चंदन कर्ण। केंद्र सरकार ने बोडो समस्या के समाधान का बड़ा कदम उठाया है। भारत सरकार, असम सरकार और बोडो प्रतिनिधियों के बीच इस संबंध में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया गया है। इस समझौते के बाद बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्‍ट्स (बीटीएडी) का नाम बदलकर बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया (बीटीआर) करने का भी फैसला लिया गया। हथियारबंद समूहों ने अलग राज्य की अपनी मांग छोड़ दी है, लिहाजा असम राज्य अखंड बना रहेगा। बीटीएडी वाले चार जिलों में इस समय लगभग 30 फीसद आबादी बोडो जनजातियों की है। इस समझौते में आदिवासियों के भूमि अधिकारों के लिए विधायी सुरक्षा प्रदान करने के साथ बीटीएडी के बाहर के बोडो गांवों के विकास के लिए बोडो-कचारी कल्याण परिषद की स्थापना को मंजूरी दी गई। असम सरकार बोडो भाषा को राज्य में सहयोगी आधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा देगी और बोडो माध्यम वाले स्कूलों के लिए एक अलग निदेशालय की स्थापना भी की जाएगी।

बोडो मुख्यत: ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी हिस्से में बसी असम की एक बड़ी जनजाति है। पहले पहल इन्हीं लोगों ने इन क्षेत्रों में धान की खेती शुरू की थी। अन्य जनजातीय समूहों की तरह बोडो भी अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर संवेदनशील रहे हैं, लेकिन पिछली सदी के शुरुआती वर्षो से ही बांग्लाभाषी लोगों, विशेषकर मुस्लिमों का आव्रजन इस क्षेत्र में बढ़ने लगा। वर्ष 1906 में बने मुस्लिम लीग के संस्थापकों में एक नवाब सलीमुल्लाह ने भी मुसलमानों को असम में बसने के लिए प्रेरित किया था, ताकि ब्रह्मपुत्र घाटी की उपजाऊ मिट्टी का फायदा उन्हें मिल सके। वर्ष 1937 में असम में गोपीनाथ बारदोलोई मुख्यमंत्री बने जिन्होंने प्रदेश में अवैध आव्रजन पर रोक लगाने की कोशिश की, लेकिन देश भर में कांग्रेसी सरकारों के इस्तीफे से इस नीति को गंभीरतापूर्वक लागू नहीं किया जा सका।

सुभाषचंद्र बोस ने वहां की स्थिति की गंभीरता को समझते हुए गोपीनाथ बारदोलोई को मुख्यमंत्री बने रहने देने की वकालत की थी, मगर कांग्रेस नहीं मानी। आव्रजन का यह सिलसिला देश की आजादी के बाद भी जारी रहा। पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं ने इसे बढ़ावा दिया। जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी किताब में असम को पाकिस्तान का ‘अनफिनिश्ड टास्क’ कहा था। शेख मुजीबुर्रहमान भी असम को बांग्लादेश का जरूरी हिस्सा मानते थे।

इसी पृष्ठभूमि में असम के इन क्षेत्रों के मूल निवासी बोडो जनजातियों ने बांग्लाभाषी लोगों सहित वहां बसे अन्य जनजातियों व हिंदी भाषी लोगों के विरुद्ध हिंसक आंदोलन शुरू किया। इनका प्रमुख उद्देश्य अपने लिए एक अलग राज्य बनाना था। पिछली सदी के नौवें दशक से इस आंदोलन का नेतृत्व एनडीएफबी ने किया। इस संगठन पर राज्य में हत्याओं, हमलों और उगाही के आरोप लगने के बाद इसे केंद्र द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया, लेकिन हिंसा नहीं रुकी। एनडीएफबी के अलावा भी वहां ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन और बोडोलैंड टाइगर्स फोर्स जैसे कई संगठन सक्रिय थे।

इस गतिरोध को दूर करने के लिए 1993 में, फिर 2003 में केंद्र सरकार ने इन लोगों के साथ समझौते किए। 2003 के समझौते के तहत असम के बोडो बहुल चार जिलों- कोकराझार, चिरांग, बक्सा व उदलगुड़ी को मिलाकर बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद का गठन किया गया जिसे इन क्षेत्रों के प्रशासन में खासी स्वायत्तता दी गई। इसके बाद भी बोडो लोगों द्वारा अधिक शक्तियों और अपने काडर के लोगों के लिए कानूनी सुरक्षा की मांग की जाती रही। फलत: स्थायी शांति की आकांक्षा एक मरीचिका ही बनी रही।

वर्ष 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही एबीएसयू, एनडीएफबी और अन्य बोडो संगठनों के साथ वर्षो पुराने बोडो आंदोलन को समाप्त करने और एक व्यापक समाधान तक पहुंचने के लिए गहन विचार-विमर्श प्रारंभ कर दिया गया था, जिसका परिणाम इस समझौते के रूप में आया।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )

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