डॉ. दर्शनी प्रिय। भारत पठन-पाठन की परंपरा का वाहक रहा है। शिक्षा की इस समृद्ध परंपरा ने भारतीय चिंतन शैली को उत्तरोत्तर उन्नत किया है। यहां की जमीन ने विविध विचारों को खाद-पानी देने का काम किया। स्वीकार्यता भारतीय चिंतन परंपरा का मूल तत्व है। देश भर के विश्वविद्यालयों ने अपनी समानुपातिक शिक्षण शैली के जरिये न केवल विभिन्न विचारधाराओं को पनपने का अवसर दिया, अपितु उन्हें एक स्थापित वैचारिक रूप में मान्यता भी दिलाई। स्वामी विवेकानंद इसके पक्षधर थे कि छात्रों को व्यक्ति मूलक शिक्षा के साथ व्यवहार व समतामूलक शिक्षा से भी जोड़ा जाना चाहिए ताकि उनका सर्वागीण विकास सुनिश्चित किया जा सके। वे छात्र स्तर पर संकीर्ण वैचारिकी और अस्मिताई विषमताओं से ऊपर उठकर एक स्वस्थ व संपुष्ट प्रवृत्ति विकसित करने की बात युवाओं तक पहुंचाना चाहते थे।

हाल के वर्षो में देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति संबंधी गतिविधियां तेज हुई हैं। प्रतिशोध आधारित राजनीतिक गतिविधियों ने कैंपस का मिजाज बदला है। विश्वविद्यालय परिसर में होने वाली हलचलों ने अकारण ही राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। जेएनयू दुनिया भर में अपने उत्कृष्ट शिक्षण, उन्नत शोध और समावेशी शिक्षा के लिए जाना जाता रहा है। शोध कार्य का यह अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जिसे मानद शोध की वैश्विक स्वीकार्यता प्राप्त है। भाषा, मानविकी और विज्ञान के क्षेत्र में यह शोध कार्यो का बड़ा केंद्र माना जाता है। अपनी बेजोड़ शिक्षण शैली के चलते ही यह देश-विदेश के छात्रों को लगातार अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है। 

पिछले कुछ समय से देश भर में विश्वविद्यालय परिसरों में लेफ्ट और राइट विचारधारा के बीच संघर्ष बढ़ा है। जेएनयू में लंबे समय से चल रहे छात्र आंदोलन का वीभत्स रूप तब देखने को मिला जब वह हिंसा में तब्दील हो गया। इससे इसकी स्थापित छवि धूमिल हुई। परिसर में राष्ट्रवादी विचारधाराओं के उभार के बाद से कांग्रेस समर्थित वामपंथ को कड़ी चुनौती मिली है, नतीजन वैचारिक मतभेद हिंसा में बदल गया है। नेहरूवियन मॉडल के बाद इंदिरा गांधी ने इस शैक्षिक परंपरा का दायित्व निर्वहन किया। बाद में भारतीय जनता पार्टी के उभार के पश्चात वामपंथ आधारित प्रबुद्ध राजनीतिक चिंतन को एबीवीपी जैसे छात्र संगठनों से कड़ी चुनौती मिलने लगी।

देश के अग्रणी संस्थानों में गिना जाने वाला यह विश्वविद्यालय कतिपय कारणों के चलते दुनिया भर में अपनी नकारात्मक छवि बना रहा है। प्रतिशोध की बलवती होती अग्नि ने इसे प्रेक्षागृह में तब्दील कर दिया है। सर्वहारा और समाज की मुख्यधारा से कटे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों की प्रयोगशाला समझे जानेवाले इस संस्थान को अपनी मजबूत साख बनाने में एक लंबा अरसा लगा है जिसे संकीर्ण खेमेबंदी के चलते धूमिल करने का प्रयास जारी है।

विश्वविद्यालय अपनी अस्मिता और गौरव के साथ खड़े रहे इसके लिए सरकार और परिसर दोनों को मिलकर काम करना होगा। विश्वविद्यालयों की आधारभूत और वैचारिक सुरक्षा की सैद्धांतिक जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी, यह उसके नैतिक कर्तव्यों का हिस्सा है। समय-समय पर उठने वाले छात्रों की मांगों, आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों को दबाने या कुचलने की बजाय उन्हें आदर्श स्थिति में मुखरित होने के अवसर उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। बदले में छात्र भी उग्र राजनीति से परहेज करें और समरसता के महौल में पठन-पठान को बढावा दें। ये संस्थान न केवल शिक्षा व छात्र, बल्कि राष्ट्र-समाज के भी धरोहर हैं। इसे सूक्ति वाक्य के रूप में भीतर उतारा जाना चाहिए। छात्र अपनी प्रबुद्ध व सचेतक भूमिका के साथ इसमें अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) 

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