नई दिल्ली, सच्चिदानंद जोशी। लॉकडाउन के इस दौर में घर बैठे लोगों में वेब सीरीज देखने का चलन बढ़ा है। अधिकांश घरों में आज किसी न किसी सीरीज की चर्चा है। थ्रिलर, रोमांटिक, मर्डर मिस्ट्री, किसी वास्तविक घटना के चित्रण, ऐतिहासिक घटना आदि के सीरियल हैं। ऐसे समय में जब वेब सीरीज पर हिंसा और अश्लील शब्दों की भरमार हो और लोग इस बंधनहीन माध्यम की स्वतंत्रता को स्वच्छंद मानकर उसका नाजायज फायदा उठाने में जुटे हों, तो कोई साफ-सुथरा ईमानदार प्रयास भी कर सकता है, यह सोचकर विश्वास नहीं होता।

सच मानिए जब ‘पंचायत’ देखना शुरू किया तो..: इसलिए प्राइम वीडियो पर जब टीवी एफ के सहयोग से प्रसारित होने वाले ‘पंचायत’ के बारे में पढ़ा तो कोई विशेष उत्सुकता नहीं जगी। खेद इस बात का भी है कि इसकी कोई चर्चा भी नहीं हुई। होती भी कैसे, न ये कोई विवाद जनित कथा थी, न इसमें बड़े कलाकार थे और न ही कोई आपत्तिजनक दृश्य। हमारी त्रासदी ही अब यह हो गई है कि विवाद के बगैर कोई चीज अच्छी नहीं लगती हमें। सच मानिए जब ‘पंचायत’ देखना शुरू किया तो कोई उत्सुकता नहीं थी, लेकिन एपिसोड दर एपिसोड देखता चला गया और पूरा खत्म करके ही दम लिया।

आखिरकार यह ‘विख’ क्या है? : इस वेब सीरीज की कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव फुलेरा की है। इसका नायक अभिषेक जब अपने मित्र को वहां का पता लिखवाता है तो उसमें वह एक शब्द ‘विख’ बोलता है। उसके मित्र को इसका अर्थ समझ में नहीं आता है। वैसे इस पर विस्तार से विचार किया जाए तो हममें से शायद बहुत लोगों को भी यह नहीं समझ आया होगा। आखिरकार यह ‘विख’ क्या है? इसका अर्थ है विकास खंड जिसे अंग्रेजी में ब्लॉक कहते हैं। अब ब्लॉक का उल्लेख हममें से कितने लोगों के पते पर होता होगा, इस बारे में कुछ कहने-लिखने की आवश्यकता नहीं है। यही बात इस सीरीज को रोचक बनाती है। इसमें जो गांव है वो सेट या लोकेशन वाला गांव नहीं है। वह सचमुच का गांव है, जहां न खूबसूरत झरने हैं, न पहाड़ों की वादियां हैं, न पनघट पर पानी भरती हुई महिलाएं हैं, और तो और अत्याचारी जमींदार भी नहीं है इस गांव में। दरअसल हम अब इतने शहरी होते जा रहे हैं कि सही अर्थों में गांव कैसा होता है, या फिर गांव अब किस तरह के हो गए हैं, ये भी भूल गए हैं। हमारी कल्पना के सारे गांव फिल्मी और बनावटी ही हैं।

आप में से कितने लोग गांव की पृष्ठभूमि से आए हैं : कुछ साल पहले रायपुर में सहायक ग्रामीण विकास अधिकारियों के प्रशिक्षण को संबोधित करने का अवसर मिला। ये अधिकारी यानी प्रशासन की पहली कड़ी जो सीधे गांव से जुड़ती है, उसमें सौ से अधिक युवा प्रतिभागी थे जो प्रतियोगी परीक्षा से चयनित होकर आए थे। मैंने उनसे पूछा, आप में से कितने लोग गांव की पृष्ठभूमि से आए हैं। केवल दो हाथ ऊपर उठे। मैंने दूसरा सवाल किया, आपमे में से कितने हैं जो गांव से तो नहीं हैं, फिर भी कम से कम एक हफ्ता कभी गांव में रहे हों। अब छह-सात हाथ उठे। अंत में मैंने सवाल किया, आपमें से कितने हैं जिन्होंने कम से एक रात गांव में गुजारी हो।

उत्तर में फिर भी दस-बारह हाथ ही उठे। ये सभी युवा गांव में अपना करियर शुरू करने आए थे और गांव को लेकर इनकी कल्पना निहायत फिल्मी थी। यह सिर्फ एक उदाहरण है और अपवाद भी हो सकता है। युवा गांव में अपना करियर शुरू तो करने आए थे, लेकिन गांव को लेकर इनकी कल्पना निहायत रूमानी और फिल्मी थी। यह तो केवल एक उदाहरण है। ऐसे और भी बहुत अपवाद हो सकते हैं।

चंदन कुमार ने इसे इतनी वास्तविकता के साथ लिखा है कि इसका एक-एक प्रसंग सजीव हो उठता है। इसकी सबसे विशेष बात यह है कि चुने गए सभी चरित्र न पूरी तरह अच्छे हैं, और न ही पूरी तरह बुरे जो कि वास्तविक जीवन में होता है। हम भी अपने गिरेबान में झांकें और पूछें कि क्या हम पूरे अच्छे या पूरे बुरे हैं? निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा पटकथा के साथ पूरा न्याय करते हुए ईमानदारी से दृश्यों की रचना करते हैं। सब कुछ इतना स्वाभाविक दिखता है कि मानो हमारे ही आंगन में घट रहा है। उनके पास इसे अतिरंजना के चरम तक ले जाने के कई अवसर थे, लेकिन उन्होंने अद्भुत संयम का परिचय दिया।

अभिषेक त्रिपाठी की मुख्य भूमिका में जितेंद्र कुमार हैं और लगता है कि यह सचमुच उनकी ही कहानी है। अन्य पात्रों द्वारा स्थानीय बोली में अभिषेक को ‘अभिसेक’ कहना इस पूरे कथानक को जड़ों से जोड़ देता है। रघुवीर यादव काफी समय के बाद अपनी वास्तविक प्रतिभा जिसके लिए वो जाने जाते हैं, वह दिखा पाए हैं। नीना गुप्ता अपनी दूसरी पारी में और अधिक समर्थ अभिनेत्री बन कर उभरी हैं और अपनी क्षमता में निरंतर परिष्कार करती नजर आती हैं। बाकी सभी पात्र भी बहुत स्वाभाविक और जमीन से जुड़े नजर आते हैं।

ये सीरीज कोयल की कूक की तरह : ‘पंचायत’ का हर एपिसोड व्यक्ति के चरित्र की एक नई छटा को उजागर करता है और इसलिए कहीं भी बोझिल नहीं होता और न ही कही अतिरंजना का शिकार होता है। इन दिनों ऑडियो-विजुअल माध्यम में विशेषकर वेब सीरीज में तो हम अतिरंजना के इतने आदि हो गए हैं कि इसमें भी हम घटना के बारे में बहुत ज्यादा दूर तक सोच लेते हैं, लेकिन उतना कुछ होता नहीं। वर्तमान भयावह दौर में ये सीरीज कोयल की उस कूक की तरह है जो हमें इन दिनों शोरगुल के थम जाने के कारण सुनाई दे रही है।

[सदस्य सचिव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र- नई दिल्ली]