[ राजीव सचान ]: सिख विरोधी दंगों में सज्जन कुमार के साथ तीन और लोगों को मिली सजा ने पूरे देश का ध्यान इसलिए खींचा, क्योंकि एक तो यह सजा 34 साल बाद सुनाई जा सकी और दूसरे सज्जन कुमार कांग्रेस के बड़े नेता थे। चूंकि उन्होंने सजा का एलान होने के अगले दिन कांग्रेस से इस्तीफा दिया इसलिए यह स्वत: स्पष्ट हो गया कि पार्टी ने अपने स्तर पर उनसे दूरी बनाने की कोशिश नहीं की। इससे एक तरह से दिल्ली उच्च न्यायालय के इस आकलन पर मुहर ही लगी कि सज्जन कुमार को राजनीतिक संरक्षण हासिल था। किसी के लिए भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि सज्जन कुमार को यह संरक्षण कहां से मिल रहा होगा? अगर सज्जन कुमार को सजा सुनाए जाने से तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत का जश्न फीका पड़ा तो यह उसके कर्मों का ही फल है। हालांकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने कमलनाथ के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं है, लेकिन यह कांग्रेसी भी जानते हैैं कि सिख विरोधी हिंसा के दौरान भीड़ को उकसाने में उसके जिन नेताओं पर अंगुली उठती रही है उनमें जगदीश टाइटलर के साथ वह भी हैैं।

सज्जन कुमार को सजा सुनाए जाने के साथ ही दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा के विभिन्न मामलों में सजा पाने वाले लोगों की संख्या करीब दो सौ पहुंच गई है। 2015 में संसद में एक सवाल के जवाब में यह बताया गया था कि इस भीषण हिंसा में शामिल कुल 442 लोगों को सजा सुनाई जा चुकी है, लेकिन पीड़ित सिखों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड रहे वकील एचएस फुल्का की मानें तो ऐसे लोगों की संख्या दो सौ के आसपास ही है और 442 लोगों का उल्लेख इसलिए होता है, क्योंकि इनमें से कई ऐसे हैैं जिन्हें अलग-अलग मामलों में सजा सुनाई गई है। 1984 में दिल्ली में सिख विरोधी दंगों के दौरान करीब 2,700 लोग मारे गए थे। अगर इतने लोगों की हत्या में अभी तक बमुश्किल दो सौ लोगों को उनके किए की सजा मिल सकी है तो इसका मतलब है कि इंसाफ की डगर पर बहुत धीरे-धीरे बढ़ा जा रहा है। इससे भी खराब बात यह है कि किसी-किसी मामले में तो बढ़ा ही नहीं जा रहा है। बतौर उदाहरण इस देश में कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने के लिए कोई भी तत्पर नहीं दिखता।

सिख विरोधी हिंसा में इंसाफ कितनी धीमी गति से होे रहा है, यह उस मामले से भी साबित होता है जिसमें सज्जन कुमार को सजा सुनाई गई। निचली अदालत ने 2013 में सज्जन कुमार को बरी कर दिया था, जिसके खिलाफ की गई अपील का निपटारा करने में दिल्ली उच्च न्यायालय को पांच साल लग गए। कहना कठिन है कि इस मामले में अंतिम यानी सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब होता है? इसमें दोराय नहीं कि सिख विरोधी दंगों के दोषियों को दंडित करने के लिए वैसे प्रयास नहीं हुए जैसे होने चाहिए थे। इसकी एक बड़ी वजह तत्कालीन केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस का रवैया रहा। हालांकि समय-समय पर कई समितियां अथवा आयोग बने, लेकिन उनसे अभीष्ट की पूर्ति नहीं हो सकी। ऐसी आखिरी कोशिश मोदी सरकार बनने के बाद हुई जब एक विशेष जांच दल (एसआइटी) का गठन किया गया। इस एसआइटी का स्थान सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित एसआइटी ने लिया।

अभी हाल में जिस मामले में एक शख्स को फांसी की सजा सुनाई गई है उसकी छानबीन इसी एसआइटी की ओर से की गई थी। यह एसआइटी पुरानी वाली एसआइटी की ओर से बंद किए गए कुछ मामलों को भी खोल रही है। बीते कुछ वक्त से सिख विरोधी हिंसा के मामलों में दोषियों को सजा सुनाए जाने का सिलसिला गति पकड़ने के साथ यह आस बंधी है कि इस भीषण हिंसा के लिए जिम्मेदार एक न एक दिन सजा पाएंगे, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि कुछ बच भी जाएंगे, क्योंकि कई मामलों में गवाहों की मौत हो चुकी है तो कुछ मामलों की फाइलें ही गुम हो गई हैैं। तमाम ऐसे आरोपी भी हैैं जो बिना किसी जांच का सामना किए मर चुके हैैं। 

यदि 1984 के सिख विरोधी दंगे आजादी के बाद सबसे भीषण हिंसा और एक तरह के नरसंहार के तौर पर देखे जाते हैैं तो इस पर हैरत नहीं। खुद दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसा कहा। इसी सिलसिले में उसने गुजरात, कंधमाल और मुजफ्फरनगर के दंगों का भी जिक्र किया, लेकिन अगर हिंसा के इन मामलों में समय पर न्याय नहीं हो सका तो इसके लिए कुछ न कुछ जिम्मेदारी न्यायपालिका की भी बनती है। आखिर ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकी जिससे सिख विरोधी हिंसा के जो भी मामले अदालतों में हैैं उनकी सुनवाई तेज गति से हो सके? क्या यह अच्छा नहीं होता कि सिख विरोधी हिंसा की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से समय रहते वैसे ही कोई एसआइटी गठित की जाती जैसे गुजरात दंगों के मामले में गठित की गई थी?

भले ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने सज्जन कुमार को सजा सुनाते समय गुजरात दंगों का जिक्र किया हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात दंगों में चार सौ से अधिक लोगों को सजा सुनाई जा चुकी है। इन दंगों में करीब एक हजार लोग मारे गए थे। इनमें दो सौै से अधिक दंगाई थे जो पुलिस की गोलियों से मारे गए थे। दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा में शायद ही कोई दंगाई पुलिस की गोलियों का निशाना बना हो।

सज्जन कुमार को सजा मिलने के साथ ही अब जब यह उम्मीद की जा रही है कि 1984 की सिख विरोधी हिंसा के बचे-खुचे मामलों का निपटारा तेजी से होगा तब किसी को इसकी चिंता करनी चाहिए कि क्या कश्मीरी पंडितों को भी कभी न्याय नसीब होगा? यह सवाल इसलिए, क्योंकि बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें यह मांग की गई थी कि 1989-90 में कश्मीरी पंडितों की हत्या के 215 मामलों की जांच हो। यह याचिका दाखिल करने वालों से सुप्रीम कोर्ट को यह सुनने को मिला कि आप 27 साल कहां थे? हालांकि उन्होंने जवाब दिया कि जब 1984 के मामलों की जांच हो सकती है तो 1989-90 के मामलों की क्यों नहीं हो सकती, लेकिन पता नहीं क्यों सुप्रीम कोर्ट को यह तर्क रास नहीं आया?

क्या इससे खराब और कुछ हो सकता है कि कुछ लोगों को देर-बहुत देर से न्याय मिल रहा है तो कुछ को मिल ही नहीं रहा है और यहां तक कि मिलने की उम्मीद भी नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि कश्मीरी पंडितों की हत्याओं की जांच की मांग करने वाली पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी गई थी।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )