मध्य प्रदेश [आशीष व्यास]। ‘हमारे अधिकारी दिन में सपने देखते हैं और रात में सोते हैं।’ यह किसी साहित्यकार की कल्पना नहीं, बल्कि यह मध्य प्रदेश के किसानों की पीड़ा-आह से उपजा बयान है। वे किसान, जो मेहनत से फसल उगाते हैं और फिर उसी फसल को सरकारी मंडियों में, खुले में, भीगते और बर्बाद होते देखते हैं। यह स्थिति प्रदेश के लाखों किसानों की है। दूसरा संकट, कोरोना बगैर बताए ही प्रदेश में घुसता चला आया। उस आपाधापी में रणनीति बनाने से लेकर, फैसला लेने तक, बड़े से लेकर छोटे स्तर पर कई गलतियां हुईं, अभी भी लगातार हो ही रही हैं।

मजबूर-मजदूर ने हजारों किमी पैदल चलकर लंबी दूरी तय कर ली, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप से परहेज किया। राशन की लाइन में लग गए, लेकिन अनशन नहीं किया। संक्षेप में कहें तो आम आदमी ने कोरोना के नाम पर सब कुछ माफ कर दिया, लेकिन निसर्ग चक्रवात तो पल-पल की सूचनाएं देते हुए, मध्य प्रदेश की तरफ बढ़ रहा था। मौसम विभाग ने भी कई दिनों पहले से चेतावनी देना शुरू कर दिया था। मौसम विभाग का अलर्ट जारी हुआ और इधर परंपरागत सरकारी ढर्रा सक्रिय हो गया। राजधानी से ‘आदेश’ चलना शुरू हुआ और फिर चलता ही चला गया।

प्रमुख सचिव से संभागायुक्त, संभागायुक्त से कलेक्टर और कलेक्टर से मंडी सचिव तक। आश्चर्य की बात यह भी है कि उस ‘आदेश’ में सभी एक-दूसरे को अलर्ट जारी करते हुए खुले में पड़े गेहूं को बचाने की हिदायत दे रहे हैं। लेकिन यह गेहूं बचेगा कैसे? इसे कौन बचाएगा? नहीं बचा पाएगा, तो उस पर क्या कार्रवाई होगी? इसका कोई उल्लेख नहीं है। जाहिर है जैसा गेहूं खुले में पड़ा है, वैसा ही यह आदेश भी है।

गेहूं भीग जाने पर जैसे कोई जिम्मेदार नहीं, वैसे ही इस आदेश के उल्लंघन पर कोई दोषी नहीं। इसीलिए किसी के पास यह जवाब नहीं है कि इतने आदेश-निर्देश के बाद गेहूं भीग कैसे गया? यह तो तय है कि राजनीति के खेल में लगी सरकारें, इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकतीं। क्या खेल के मैदान से इस सवाल का समाधान समझा जा सकता है? उदाहरण के लिए क्रिकेट मैच में जब बारिश शुरू होती है तो दर्शकों से भरे रहने वाले स्टेडियम में चंद मिनटों के भीतर ही पिच और पूरा ग्राउंड ढंक दिया जाता है।

निसर्ग महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश से गुजरा, इसलिए इन तीन राज्यों के क्रिकेट मैदान पर ही नजर डालते हैं। तीनों ही राज्यों में अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट स्टेडियम हैं। क्या मैदान और मंडी थ्योरी को इन तीनों खेल मैदान से समझा जा सकता है? अहमदाबाद में दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनकर तैयार है। इस स्टेडियम में एक साथ एक लाख दस हजार लोग बैठकर क्रिकेट का लुत्फ उठा सकते हैं।

मुंबई में भी वानखेड़े स्टेडियम की व्यापक दर्शक क्षमता है। मध्य प्रदेश में भी इंदौर और ग्वालियर में दो बड़े क्रिकेट मैदान हैं। वहां बारिश के दौरान ग्राउंड व पिच को बचाने के पूरे इंतजाम हैं। इंदौर के होलकर स्टेडियम में ऐसी व्यवस्था है, जो दुनिया के बड़े-बड़े क्रिकेट स्टेडियम में भी नहीं होगी।

एक लाख 53 हजार वर्गफीट मैदान में बने इस स्टेडियम को ढकने के लिए 60-70 लोगों का प्रशिक्षित स्टाफ है। अधिक से अधिक 30 मिनट के भीतर पूरे मैदान को प्लास्टिक से ढककर पानी से बचाया सकता है। दरअसल वर्ष 2019 के क्रिकेट विश्व कप के दौरान जब चार मैच बारिश में धुल गए, तब देश-दुनिया में क्रिकेट मैदान को बारिश से बचाने के लिए बहुत सी पद्धतियां सामने आई थीं।

वैसे भी, क्रिकेट मैदान बहुत बड़े होते हैं, ऊपर से खुले भी रहते हैं, लेकिन भारी बारिश में भी इसे गीला होने से बचा लिया जाता है। देश के कई मैदानों में सुपर सॉपर से आगे जाकर आधुनिक तकनीक से सब-एयर सिस्टम और हेरिंग बोन सिस्टम उपयोग हो रहा है, जिसमें मैदान के अंदर ही पानी को सोख कर बाहर निकाल दिया जाता है। इतना सब कुछ केवल कुछ देर के मनोरंजन को अबाध रूप से जारी रहने के लिए किया जाता है। 

हो सकता है एक तर्क यह दिया जाए कि चूंकि क्रिकेट में लाभ का गणित काम करता है, इसलिए नवाचार जरूरी है। क्या 70 प्रतिशत कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले मध्य प्रदेश में एक-दो आदर्श मंडी भी स्थापित नहीं की जा सकती? वैसे भी प्रदेश में करीब 250 मंडियां हैं, जहां इन दिनों समर्थन मूल्य पर गेहूं की खरीदी चल रही है।

निसर्ग आने से पहले यह चेतावनी चल रही थी कि खुले में पड़े गेहूं को बचाने के प्रबंध किए जाएं। निसर्ग नहीं भी आता, तो भी मानसून केरल में आमद दे चुका था। अभी तो निसर्ग का असर था, अब अगले कुछ दिनों में मानसून मध्य प्रदेश में प्रवेश कर जाएगा। क्या निसर्ग से निपटने में परास्त हो चुका शासन-प्रशासन अपनी गलती सुधारने के लिए अब भविष्य के लिए किसी आपदा प्रबंधन पर काम कर रहा है?

क्योंकि सरकारों को अभी यह सबक सीखना शेष है कि खेत-खलिहान में आपदा प्रबंधन करना केवल लाखों-करोड़ों के टेंडर जारी कर सामान खरीदना ही नहीं, बल्कि अपने जिले या राज्य की श्रम-शक्ति और तकनीक को पहचानना भी है, जिससे आवश्यकता पड़ने पर सहयोग-सरोकार रखा जा सके। फिलहाल तो उम्मीद ही की जा सकती है कि आंख का पानी यदि नहीं उतरा हो, तो सरकार गेहूं को भीगने से बचा लेगी। (संपादक, नई दुनिया)