[ बद्री नारायण ]: जनतंत्र का खेल निराला है। इसमें कभी अजेय विजेता भी पराजित हो जाते हैं और कभी पराजित के हाथ भी विजयश्री आ जाती है। हाल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मिजोरम में पराजित हुई, तेलंगाना में उसका एक तरह से मानमर्दन हो गया, किंतु हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसे जीत हासिल हुई। इनमें से दो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले पंद्रह वर्षों में लगातार जीतती आ रही भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि कांग्रेस इन तीन राज्यों को जीतकर सरकार बना चुकी है, किंतु इन राज्यों में भाजपा और उसके बीच मतों का अंतर बहुत अधिक नहीं है। भाजपा ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुत कम सीटों के अंतर से ही कांग्र्रेस के हाथों सत्ता गंवाई है। छत्तीसगढ़ में अवश्य उसे बड़ी पराजय झेलनी पड़ी है।

हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजे बताते हैैं कि मध्य प्रदेश में पंद्रह वर्षों तक सरकार में रहने वाले शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ सत्ता विरोधी ज्वार होते हुए भी जनता के दिल में उनके लिए एक नरम कोना कायम रहा। उनके लिए प्रशंसा का भाव भी था, परंतु सत्ता परिवर्तन का मिजाज इतना तेज था कि उसने इसे साकार कर दिया।

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में परिणाम कांग्रेस के पक्ष में क्यों आए? इस पर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों की व्याख्याएं आ चुकी हैं। इन सभी व्याख्याओं में कुछ बातें सामान्य हैं। सबने इन राज्यों में किसानों की बढ़ रही नाराजगी, बेरोजगारी का सवाल, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बदहाली और नोटबंदी के दुष्प्रभावों को बदलाव का मूल कारण माना है। कांग्र्रेस ने जनता की इस नाराजगी को भांप लिया और उसे मुद्दा बनाकर चुनाव में उसे बखूबी भुनाया भी। दूसरी ओर भाजपा अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं को और उनसे मिले लाभ को अपने प्रचार में ठीक से समायोजित नही कर पाई।

भाजपा के प्रचार में विकास और उससे संबंधित मुद्दे विमर्श के केंद्र में होने चाहिए थे, मगर प्रचार के दौरान कई ऐसे मुद्दे हावी हो गए जिन्होंने इस आवश्यक विमर्श की दिशा ही बदल दी। विरोधी पर आक्रमण से अधिक उसकी अपनी नीतियां और परियोजनाएं चर्चा में होनी चाहिए थीं। प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी के नेताओं, मंत्रियों और प्रतिनिधियों से यह आग्रह लगातार करते रहे कि सरकार के अच्छे कार्यो को जनता तक पहुंचाएं, पर लगता है कि उनकी बात किसी ने सुनी और किसी ने नहीं सुनी। दूसरी ओर राहुल गांधी ने किसानों की नाराजगी, बेरोजगारी का मसला, ग्रामीणों की आर्थिक परेशानियों और ऐसे तमाम अन्य मसलों को पुरजोर तरीके से उठाया।

बीते दिनों एससी-एसटी एक्ट पर भी भाजपा ने जो कदम उठाया उससे पार्टी को दोहरा घाटा हुआ। इससे एक ओर सवर्णों की नाराजगी बढ़ी तो दूसरी ओर वह दलित मतों को अपने पक्ष में अपेक्षित रूप से लामबंद नहीं कर पाई। भाजपा अपनी योजनाओं से जिन लाभार्थियों के लाभ की बात करती रही है उन्होंने उसके पक्ष में कितना वोट किया, यह भी अध्ययन एवं विश्लेषण का विषय है।

चाहे जिन कारणों से ऐसे परिणाम आए हों, लेकिन अब आगे यह देखने की जरूरत है कि इन परिणामों के भविष्य में क्या राजनीतिक निहितार्थ होगें? भाजपा और कांग्र्रेस की राजनीति पर इनका क्या असर पड़ेगा? इन दोनों राजनीतिक दलों के लिए भविष्य में क्या चुनौतियां होंगी? वस्तुत: इन परिणामों से एक तो कांग्र्रेस और उसकेकार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। कांग्र्रेस के भीतर राहुल गांधी का नेतृत्व पूरी तरह स्थापित हो जाएगा। उनकी योग्यता एवं क्षमता पर कार्यकर्ताओं के बीच कोई संशय उठता भी रहा होगा तो वह निर्मूल हो जाएगा। कांग्र्रेस के बाहर भी राहुल गांधी के नेतृत्व की स्वीकार्यता की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।

महागठबंधन की राजनीति में वह विपक्ष के नेता बनकर उभर सकते हैैं। शायद इन चुनावों का प्रभाव और इनसे उभरे मुद्दे 2019 में भी कांग्र्रेस के एजेंडे में महत्वपूर्ण होंगे। इन चुनावों ने जहां कांग्र्रेस के लिए नई संभावनाएं खोली हैं वहीं कई बड़ी चुनौतियां भी खड़ी की हैं। इन चुनौतियों में तीन चुनौतियां खासी महत्वपूर्ण हैं। एक तो कांग्र्रेस ने इन चुनावों में किसानों की कर्ज माफी और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के जो लोकलुभावन वादे किए हैं उन्हे 2019 के चुनाव की घोषणा के पूर्व ही प्राथमिकता के आधार पर पूरा करना होगा, लेकिन इस राह में कई रोड़े भी हैं। इन तीनों राज्यों के खजाने में शायद ही उतने संसाधन हों जो किसानों की कर्ज माफी और कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य वृद्धि से सरकार पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ का मुकाबला कर सकें। इन राज्यों में सरकारों को नए आर्थिक संसाधन तलाशने होगें ताकि अपने वादों को पूरा करने के बाद भी वह दूसरे विकास कार्यों के साथ भी न्याय कर सकें।

कांग्रेस के पास इन वादों को पूरा करने के लिए मात्र चार महीनों का समय है। मई 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैैं। तब तक कांग्रेस को इन प्रांतों में मुख्यमंत्री पद के महत्वाकांक्षियों पर नजर रखने के साथ ही उनकी शिकायतों का भी समाधान करना होगा। अगर कांग्रेस समय रहते अपना वादा पूरा करती है और अपनी आंतरिक कलह का निदान सही तरह करती है तो 2019 के चुनाव में उसे लाभ मिल सकता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाती तो आम चुनाव में उसे नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।

भाजपा को भी हालिया जनादेश से सीख लेनी होगी। उसे चाहिए कि वह विकास की अपनी दिशा एवं दृष्टि पर पुनर्विचार के बाद ही अपनी चुनावी रणनीति बनाए। इसके साथ-साथ अपनी योजनाओं से लाभ पाए लाभार्थियों को अपने वोट के रूप में तब्दील करने के लिए गोलबंदी प्रारंभ करे। अपनी परियोजनाओं के क्रियान्वयन की गहरी जांच-परख करने के लिए भाजपा को अपने तंत्र को ज्यादा चुस्त-दुरुस्त बनाते हुए पूरी सावधानी बरतनी होगी। पीएम मोदी और अमित शाह बहुत सधे हुए नेता हैं। वे जरूर इस हार के बीच अपने भविष्य की जीत के लिए सूत्र तलाशेंगे। भाजपा और कांग्रेस में फर्क यह है कि भाजपा के पास मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज जैसे कुशल जन नेता हैं वहीं कांग्रेस के पास अगर उनके क्षेत्रीय क्षत्रपों को छोड़ दें तो सिर्फ राहुल गांधी हैं। राहुल गांधी को राजनीति के इन सक्षम खिलाड़ियों का अकेले मुकाबला करना है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव परिणामों से जो माहौल बन रहा है उसका असर हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों तक भी विस्तारित हो सकता है। जहां उत्तर प्रदेश और बिहार में विपक्षी क्षेत्रीय दलों को कुछ फायदा हो सकता है वहीं झारखंड जैसे राज्य में कांग्र्रेस खुद प्रभावी होकर उभर सकती है। इसी तरह बिहार और उत्तर प्रदेश के महागठबंधनों में कांग्रेस का महत्व बढ़ सकता है, किंतु उनका मुकाबला भाजपा से ही होना है जो चतुराई के साथ चुनावी अखाड़े में मुकाबला करने में महारत रखती है।

( लेखक गोबिंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक हैं )