प्रदीप सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार फिर चर्चा में हैैं। पिछले आठ सालों से कुछ ऐसा हो रहा है कि वह गलत कारणों से ही चर्चा में आते हैं। उनके दूसरे कार्यकाल में घोटालों की पूरी शृंखला बनी। वह मौन रहे या फिर आरोपियों के बचाव में बोले। उनकी विदेश नीति, आर्थिक नीति और उनकी राजनीति 2009 के लोकसभा चुनाव की शानदार जीत के बाद कभी उठ ही नहीं पाई। वह देश के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की नौकरी की। दरअसल वह नौकरी की मानसिकता से कभी उठ ही नहीं पाए। नौकरी बची रहे, इसके लिए उन्होंने मान-अपमान की कभी चिंता नहीं की। देश के बहुत से लोगों की तरह मुझे भी उम्मीद थी कि एक बार पद से हटने के बाद और उम्र के इस पड़ाव पर उनकी रीढ़ की हड्डी थोड़ा तनेगी। वह वही बोलेंगे और करेंगे, जो पार्टी के हित में हो न हो, पर देश हित में हो। दूसरे कई राजनेताओं की तरह मनमोहन सिंह ने भी निराश किया। राजनीति में कई बार घटनाक्रम का समय ही सबसे अहम हो जाता है। यह बात गौण हो जाती है कि आपने जो किया वह सही था या गलत? सबसे अहम यह हो जाता है कि इस समय क्यों किया? हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी ऐसा होता है। अब किसी का हंसना तो गलत नहीं हो सकता, लेकिन हंसी दूसरे के दुख की घड़ी में हो तो उसे सही ठहराना संभव नहीं।


इस महीने की छह तारीख को कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर के घर पर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री, वहां के उच्चायुक्त और दूसरे मेहमानों के साथ मनमोहन सिंह की मौजूदगी कई सवाल खड़े करती है। सवाल यह नहीं है कि इस बैठक में गुजरात चुनाव की चर्चा हुई या नहीं? इस बैठक से चंद दिन पहले पाकिस्तान के एक सैनिक अधिकारी कह चुके थे कि गुजरात में अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। पूर्व प्रधानमंत्री होने के कारण मनमोहन सिंह अच्छी तरह जानते थे कि ऐसी मुलाकातों के बारे में एक परिपाटी है, जिसका सभी राजनीतिक दल पालन करते हैं। ऐसी बैठक से पहले विदेश विभाग को सूचित किया जाता है और विदेश विभाग के अधिकारी बाकायदा ब्रीफिंग करके सरकार की नीति और सोच से अवगत कराते हैं। मनमोहन सिंह ने उस परिपाटी को दरकिनार क्यों कर दिया? मणिशंकर अय्यर की पाकिस्तान के बारे में सोच सबको पता है। क्या प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने कभी मणिशंकर अय्यर से पाकिस्तान नीति के बारे में सलाह ली थी? दरअसल पाकिस्तान में पैदा हुए लोगों का एक गुट है जो ‘स्टाकहोम’ सिंड्रोम से पीड़ित है। इसमें व्यक्ति अपने आक्रांता के प्रति सहानुभूति दिखाने लगता है। इसमें मनमोहन सिंह, मणिशंकर अय्यर, मरहूम इंद्र कुमार गुजराल और कुलदीप नैयर जैसे तमाम लोग शामिल हैं। गुजराल ने तो प्रधानमंत्री रहते हुए हमारे खुफिया तंत्र का इतना बड़ा नुकसान किया कि उसकी भरपाई करने में कई दशक लग जाएंगे। यह पहला मौका नहीं जब मनमोहन सिंह ने सवाल खड़े करने वाला काम किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद अप्रैल 2005 में मुशर्रफ जब भारत आए तो दोनों पक्ष साझा बयान में एक बात को लेकर अड़ गए। यह बात छह जनवरी 2004 को भारत और पाकिस्तान में एक ऐतिहासिक समझौते से जुड़ी थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के सामने जब प्रस्ताव का मसौदा आया था तो उसमें पाकिस्तान ने भारत की यह बात मान ली थी कि वह अपनी धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। वाजपेयी इतने से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा, इसमें यह भी होना चाहिए कि पाकिस्तान अपने अधिकार वाले क्षेत्र (संकेत पाक अधिकृत कश्मीर की ओर था) का भी भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा। उनके प्रमुख सचिव बृजेश मिश्रा लौटकर आए कि मुशर्रफ मान नहीं रहे। वाजपेयी का जवाब था कि कोई बात नहीं, जहाज खड़ा है, घर लौट चलेंगे। साफ संदेश था कि इसके बिना समझौता नहीं होगा। बृजेश मिश्रा फिर गए और मुशर्रफ को मानना पड़ा। 2005 में पाकिस्तान इसी बात को साझा बयान से निकलवाना चाहता था। भारतीय अधिकारी अड़ गए, पर बात जब प्रधानमंत्री के पास गई तो मनमोहन सिंह उसे हटाने को तैयार हो गए।
मनमोहन सिंह ने दूसरी गड़बड़ की जुलाई 2006 में हवाना में। गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन के समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा कि भारत की ही तरह पाकिस्तान भी आतंकवाद से पीड़ित है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कह दिया कि भारत में आतंकवाद आइएसआइ नहीं, बल्कि कुछ स्वतंत्र जेहादी समूह चला रहे हैं। यह बात उन्होंने ऐसे समय कही जब अमेरिकी सदन की विदेशी मामलों की समिति में एक विशेषज्ञ ने कहा था कि यह मिथ्या धारणा है कि कश्मीर में आतंकवाद स्वतंत्र जेहादी संगठन फैला रहे हैं।
पहले की दोनों गलतियों से भी बड़ी गलती उन्होंने जुलाई 2009 में मिस्र के शर्म-अल-शेख में की। यह वाकया 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद हुआ। मुंबई हमले की अगली सुबह लगभग नौ बजे प्रधानमंत्री आवास पर देश के आला खुफिया अधिकारी पहुंचे। हैरान मनमोहन सिंह ने पूछा कि यह क्या हुआ? एक आला अधिकारी ने कहा, ‘सर यह ऐनिमी एक्ट’ है। इस जानकारी और ऐसी घटना के कुछ महीने बाद मनमोहन सिंह शर्म-अल-शेख गए और साझा बयान में इस बात का संकेत दिया गया कि पाकिस्तान की ओर से कश्मीर में गड़बड़ नहीं होगी और भारत की ओर से बलूचिस्तान में नहीं होगी। इस बयान का सीधा सा अर्थ था कि भारत बलूचिस्तान में वैसे ही गड़बड़ कर रहा है, जैसे पाकिस्तान कश्मीर में। यह भी ध्यान रहे कि मनमोहन सिंह ने एक बार पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी को शांतिदूत बताने का भी काम किया था।
पहली बार ऐसा हो तो गलती मानी जा सकती है। दूसरी बार भी मान लें, लेकिन तीसरी बार ऐसा हो तो नीयत पर सवाल उठेंगे ही। जहां तक मनमोहन सिंह के प्रति असम्मान की बात है तो यह शाश्वत सत्य है कि जिसे अपने घर में सम्मान नहीं मिलता उसे बाहर भी नहीं मिलता। दस साल के संप्रग शासन में बीसियों उदाहरण मिल जाएंगे जहां पार्टी से लेकर कैबिनेट की बैठक तक उनकी ही पार्टी के लोगों ने उनका अपमान किया। कोई कसर बची थी तो अध्यादेश की सांकेतिक प्रति फाड़कर राहुल गांधी ने पूरी कर दी। आत्मसम्मान वाला कोई भी व्यक्तिइसे बर्दाश्त नहीं कर सकता था। कुछ ऐसा ही अपमान राजीव गांधी ने चंद्रशेखर का करने का प्रयास किया था, जब राष्ट्रपति के दोनों सदनों में अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के समय सदन से कांग्रेसी चले गए। चंद्रशेखर का रुख देखकर राजीव गांधी ने सदन में पर्ची भिजवाई कि वह लौटने को तैयार हैं। चंद्रशेखर ने पर्ची फेंक दी और सदन में ही इस्तीफे की घोषणा कर दी, लेकिन प्रधानमंत्री पद को नौकरी समझने वाले से ऐसे तेवर की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने अय्यर के घर हुई बैठक में मनमोहन सिंह के होने पर सवाल उठाया तो उसकी एक पृष्ठभूमि थी। इस समय उस बैठक का औचित्य क्या था, इतना तो मनमोहन सिंह से पूछा ही जाएगा। आखिर इस सवाल पर इतनी हाय-तौबा क्यों?
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]