[ पॉल क्रुगमैन ]: डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि ‘ट्रेड वार बढ़िया है और उसे जीतना आसान होता है।’ उनका यह बयान निश्चित रूप से इतिहास की किताबों में दर्ज होगा, मगर यह भी तय है कि वह सही अर्थों में नहीं लिया जाएगा। इसके बजाय यह इराक युद्ध से पहले डिक चेनी की उस भविष्यवाणी की तर्ज पर याद किया जाएगा जिसमें चेनी ने कहा था कि, ‘हम तो वास्तव में मुक्तिदाता माने जाएंगे।’ ये बयान उस अहंकार और नादानी को दर्शाते हैं जो अक्सर महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर फैसला लेने में असर दिखाते हैं।

लोगों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा

हकीकत यही है कि ट्रंप इस ट्रेड वार को जीतने नहीं जा रहे। यह भी सच है कि उनकी प्रशुल्क दरों यानी टैरिफ ने चीन सहित अन्य अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाया है, लेकिन उनसे अमेरिका को भी क्षति उठानी पड़ी है। न्यूयॉर्क फेड में अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि इसके चलते बढ़ी हुई कीमतों के कारण एक औसत परिवार को सालाना एक हजार डॉलर अधिक खर्च करने पड़ेंगे। यानी लोगों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। फिर ऐसे कोई संकेत नहीं मिल रहे कि टैरिफ से ट्रंप के अपेक्षित लक्ष्य हासिल हो पा रहे हैं जिनका मकसद दूसरे देशों पर नीतियों में बदलाव के लिए दबाव डालना है।

ट्रेड वार क्या है?

आखिर ट्रेड वार क्या है? इस जुमले को न तो अर्थशास्त्रियों और न ही इतिहासकारों ने गढ़ा है जिसमें घरेलू राजनीतिक कारणों के चलते कोई देश टैरिफ में बढ़ोतरी करता है जैसा अमेरिका 1930 के दशक से नियमित रूप से करता आया है। ट्रेड वार की स्थिति तभी बनती है जब कोई देश दूसरे देश पर दबाव के जरिये नियंत्रण के मकसद से टैरिफ दरें बढ़ाता है ताकि उसे अपने पक्ष में नीतियां बदलने के लिए मजबूर कर सके। हालांकि इसमें दर्द तो वास्तविक रूप से महसूस हो रहा है, लेकिन नियंत्रण स्थापित होता नहीं दिख रहा। कनाडा और मेक्सिको पर ट्रंप ने इस मकसद से टैरिफ बढ़ाया कि वे उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार अनुबंध यानी नाफ्टा पर नए सिरे से वार्ता के लिए तैयार हो सकें। इस कड़ी में हुआ नया समझौता एकदम पुराने जैसा है जिसमें मैग्निफाइंग ग्लास लगाकर भी कोई नई बात देखने को नहीं मिलेगी। इस नए समझौते को भी अभी तक कांग्रेस की मंजूरी नहीं मिली।

नया टैरिफ ठंडे बस्ते में

वहीं जी-20 देशों के हालिया सम्मेलन में ट्रंप ने चीन के साथ जारी ट्रेड वार पर विराम लगाने को लेकर सहमति जताई। फिलहाल हम यही कह सकते हैं कि उन्होंने नए टैरिफ को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। हालांकि इस समझौते की भाषा बहुत अस्पष्ट है। इस बीच एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि ट्रंप का ट्रेड वार आखिर क्यों नाकाम हो रहा है? एक भीमकाय अर्थव्यवस्था के बगल में मेक्सिको बहुत छोटी सी अर्थव्यवस्था है जिसके बारे में आपको लगेगा और ट्रंप ने तो लगभग मान ही लिया कि उसे धमकाना आसान है। चीन अपने आप में एक आर्थिक महाशक्ति है, लेकिन वह अमेरिका से जितना खरीदता है उसकी तुलना में कहीं अधिक बेचता है तो आपने यही सोचा कि वह अमेरिकी दबाव के आगे कमजोर पड़ जाएगा। तब आखिर ट्रंप अपने आर्थिक मंसूबों में कामयाब क्यों नहीं हो सकते? मेरी नजर में इसके तीन कारण हैं।

अमेरिका हकीकत नहीं समझ पाया

पहला तो यही विश्वास था कि अमेरिका आसानी से ट्रेड वार जीत सकता है। यह कुछ उसी किस्म का मुगालता था जिसने अमेरिका की ईरान नीति का सत्यानाश कर दिया। अमेरिका में शक्तिशाली पदों पर बैठे तमाम लोग यह हकीकत नहीं समझ पाए कि दुनिया में हम इकलौते ऐसे देश नहीं जिसकी अपनी खास संस्कृति, इतिहास और पहचान है और जिसे अपनी आजादी पर नाज है। अमेरिका रियायतें देने का बहुत अनिच्छुक हो गया जो उसकी नजर में दुनिया के दबंग देशों के लिए खैरात जैसी है। ‘रक्षा पर अरबों का खर्च और परोपकार के लिए धेला नहीं’ यह खास अमेरिकी भावना तो बिल्कुल नहीं है। खासतौर से यह विचार बहुत ही मूर्खतापूर्ण है कि चीन बाकी देशों के साथ मिलकर ऐसे समझौते पर सहमति बना लेगा जो अमेरिका के लिए बहुत अपमानजनक होगा।

ट्रंप के रणनीतिकार वास्तविकताओं से अनभिज्ञ

दूसरी बात यही कि टैरिफ के मामले में ट्रंप के रणनीतिकार अतीत के दौर में जी रहे हैं जो आधुनिक अर्थव्यवस्था की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ हैं। वे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति विलियम मैक्किनले के दौर की यादों में खोए हैं। मगर उस वक्त यह पता होता था कि ‘आखिर यह वस्तु कहां बनी?’ लेकिन इन दिनों लगभग प्रत्येक विनिर्मित वस्तु वैश्विक वैल्यू चेन से जुड़ी है जो कई देशों की सीमा से गुजरते हुए तैयार होती है।

अमेरिकी कंपनियां पसोपेश में

इसमें बहुत कुछ दांव पर लगा होता है। नाफ्टा में हलचल की संभावनाओं को लेकर अमेरिकी कंपनियां अजीब पसोपेश में हैं, क्योंकि अमेरिकी उत्पादन एक बड़ी हद तक मेक्सिको से होने वाले कच्चे माल की आपूर्ति पर निर्भर है। फिर यह टैरिफ के प्रभाव के गणित को भी गड़बड़ा सकता है, क्योंकि यदि आप चीन में विनिर्मित वस्तुओं पर कर की दर बढ़ाएंगे, लेकिन अगर उनमें बड़े पैमाने पर कोरिया या जापानी कलपुर्जे लगे हों तब भी उनकी असेंबलिंग अमेरिका में स्थानांतरित न होकर वियतनाम जैसे किसी एशियाई देश में ही होगी।

ट्रंप का ट्रेड वार अलोकप्रिय

ट्रंप का ट्रेड वार खासा अलोकप्रिय भी है। कई सर्वेक्षणों से यह साबित हुआ है जिसका असर ट्रंप की लोकप्रियता पर भी पड़ रहा है। इससे वह विदेशी पलटवार को लेकर राजनीतिक रूप से खासे संवेदनशील हो गए हैं। चीन भले ही अमेरिका से उतनी खरीदारी न करता हो जितनी वह बिक्री करता है, लेकिन चीन का कृषि बाजार उन किसान बाहुल अमेरिकी राज्यों के लिए बेहद अहम है जिनके वोटों पर पकड़ बनाए रखने की ट्रंप को कड़ी मशक्कत करने की दरकार है।

ट्रेड वार को जीतने की हरसत पूरी हुई नहीं

इस तरह ट्रंप जिस ट्रेड वार को आसानी से जीतने की हरसत पाले हुए थे वह एक राजनीतिक युद्ध में तब्दील होता जा रहा है। इस लड़ाई में टिके रहने के लिहाज से भी वह चीनी नेतृत्व की तुलना में कम सक्षम हैं जबकि चीन को भी इसकी तपिश झेलनी पड़ रही है। तब आखिर यह कैसे खत्म होगा? ट्रेड वार में कभी कोई स्पष्ट विजेता नहीं बनता, लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था पर उनके निशान अक्सर लंबे समय तक देखे जाते हैं। ऐसी ही एक नाकाम कोशिश अमेरिका ने 1964 में की थी जब टैरिफ के जरिये यूरोप को फ्रोजन चिकन खरीदने के लिए मजबूर किया गया था।

अमेरिका की साख बुरी तरह प्रभावित

वह ट्रेड वार की एक हल्की-फुल्की कड़ी थी और ट्रंप का ट्रेड वार अतीत के मुकाबले कहीं बड़ा है, लेकिन इसका नतीजा भी संभवत: वही होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ विदेशी रियायतों को बंद कर ट्रंप इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित करेंगे, लेकिन इसका असल परिणाम हर किसी की जेब में सेंध लगाने के रूप में निकलेगा। वहीं पुराने व्यापार समझौतों को लेकर ट्रंप के खराब रवैये ने अमेरिका की साख को बुरी तरह प्रभावित करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों को भी कमजोर किया है। फिर जिन मैक्किनले का मैंने जिक्र किया था तो टैरिफ ने उन्हें उस समय खासा अलोकप्रिय बना दिया था। इस मसले पर अपने अंतिम भाषण में मैक्किनले ने स्वीकार किया था कि व्यापारिक युद्धों से किसी का भी भला नहीं होता और उन्होंने कारोबारी मामलों में दोस्ताना रिश्तों के साथ सद्भावना की जरूरत जताई थी।

( नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक  द न्यूयार्क टाइम्स के स्तंभकार हैं )