टीपू सुल्तान भी है।

आखिर ऐसी क्या समानता है, जो टीपू और सैयद को पाकिस्तान का नायक बनाती हैं? ब्रितानियों का दोनों के प्रति मत अलग था-टीपू उनका शत्रु था तो सैयद हितैषी। क्या यह सत्य नहीं कि सनातन संस्कृति, सभ्यता और उसके प्रतीक-चिन्हों के प्रति घृणा ने दोनों को पाक में महान बना दिया? मैसूर पर टीपू सुल्तान का लगभग 17 वषों (दिसंबर 1782-मई 1799) तक राज रहा। 22 मार्च 1788 को टीपू ने अब्दुल कादिर को लिखा था, 12 हजार हिंदुओं को इस्लाम से सम्मानित किया गया है। हिंदुओं के बीच इसका व्यापक प्रचार होना चाहिए। एक भी नंबूदिरी (ब्राह्मण) को बख्शा नहीं जाना चाहिए।

कर्नल विल्क्स द्वारा लिखित हिस्टोरिकल स्केचेस, केपी पद्मनाभ मेनन की हिस्ट्री ऑफ कोचिन स्टेट, विलियम लोगान की मालाबार मैन्युअल के अलावा केएम पणिक्कर और इलमकुलम कुंजन पिल्लई ने अपनी पुस्तकों में टीपू के शासन में हुए हिंदुओं के भयावह उत्पीड़न, हत्या और मतांतरण का उल्लेख किया है। जिस जिहादी मानसिकता से टीपू सुल्तान ग्रस्त रहा, कालांतर में उसी रूग्ण चिंतन से युक्त सैयद अहमद खान ने भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद और दो-राष्ट्र सिद्धांत का बीज अंकुरित किया। 16 मार्च 1888 को मेरठ में उन्होंने कहा था, क्या हिंदू और मुसलमान एक ही सिंहासन पर बराबर के अधिकार से बैठ सकेंगे? नहीं। 700 वषों तक जिन पर हमने शासन किया, उनके अधीन रहना हमें अस्वीकार्य है।

आज पाकिस्तानी जनप्रतिनिधि खुलेआम इस्लाम के नाम पर जैसे मुसलमानों को गजवा-ए-हिंद के लिए उकसा रहे हैं, वैसे ही लगभग डेढ़ सौ साल पहले सैयद अहमद ने उपमहाद्वीप में मुस्लिमों के बड़े वर्ग को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से रोक दिया था।

दुर्भाग्य है कि भारत में कुछ लोग टीपू और सैयद अहमद को अपना आदर्श मानते हैं। इस विकृति का कारण वह विदेश आयातित वामपंथी दृष्टिकोण है जिसमें सनातन सभ्यता, बहुलतावादी संस्कृति और उसके प्रतीक-चिन्हों के प्रति घृणा है। जब 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना के 12 मिराज-2000 लड़ाकू विमानों ने हवाई हमला करते हुए पाकिस्तान में जैश-ए-मुहम्मद के ठिकाने ध्वस्त किए तब इस घटना ने भारत-पाकिस्तान रिश्तों को नए रूप में परिभाषित कर दिया।

यदि सीमापार से भारत को छद्म युद्ध के माध्यम से घाव दिए जाते रहे तो भारत प्रतिक्रियास्वरूप प्रत्यक्ष युद्ध करने से भी पीछे नहीं हटेगा। क्या निकट भविष्य में भारतीय उपमहाद्वीप में शांति संभव है? शायद नहीं, क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध फिलहाल टल गया है, किंतु जिन कारणों से यह स्थिति पैदा हुई वह इस भूखंड पर अब भी विद्यमान है। जब तक काफिर-कुफ्र की रूग्ण मानसिकता भारतीय उपमहाद्वीप के एक वर्ग को प्रभावित करती रहेगी तब तक अमन-चैन कठिन है।

 

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)