[ तरुण गुप्त]: बीते दिनों उत्तर प्रदेश में किसानों के आंदोलन ने उनकी समस्याओं पर एक बार फिर देश का ध्यान खींचा। उनकी कुछ मांगें वाकई विचार के काबिल हैं, लेकिन कुछ अव्यावहारिक। इसमें संदेह नहीं कि देश में किसानों के हालात खराब हैं और उनकी शिकायतें दूर करने की दिशा में बिना किसी देरी के व्यवस्थित रूप से कदम उठाने की दरकार भी है। मैं यहां किसानों की मुश्किलों या उनकी मांगों की प्राथमिकताएं तय करने पर नहीं, बल्कि विरोध प्रदर्शन के स्वरूप और उनसे निपटने में सरकार की भूमिका पर ही विमर्श करूंगा। दिल्ली से उत्तराखंड को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग-58 किसानों के प्रदर्शन की वजह से हफ्ते भर तक बाधित रहा।

हजारों की तादाद में किसान दिल्ली की ओर कूच करना चाहते थे। पुलिस और प्रशासन ने एक बार फिर वही किया जो ऐसे मौकों पर अक्सर किया जाता है यानी सामान्य यातायात को एक तरह से अवरुद्ध कर दिया गया। लाखों लोग रोजाना इस हाईवे से आवाजाही करते हैं। यातायात पर पाबंदी के चलते उनका अपनी राष्ट्रीय राजधानी से संपर्क कट गया। विडंबना यही है कि यह सब स्वतंत्रता और लोकतंत्र में विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के नाम पर हुआ। संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को शांतिपूर्वक प्रदर्शन की अनुमति देता है।

जीवंत लोकतंत्र में प्रदर्शन का अधिकार आवश्यक जरूर है, मगर यह निरंकुश नहीं हो सकता। इन पर नियम-कायदों के तहत रोक का भी प्रावधान है। किसी का कोई अधिकार किसी अन्य के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। न तो अधिकार के नाम पर यातायात बाधित कर लोगों की आवाजाही रोकी जा सकती है और न ही निजी-सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा सकता। मगर तमाम विरोध-प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों और प्रशासन, दोनों ओर से कानून के बुनियादी सिद्धांतों का मखौल ही उड़ाया जाता है।

किसी भी समूह या राजनीतिक दल द्वारा जो विरोध प्रदर्शन किए जाते हैं आखिर उनकी प्रकृति क्या होती है? क्या यह सच नहीं कि ऐसे अधिकांश प्रदर्शन हिंसा, जबरन बंद, आगजनी, सड़क जाम और यातायात में बाधा ही उत्पन्न करते हैं? इससे हजारों करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान होता है। अदालतें पहले ही सरकारों को निर्देश दे चुकी हैं कि वे इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर हर्जाना लगाएं। याद नहीं पड़ता कि अराजकता के आरोपितों के खिलाफ कभी कोई कारगर कार्रवाई हुई हो? शांतिपूर्वक प्रदर्शन लोकतांत्रिक ढांचे का अभिन्न अंग होते हैं और दुनिया भर में इनके विविध स्वरूप नजर भी आते हैं। यहां शांति शब्द ही मूल में है। क्या विकसित लोकतंत्रों में इसकी अनुमति होनी चाहिए कि वहां विरोध प्रदर्शन के नाम पर अराजकता करने दी जाए?

इतिहास साक्षी है कि पुलिस चौकी को फूंक देने की हिंसक घटना से व्यथित गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने असहयोग आंदोलन को कैसे स्थगित कर दिया था। उनका मानना था कि साध्य के साथ साधन भी पवित्र होना चाहिए। स्तरहीन और अनैतिक विरोध-प्रदर्शनों के इस दौर में ये आदर्श कल्पना ही लग सकते हैं। सभ्य समाज का यह दायित्व है कि अहिंसक तरीकों से ही विरोध-प्रदर्शन किए जाएं और राज्य भी गैर-घातक तरीकों से उनसे निपटें। अराजकता को कानून एवं व्यवस्था पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

यह सरकार का ही संवैधानिक दायित्व होता है कि वह कानून एवं व्यवस्था को लागू करे। ऐसे में मैं कुछ सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता पर चर्चा करना चाहूंगा। जिस एनएच 58 की चर्चा ऊपर की गई है उसका एक हिस्सा अगर दुनिया में नहीं तो संभवत: देश में जरूर सबसे खराब अनुभव कराने वाला है। यहां तकरीबन 70 किलोमीटर का सफर करने में डेढ़ से तीन घंटे तक लग सकते हैं। राजनीतिक जुलूस, त्योहारी सीजन या शादी-विवाह के दौर में तो सफर के लिए समय सीमा निर्धारित करना संभव ही नहीं। अगर हम पिछले कुछ महीनों के रुझान को देखें तो यह हाईवे ऐसी समस्याओं से जूझता दिखा जिनमें से अधिकांश से या तो बचा जा सकता था या उनका कम से कम बेहतर प्रबंधन हो सकता था।

मानसून के दौरान भारी बारिश से हुए जलभराव से आवाजाही दूभर हो गई। हर साल बारिश के बावजूद हम इससे निपटने के पर्याप्त इंतजाम नहीं कर पाते। ऐसा प्रतीत होता है कि सड़कें लंबे समय तक टिकने के लिए नहीं, बल्कि दोबारा बनाए जाने के मकसद से ही बनाई जाती हैं। फिर अगस्त की शुरुआत में कांवड़ यात्रा आवाजाही को एक तरह से ठप कर देती है। उसके बाद सितंबर में गणपति विसर्जन के दौरान सड़क पर लंबे-लंबे जाम लगते हैं।

किसान आंदोलन के बाद अब जल्द ही सड़क पर गड्ढे भरने की सालाना रस्म शुरू हो जाएगी। इससे भी आवाजाही सुस्त पड़ेगी। इसके बाद त्योहारों और शादियों का सीजन आ जाएगा। तब लगने वाले जाम को लेकर प्रशासन की मानसिकता भी संभवत: ऐसी होती है कि उत्सव के इस माहौल में इस समस्या की अनदेखी की जा सकती है। प्रशासन ने इन अड़चनों के समाधान की कभी इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है। अनिश्चितता के साथ सड़क पर जाम में फंसे नागरिक को देरी की वजह से ही खीझ नहीं होती, बल्कि प्रशासन की संवेदनहीनता और अक्षमता उसे और अधिक सालती है?

हाईवे प्रबंधन में अक्षमता और फिर विरोध-प्रदर्शनों से उचित रूप से निपटने की नाकामी ही कमजोर प्रशासन की निशानी नहीं हैं। उसकी अव्यावहारिक मानसिकता और अक्षमता के और भी उदाहरण हैं। भारत के लगभग प्रत्येक शहर में अवैध बस्तियां और अतिक्रमण आम हो गए हैं। झुग्गी बस्तियां फैल रही हैं। लोग जमीन कब्जा रहे हैं। उनके खिलाफ आपने कितनी बार कोई ठोस कार्रवाई देखी है? हालांकि यह जरूर सुना होगा कि कथित संपन्न वर्ग के कुछ अवैध फार्महाउस या संपत्तियां सील कर दी जाती हैं या उनका हिस्सा गिरा दिया जाता है। आखिर ऐसे निर्माण की तब अनदेखी क्यों की जाती है जब वे हो रहे होते हैं?

नि:संदेह वंचित वर्ग के लोगों को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है। उन्हें अवैध तरीकों से बसाकर उनकी गलत गतिविधियों को शह देने के बजाय उनके पुनर्वास के प्रयास होने चाहिए। अतिक्रमण और सड़कों पर अराजकता जैसे मामलों में किसी भी वर्ग के साथ पक्षपात की तो कोई गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए। यह पक्षपात न तो न्यायपालिका के काम में झलकना चाहिए और न ही कार्यपालिका या उन एक्टिविस्टों के काम में जो आम जनता की आवाज उठाने का दावा करते हैं। कोई वर्ग सिर्फ इसलिए भेदभाव का शिकार नहीं होना चाहिए कि वह राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक है?

क्या अब हमें उस समाजवादी सोच से पीछा नहीं छुड़ाना चाहिए जिसमें पूंजीपति को शोषक और मजदूर को शोषित ही माना जाता है? गतिशील एवं परिपक्व लोकतंत्र की एक निशानी यह भी है कि वहां कानून निष्पक्षता के साथ सभी पर समान रूप से लागू होता है। यदि भारत विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होना चाहता है तो हमारे समाज और राजनीति को परिपक्व होना पड़ेगा। इसमें विरोध-प्रदर्शनों के लिए भी एक आचार संहिता बनानी होगी।

प्रशासन को विधिसम्मत और अवैध रूप से होने वाले प्रदर्शनों में अंतर करने की क्षमता विकसित करने के साथ उसी आधार पर उनसे निपटना होगा। इसके साथ ही सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता और उनकी डिलीवरी में सुधार किया जाना चाहिए, क्योंकि तभी हम मानव विकास सूचकांक की कसौटी पर खुद को बेहतर कर पाएंगे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक हैं ]