[आशुतोष भटनागर]। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बीते दिनों पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर पर टिप्पणी कर जहां पाकिस्तान की चिंता बढ़ा दी है वहीं देश के भीतर भी एक नई चर्चा प्रारंभ हो गई है। जावड़ेकर ने कहा कि केंद्र सरकार जल्द ही गुलाम कश्मीर पर भी बड़ा कदम उठा सकती है। वह हमारे देश का हिस्सा है और उसे भारत में मिलाना हमारा काम है। अनुच्छेद 370 के हटाए जाने से देश में जारी बहस के बीच इसे भी सरकार के अगले कदम के रूप में देखा जाने लगा है।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम
जम्मू कश्मीर के अधिमिलन के साथ ही पूरी जम्मू कश्मीर रियासत भारत में शामिल हो गई। यह अधिमिलन ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अंतर्गत तय किए गए प्रावधानों के अनुसार हुआ था और पूरी तरह विधिसम्मत था। देश की अन्य सभी रियासतें भी इसी प्रक्रिया से भारत में शामिल हुई थीं। यदि उनके अधिमिलन या विलय पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं हैं तो जम्मू कश्मीर पर प्रश्न खड़ा करना असंभव है। पिछले एक दशक में जम्मू कश्मीर की स्थिति को लेकर अकादमिक समझ में बड़ा बदलाव आया है। उससे पहले ज्यादातर बहस स्थितियों की अपनी समझ और आधी-अधूरी जानकारी पर आधारित थी। आज गोपनीय ब्रिटिश दस्तावेज सार्वजनिक होने के बाद समूचे घटनाक्रम से आवरण हट गया है और सच सामने है।

तथ्य बताते हैं कि पूरे घटनाक्रम में कश्मीर को पाना पाकिस्तान की महत्वाकांक्षा तो थी, लेकिन उसे परवान चढ़ाने का काम एंग्लोअमेरिकन ब्लॉक ने किया था जो तत्कालीन सोवियत संघ और चीन की सीमा पर अपने लिए एक अड्डा चाहता था। विश्व व्यवस्था को अपने इर्द-गिर्द घुमाने की कोशिश में जुटे एंग्लो-अमेरिकन गठजोड़ को यह स्पष्ट था कि उसकी इस योजना में कठपुतली की भूमिका में पाकिस्तान ही आ सकता है, भारत जैसा बड़ा देश नहीं। यह आश्चर्यजनक ही था कि विश्व मंच पर भारत की भूमिका सिमटती गई और पाकिस्तान के मित्रों की संख्या बढ़ती गई।

कूटनीतिक चूक
निस्संदेह इसमें भारत द्वारा की गई कूटनीतिक चूकों का बड़ा योगदान है। लेकिन कड़वा सच यही है कि 1940 के दशक के अंतिम वर्षों और 1950 के दशक में यदि पाकिस्तान भारत पर आक्रमण करने, उसके एक भाग पर कब्जा करने तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के बावजूद उसका पालन न करने और विश्व जनमत को ठेंगा दिखा कर भी वैश्विक मंचों पर समर्थन पाने में सफल रहा तो उसका कारण इन महाशक्तियों द्वारा उसे दिया गया खुला संरक्षण ही था। जिस समय पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के वेश में हमला किया, उस समय भारतीय सेना के प्रमुख अंग्रेज थे, पाकिस्तानी सेना के प्रमुख अंग्रेज थे, और दोनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भी अंग्रेज थे।

गिलगित और बाल्तिस्तान
ब्रिटिश राजघराने से निकट संबंध रखने वाले माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल थे। इसके बावजूद अंग्रेज सेनाधिकारियों वाली पाकिस्तान और भारत की सेनाएं आपस में जूझ रही थीं और ब्रिटिश प्रधानमंत्री इससे निजात पाने के लिए नेहरू को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जाने की सलाह दे रहे थे। पाकिस्तान ने जिस हिस्से पर कब्जा किया उसे दो हिस्सों में बांट दिया। गिलगित और बाल्तिस्तान को उसने अलग कर नॉर्दर्न एरिया का नाम दे दिया। जम्मू का जो क्षेत्र उसने कब्जाया था उसमें कश्मीर का मुजफ्फराबाद क्षेत्र जोड़ कर आजाद कश्मीर के नाम से प्रचारित किया गया। वहां पर उसने आजाद जम्मू कश्मीर नाम से एक सरकार बना दी। दुर्भाग्य से आजाद शब्द की प्रतिक्रिया में भारत में उसे गुलाम कश्मीर कहा जाने लगा। इस तथ्य को भुला कर कि इस तथाकथित आजाद जम्मू कश्मीर में कश्मीर का एक छोटा हिस्सा मुजफ्फराबाद शामिल है जहां कश्मीरी भाषा बोलने वाले लोग नहीं हैं। यहां ज्यादातर लोग पहाड़ी-पंजाबी बोलते हैं।

गुलाम कश्मीर का क्षेत्रफल
आजाद कश्मीर का क्षेत्रफल केवल 13 हजार वर्ग किमी है जबकि गिलगित बाल्तिस्तान का 73 हजार वर्ग किमी। करीब 13 हजार वर्ग किमी के कथित कश्मीर की आजादी और गुलामी बहस के केंद्र में रही। गिलगित बाल्तिस्तान पर पाकिस्तान ने चुप्पी साध ली तो हमने भी उसका नाम तक नहीं लिया। आश्चर्य कि पूरे पाक अधिकृत कश्मीर को कोई अधिकृत संज्ञा भी भारत सरकार की ओर से नहीं दी गई। नेहरू की नीतियों की आलोचना करने वाले भी यह तो कहते हैं कि सेना को अगर 48 घंटे दे दिए जाते तो इतिहास कुछ और होता, लेकिन शायद उनकी नजर भी गिलगित-बाल्तिस्तान के विशाल क्षेत्रफल पर नहीं जाती। पाकिस्तान पर बढ़त बनाए रखने के बावजूद भारत के नीति निर्माताओं के मन में काल्पनिक भय बना रहा। सेना जीतती रही, राजनीति हारती रही।

Pok को वापस लिए बिना भारत अधूरा
वर्तमान सरकार का पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर नजरिया स्पष्ट है। नीतिगत स्तर पर इसमें किसी बदलाव की कोई संभावना भी नहीं है। भाजपा और उसके पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ का शुरू से यह मानना रहा है। हाल की घटनाओं ने सिद्ध किया है कि सरकार वोटबैंक को दांव पर लगा कर भी अपनी नीतियों को लागू करने के लिए तत्पर है। भाजपा और उसके समविचारी संगठनों का काम करने का एक निश्चित तरीका है। वही उनकी सफलता का कारण भी है। वे किसी काम को जल्दी में, आधी-अधूरी तैयारी से करने के बजाय किसी मुद्दे को पहले समाज के बीच स्थापित करते हैं। विरोधियों का मत कुछ भी हो, वे एक बड़े वर्ग को विश्वास में लेकर ही निर्णायक कदम बढ़ाते हैं। अनुच्छेद 370 के मामले में भी यह देखा गया है।

पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लिए बिना भारत अधूरा है। उसकी सुरक्षा और क्षेत्रीय हित दांव पर है। इसलिए आज नहीं तो कल, यह काम पूरा करना ही होगा। देखना यह है कि बिना हिंसा के, युद्ध की संभावना को टालते हुए यह कब और कैसे संभव होगा। यह कदम जब भी उठाया जाएगा, संबंधित पक्षों और वैश्विक शक्तियों को विश्वास में लेकर पूरी तैयारी के साथ ही उठाया जाएगा।
[निदेशक, जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र, दिल्ली]