पूरा ब्रह्मांड नियम से बंधा हुआ है और नियम के बिना सब कुछ स्थिर है। प्रकृति की तरह मनुष्य को भी व्यवस्थित जीवन जीने के लिए नियमों का पालन करना होता है। जो मनुष्य नियमबद्ध तरीके से जीवन जीता है, उसका जीवन आनंदमयी रहता है, जबकि इसके विपरीत नियमरहित जीवन जीने वाले मनुष्य को एक समय के बाद अपना जीवन भार लगने लगता है। प्रकृति भी जब अपने नियम से हटती है, तब विकराल घटनाएं घटती हैं और विध्वंस होता है। ऐसे में प्रकृति और जीवन दोनों में नियमबद्धता आवश्यक है। किसी भी तरह का सृजन नियम के बिना नहीं हो सकता और यह सब सहजता से होता है। जिस तरह बीज एक दिन में ही पेड़ नहीं बनता, उसी तरह मनुष्य के प्रत्येक कार्य में भी सहजता होनी चाहिए। मनुष्य को कठिनाई महसूस करने के बजाय सतत रूप से प्रयासरत रहना चाहिए। उसे अपनी सभी इच्छाओं और अभिलाषाओं को त्यागकर कर्म करना चाहिए और अपने मन में यह विश्वास कायम करना चाहिए कि यदि किसी कारणवश वह उचित फल प्राप्त करने में असफल होता है तो वह निराश-हताश नहीं होगा, बल्कि पुन: प्रयासरत रहेगा। हो सकता है कि प्रकृति ने उसके लिए इससे भी अच्छा सोच रखा हो।
दरअसल मनुष्य को भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने का मोह त्याग देना चाहिए। हालांकि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह अपने उद्देश्यों को ही छोड़ दे। उसे केवल परिणाम के प्रति मोह को त्याग करना चाहिए। मनुष्य जैसे ही परिणाम के प्रति मोह छोड़ देता है, वैसे ही वह अपने उद्देश्य को अनासक्ति से जोड़ लेता है। तब वह जो कुछ भी चाहता है, वह उसे स्वत: मिल जाता है। मनुष्य के जीवन में लक्ष्य जरूर होना चाहिए। इससे मनुष्य को जीवन का उद्देश्य पता चलता है और इससे उसके जीवन में स्थिरता आती है। इसके विपरीत लक्ष्यविहीन मनुष्य पशुवत जीवन जीता है। मनुष्य का लक्ष्य क्या हो, इस संबंध में स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि मुक्ति को प्राप्त करना ही हमारा चरम लक्ष्य होना चाहिए। प्रकृति की तरह मनुष्य को भी विनिमय के नियम को अपनाना चाहिए यानी देने और लेने का नियम। इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य जो कुछ भी पाना चाहता है, उसमें पहले उसे दूसरों को देने की तत्परता होनी चाहिए, जिससे पूरे विश्व में जीवन का संचार हो सके।
[ आचार्य अनिल वत्स ]