सूर्यकुमार पांडेय। जब भी चुनाव आते हैं, नेताओं के सपने में भगवान आने लगते हैं, लेकिन हम जैसे आम मतदाताओं के ऐसे भाग्य कहां? हमें तो रात का देखा हुआ सपना दिन में भूल जाता है। जैसे हम कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका को बिसार चुके हैं और तीसरी लहर के कहर से भी बेखौफ हैं। भूलना हमारी फितरत में है। 'बीती ताहि बिसार देÓ के चलते ही हम अपने स्वर्णिम अतीत को भी भूल गए। इसीलिए हमको बार-बार हमारा इतिहास याद दिलाना पड़ता है। और तो और, हम वे लोग हैं, जो प्रत्याशियों द्वारा पिछले चुनाव में किए गए वादों तक को भूल जाया करते हैं। हमें सरकारों की उपलब्धियां याद नहीं रहतीं। जो अधूरा छूट गया है वह ही हमारी जेहन में नाचता रहता है।

इस बार के इलेक्शन में चुनाव आयोग ने कोरोना-संक्रमण के भय से चुनाव-प्रचार में कुछ प्रतिबंध लगा दिए हैैं। अब चुनाव में दौड़-भाग न हो, भीड़ जुटाकर ऊंची-ऊंची न छोड़ी जाए तो उम्मीदवार और उनके कार्यकर्ताओं को बदहजमी होने लग जाती है। इसके चलते ही बहुत सारे नेता इन दिनों अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे दलों की ओर भागने लगे हैं। कुछ इधर से भागकर उधर जा रहे हैं। कुछ उधर से दौड़कर इधर आ रहे हैं। 'आरोप-प्रत्यारोपÓ का मेला लगा हुआ है। इस मेले की भीड़ में असली मुद्दे 'लोपÓ हैं। सभी पार्टियां कुछेक प्रत्याशियों के टिकट रिपीट कर रही हैं और कुछ के पत्ते कट रहे हैं। जिनके कट रहे हैं, वे लोग अपने ही शीर्ष नेताओं को काट खाने को उतावले हो रहे हैं।

ऐसे घमासान वातावरण में धृतराष्ट्र पूछते हैं कि 'हे संजय, मुझे नि:संकोच बतलाओ! टिकट बंटवारे के इस दौर में उन भूतपूर्व प्रत्याशियों पर कैसी गुजर रही है, जिन्हें टिकट नहीं मिल पाए हैं। जो समरभूमि में निर्दलीय खड़े हो पाने की हिम्मत का जुगाड़ भी नहीं कर पा रहे हैं। हे संजय, मुझे उन महारथियों के बारे में भी जानने की उत्कट अभिलाषा है, जो अपने जुगाड़ बैठा पाने में असमर्थ हैं और औंधे मुंह लेटे हुए हैं, फिर भी एक बार और चुनाव में खड़ा होना चाहते हैं। और तो और, जिनकी पराजय सुनिश्चित है, वे तक अति आत्मविश्वास से सराबोर हैं। तुम अपनी खुली आंखों से और भी जो कुछ देख पा रहे हो, वह भी मुझे फटाफट बताओ।Ó

संजय कहते हैैं, 'सुनो राजन! चुनाव-क्षेत्र की कर्मभूमि में विजय की इच्छा वाले पराक्रमी प्रत्याशियों और उनके बाहुबली बलवान तथा शूरवीर समर्थकों को देखकर मतदाता के अंग शिथिल हुए जा रहे हैं। वोटर भ्रमित हैं। सभी दल लोकतंत्र की भजनावलियां गा रहे हैं। ऐसे में भीष्म और भीम तथा दु:शासन और जयद्रथ के बीच का अंतर तिरोहित है। इस चुनावी समरांगण में अब पक्ष-विपक्ष का कोई सिद्धांत शेष नहीं रह गया है। जिन्हें भी टिकट का अस्त्र नहीं मिल पाया है अथवा प्राप्त न हो पाने की आशंका है, वे एक पक्ष से उचककर दूसरे पक्ष के रथ पर बैठने को आतुर है।Ó

धृतराष्ट्र कहते हैं, 'हे संजय, यह जो कुछ भी हो रहा है, इसे तुम ही देखो। यूं भी मेरा वोटर आइडी गलत बना हुआ है। उसमें मेरे नाम-पते के साथ किसी आंख वाले की फोटो चस्पा है। वैसे, मैं कम-से-कम इस चुनाव तक तो अंधा ही बना रहना चाहता हूं। इस नाते मैं अपना पहचान-पत्र दुरुस्त कराने भी नहीं जाने वाला हूं।Ó

संजय कहते हैैं, 'हे अखंड राजन, मैं आपकी इस चिर अंधता को प्रणाम करता हूं। जिनकी दोनों आंखें सही-सलामत हैं, वे ही भला कौन-सा सही और गलत की पहचान कर पा रहे हैं? सत्य तो यह है कि जब चुनाव की गर्द उडऩी आरंभ हो जाती है, तब अधिकांश आंख वालों की आंखों में ही नहीं, उनकी अक्ल पर भी भ्रम का पर्दा पड़ जाया करता है। सो हे राजन, आप सौभाग्यशाली हैं कि सत्य दिखलाने वाली ये आंखें आपके पास हैं ही नहीं। और यदि होतीं भी तो आप कर भी क्या लेते? आपके अपने दोनों कान अभी तक खुले हुए हैं, आप इसे ही गनीमत समझिए। कुछ दिनों बाद आप चुनावी शंखनाद के शोर और राजनीतिक पार्टियों के नए-नए दावे और वादे सुनकर स्वयं ही अपने दोनों कानों में रुई ठूंस लेंगे।Ó

(लेखक व्यंग्यकार हैं)