डॉ. संजय वर्मा। एक लोकतंत्र या जनतांत्रिक प्रक्रिया की सार्थकता इसमें है कि उसमें असहमति या असंतोष को एक वाजिब स्थान मिलता है। इस नजरिये से देखा जाए तो बीते कई वर्षो से चुनावों को लेकर चर्चा में रहे नोटा (नन ऑफ द एबव यानी इनमें से कोई नहीं) के अधिकार को हम भारतीय लोकतंत्र की विशेषताओं में दर्ज कर सकते हैं। लेकिन असंतोष जताने के इस अधिकार का तभी कोई मूल्य है, जब वह उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में दखल देने के कानूनी अधिकार के रूप में मान्य हो।

असंतोष जताने वाले ऐसे अधिकार का तब कोई मूल्य नहीं रह जाता, जब वह अपने वास्तविक अर्थ में नख-दंत-विहीन हो। अभी की हालत में इसे महज वोट की बर्बादी या फिर सजावटी उपाय जैसे उपमाएं दी जाती हैं। शायद यही वजह है कि हाल में चुनावों में नोटा को लेकर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही चिंताएं व्यक्त की हैं। सर्वोच्च अदालत ने इस बारे में केंद्र और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी कर नोटा की कानूनी हैसियत पर जवाब मांगा है।

उल्लेखनीय है कि इससे संबंधित याचिका में निर्वाचन आयोग को यह निर्देश देने का अनुरोध किया गया है कि अगर निर्वाचन क्षेत्र में नोटा के खाते में सबसे ज्यादा वोट पड़ते हैं तो वहां के नतीजे को अमान्य करार देकर फिर से चुनाव कराया जाए। यह याचिका वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है। इसमें उन्होंने मांग की है कि इस तरह रद किए गए चुनाव के उम्मीदवारों को नए चुनाव में भाग लेने की इजाजत भी नहीं दी जानी चाहिए। याचिकाकर्ता की राय है कि ऐसा करने से नोटा मतदाताओं को किसी उम्मीदवार को खारिज करने और नए उम्मीदवार को चुनने का अधिकार देगा। दूसरे शब्दों में इससे नोटा सही मायने में लोगों को असंतोष जाहिर करने की ताकत देगा।

हाथी के दांत जैसा सजावटी : अपने मूल स्वरूप में नोटा अभी तक सिर्फ मतदाताओं के मन की बात को दर्ज करने मात्र का जरिया है। इसमें मतदाता यह तो बता सकते हैं कि उन्हें संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में किसी सीट से खड़े प्रत्याशियों में से किसी की भी उन योग्यताओं पर भरोसा नहीं है, जो उन्हें जनप्रतिनिधि चुने जाने के काबिल बनाती हैं। लेकिन यदि किसी सीट पर नोटा को किसी भी उम्मीदवार से ज्यादा वोट मिलते हैं तो भी इस बारे में अब तक विचार नहीं किया गया कि वहां दोबारा चुनाव कराए जाने चाहिए। इसके साथ ही यह भी किया जा सकता है कि जिन मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना है और चूंकि वे बहुमत में हैं, इसलिए उन्हें यह अधिकार दिया जाए कि वे अपना प्रतिनिधित्व नेतृत्व चुन सकें। सही मायने में यही लोकतंत्र होगा।

पर विडंबना है कि मतदाताओं की इस जरूरत को अब तक नोटा में समझा ही नहीं गया और इस अधिकार को हाथी के दांत की तरह सिर्फ एक दिखावटी उपाय मात्र बनाकर छोड़ दिया गया है। उल्लेखनीय है कि नोटा की इस खामी पर अश्विनी उपाध्याय की प्रतिनिधि वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने भी अंगुली रखी है। चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा उठाए गए एक सवाल पर उन्होंने कहा है कि अभी नोटा में इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। हालात ये हैं कि अगर किसी सीट पर 99 प्रतिशत वोट नोटा को मिलते हैं और सिर्फ एक फीसद वोट किसी उम्मीदवार को मिलते हैं तो उस उम्मीदवार को ही विजेता घोषित कर दिया जाता है। साफ है कि ऐसी स्थिति में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों में जनता द्वारा पूरी तरह खारिज कर दिए जाने के बावजूद राइट टू रिजेक्ट का जरा भी डर नहीं है। यदि यह डर होता तो राजनीतिक दलों में इसकी प्रेरणा जगती कि वे ईमानदार छवि वाले लोगों को अपना उम्मीदवार बनाएं। साथ ही योग्य, मेहनती और साफ छवि वाले लोग राजनीति में प्रवेश का प्रयास करते, जो आज के कलुषित राजनीतिक माहौल में राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते हैं।

यूं हमारे लोकतंत्र की यह खासियत काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई है कि इसमें जनता को अपने लिए शासन यानी सरकार चुनने और पसंद नहीं आने पर वोट के जरिये उसे उखाड़ फेंकने का अधिकार मतदान प्रणाली वाली चुनाव-प्रक्रिया के तहत हासिल है। लेकिन वोट से चुनी गई सरकारों और कतिपय प्रतिनिधियों को लोगों ने भ्रष्ट होते, पद और संसाधनों का दुरुपयोग करते देखा है। ऐसे भ्रष्ट और अयोग्य जनप्रतिनिधि को पांच साल तक सहन करने की विवशता में जनता कसमसाकर रह जाती है। साथ ही राजनीति में धनबल-बाहुबल के बढ़ते असर और राजनीति के अपराधीकरण के कलुषित परंपराओं के कारण बहुतेरी पार्टयिां अक्सर बाहुबलियों-धनपतियों को ही अपना उम्मीदवार बनाती हैं।

चूंकि ज्यादातर दल इस मामले में एक जैसा रवैया अपनाते हैं, ऐसे में जनता के पास अक्सर अयोग्य उम्मीदवारों में से ही किसी एक थोड़े बेहतर व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनने का विकल्प शेष रहता है। ऐसी स्थितियों के मद्देनजर ही यह मांग उठी थी कि वोटिंग प्रणाली में एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाए, जो यह दर्ज कर सके कि कितने फीसद लोगों ने किसी भी उम्मीदवार को वोट देना उचित नहीं समझा है। भारतीय निर्वाचन आयोग ने पहली बार दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के जरिये नोटा के विकल्प बटन उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। निर्वाचन आयोग ने इस निर्देश के साथ स्पष्ट किया कि नोटा बटन दबाने को वोटों की गिनती के समय एक वोट के रूप में गिना जाएगा और इसका आकलन किया जाएगा कि कितने लोगों ने नोटा को वोट दिया।

हाल के पांच-सात वर्षो में कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं, जो न सिर्फ नोटा की जरूरत को रेखांकित करते हैं, बल्कि इसे और धारदार बनाने की मांग भी करते हैं। गुजरात में 2017 में हुए विधानसभा चुनावों और कर्नाटक में 2018 में हुए विधानसभा चुनावों के अलावा मध्य प्रदेश (2018) और राजस्थान (2018) के चुनावों में मतदाताओं ने भारी संख्या में नोटा के विकल्प को आजमाकर साफ किया है कि इस अधिकार पर अब आगे बढ़ने की जरूरत है।

योग्य उम्मीदवार के चुनाव को मिले मौका: वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में नोटा को तरजीह दिए जाने से स्थिति यह बनी कि कई निर्वाचन क्षेत्र में नोटा को पड़े वोट जीत के अंतर के वोटों से ज्यादा रहे। आशय यह है कि वहां नोटा के स्थान पर यदि मतदाताओं ने दो शीर्ष दलों के प्रत्याशियों में से किसी एक का दामन थामा होता तो इससे चुनावी नतीजा बदल जाता। यानी यदि नोटा एक उम्मीदवार के रूप में मैदान में होता तो उसकी विजय निश्चित थी। कई और आंकड़े नोटा की अहमियत दर्शाते हैं। जैसे-वर्ष 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो पता चलता है कि विजयी कांग्रेस और पराजित भारतीय जनता पार्टी को वोट शेयर के बीच फासला सिर्फ 0.1 फीसद वोटों का था, जबकि वहां नोटा को 1.4 फीसद वोट हासिल हुए।

एक अन्य उदाहरण से स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी। इन्हीं चुनावों में मध्य प्रदेश के 22 निर्वाचन क्षेत्रों में से 12 में नोटा ने जीत के अंतर से अधिक वोट हासिल किए थे। यानी इन स्थानों पर असली विजेता तो नोटा था, जबकि चुनाव प्रणाली ऐसे उम्मीदवार को विजयी घोषित करती रही है जिसे अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से एक वोट अधिक ही क्यों न मिला हो। इससे स्पष्ट है कि नोटा को सिर्फ असंतोष दर्शाने के जरिये से कहीं ज्यादा अहमियत दिलाने का वक्त आ चुका है। एक परिपक्व लोकतंत्र की निशानी सिर्फ यह नहीं है कि वहां जनता को वोट के जरिये अपनी सरकार और जनप्रतिनिधि चुनने का विकल्प मिलता है, बल्कि यह भी होना चाहिए कि अगर वह सभी दलों और प्रत्याशियों से असहमत है और किसी अन्य को अपना सच्चा प्रतिनिधि मानती है तो उसकी इस इच्छा का सम्मान होना चाहिए। अपात्र और अयोग्य लोगों की भीड़ में से ही किसी कम अयोग्य या अपात्र को चुनने के लिए मजबूर करने से बेहतर किसी पात्र, ईमानदार प्रतिनिधि के चुनाव का मौका जनता को दिया जाए। नोटा को ज्यादा व्यापक बनाते हुए यह किया जा सकता है और अब इसमें विलंब ठीक नहीं होगा।

बर्बादी थी वोट नहीं डालना: ध्यान रहे कि पहले मतदाताओं को सभी अपात्र, अविश्वसनीय और अयोग्य उम्मीदवारों को नापसंद करने का सिर्फ यही विकल्प मिलता था कि वे वोट नहीं डालें। यह सरासर तौर पर अपने वोट की बर्बादी थी। इससे यह भी नहीं पता चलता था कि लोगों को उस निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवार पसंद हैं भी या नहीं। हालांकि मतपत्र की व्यवस्था में वोटरों को बैलेट पेपर खाली छोड़कर सभी उम्मीदवारों के प्रति अपनी नापसंदगी व्यक्त करने का एक अधिकार मिला हुआ था। मतदान कानून, 1961 के एक नियम के अनुसार, ‘अगर कोई मतदाता वोट डालने पहुंचता है और फॉर्म 17-ए में एंट्री के उपरांत नियम 49-एल के उप नियम (1) के तहत रजिस्टर पर अपने हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान लगाने के बाद वोट नहीं डालने का फैसला लेता है तो रजिस्टर में इसका रिकॉर्ड दर्ज किया जाना चाहिए।’ बैलेट पेपर को खाली छोड़कर अपना विरोध दर्ज कराने की उस प्रक्रिया का आशय यही था कि मतदाताओं को अपने निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाला कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है।

हालांकि बाद में चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि नोटा के वोट गिने तो जाएंगे, पर इसे रद मतों की श्रेणी में रखा जाएगा। फिर भी मोटे तौर पर नोटा के आगमन के साथ यह साफ होने लगा कि एक निर्वाचन क्षेत्र में कितने प्रतिशत मतदाता ऐसे हैं, जिन्हें किसी भी प्रत्याशी में भरोसा नहीं है। इस तरह नोटा को राजनीतिक शुचिता कायम करने का एक रास्ता माना गया। ध्यान रहे कि हमारे देश के साथ-साथ नोटा का विकल्प ग्रीस, यूक्रेन, स्पेन, कोलंबिया और रूस आदि कई देशों में लागू है।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी]